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छत्तीसगढ़ : भ्रष्टाचार, जाँच और राजनीति

बोफोर्स मामले में भ्रष्टाचार के आरोप के बाद तत्कालीन राजीव गांधी सरकार को सत्ता से हाथ धोना पड़ा, तब से भ्रष्टाचार के मामले राजनीति में विरोधी पक्ष का सत्ता पक्ष के विरुद्ध एक प्रमुख चुनावी हथियार बन गया है।छत्तीसगढ़ प्रदेश में भी पिछले 15 वर्ष के दौरान भारतीय जनता पार्टी की सरकार के विरुद्ध विपक्ष कांग्रेस पार्टी ने भ्रष्टाचार के अनेक आरोप लगाए। अब जब कांग्रेस पार्टी लगभग तीन चौथाई बहुमत से सत्ता पर क़ाबिज़ हो गयी है, रोज़ किसी न किसी अनियमितता के प्रकरणों पर जाँच के आदेश दिए जा रहे हैं। ऐसा सत्ता बदलने के बाद हर राज्य में होता है, लेकिन कुछ अपवाद छोड़ दिए जाएं तो भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे किसी पूर्व मंत्री या उच्च अधिकारियों के मामले किसी निष्कर्ष तक पहुचे हो या फिर उन्हें सज़ा मिली हो, नहीं देखा। इसका मतलब क्या यह है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे केवल चुनावी लाभ लेना या जनता में सत्तारूढ़ पार्टी के विरुद्ध जनता का मन भटकाने का ज़रिया मात्र है?
छत्तीसगढ़ प्रदेश में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए तीन संस्थाएं काम कर रही है एक आर्थिक अपराध शाखा (EOW), दूसरी संस्था है एंटी करप्शन ब्यूरो और तीसरी लोक आयोग। पिछले 18 वर्षों में इन तीनों संस्थाओं ने किसी भ्रष्टाचार के मामले पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचे ना ही भ्रष्टाचार के आरोपियों को सजा दिला पाए।
राज्य गठन होने के बाद ही फ़र्नीचर घोटाला सामने आया था विपक्ष ने हंगामा किया तो विधानसभा समिति का गठन भी हो गया। विधानसभा समिति भी उक्त घोटाले के आरोपियों को सज़ा नहीं दिलवा सकी। ऐसा ही कुछ मोवा धान ख़रीदी और कुनकुरी घोटाले के मामले में हुआ। 2004 में तत्कालीन लोक निर्माण विभाग के मंत्री राजेश मूणत में डामर घोटाले का पर्दाफ़ाश किया था लेकिन 14 वर्षों से डामर घोटाला की जांच ई ओ डब्लू में कैद में और उसके आरोपी स्वतंत्र होकर मौज कर रहे हैं।
एंटी करप्शन ब्यूरो ज़रूर साल में दर्जन भर से अधिक अधिकारियों के ठिकानों पर छापे मारता है लेकिन करोड़ों की संपत्ति उजागर होने के बावजूद अधिकारियों के ख़िलाफ़ आय से अधिक संपत्ति रखने का कोई मामला नहीं बन सका। उल्टे जिन अधिकारियों के घर में छापा पड़ा, वे अपने विभागों में पदोन्नत हो गए और मलाईदार पदों पर आज भी क़ाबिज़ है। धमतरी में एक युवा आईएएस अघिकारी के विरुद्ध  भ्रष्टाचार की शिकायत मिलने पर ब्यूरो ने छापा मारा लेकिन उसके अधीनस्थ कर्मचारी रंगे हाथ पकड़ाया। आईएएस अधिकारी का कुछ नहीं बिगड़ा लेकिन वह छोटा कर्मचारी जेल पहुँच गया।
भ्रष्टाचार से लड़ने की तीसरी संस्था है लोकायुक्त या एक मज़बूत संगठन है किंतु यह इसका गठन हुआ तब तत्कालीन सरकार ने लोकायुक्त के दाँत और नाख़ून तोड़ दिए। लोकायुक्त को भ्रष्टाचार के मामले में जाँच कर केवल अनुशंसा करने का अधिकार है, कार्रवाई करने का नहीं। लोकायोग की रिपोर्टों में इस बात की पीड़ा और व्यथा है कि भ्रष्टाचार के दोषी अधिकारियों के ख़िलाफ़ लोकआयुक्त की अनुशंसा पर विभागीय अधिकारी कोई कार्रवाई नहीं करते।
भ्रष्टाचार से लड़ने में नाकाम तीनों संस्थाओं को किनारे कर नवगठित सरकार ने भ्रष्टाचार के मामलों पर एसआईटी करने का निर्णय लिया है। उम्मीद है यह नई व्यवस्था अपना उद्देश्य पाने में सफल होगी। साथ साथ दैनंदिनी भ्रष्टाचार से परेशान आम जनता को अपनी शिकायत दर्ज कराने उपरोक्त संस्थाओं पर ही निर्भर रहना पड़ता है, इसलिए सरकार को आर्थिक अपराध शाखा,एंटी करप्शन ब्यूरो और लोकायुक्त को भी मज़बूत करना होगा। भ्रष्टाचार के मामले केवल आरोप लगाने तक सीमित न हो, केवल इसके राजनीतिक लाभ लेकर चुनाव जीतने के जुमले न बने। जनता की गाढ़ी कमाई पर डाका डालने वालों पर सख़्त से सख़्त कार्रवाई हो।
भूपेश बघेल सरकार एक के बाद एक भ्रष्टाचार के आरोपों पर जांच करने का निर्णय ले रही है। उम्मीद की जाए कि मामले किसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे, दोषियों को सज़ा मिलेगी। ऐसा नहीं हुआ तो जनता का भ्रष्टाचार जैसे विषयों से भरोसा उठ जाएगा। लोगों को लगेगा कि राजनीतिक पार्टियां केवल सत्ता पाने के लिए भ्रष्टाचार का राग अलापते हैं, यह संदेश भी जाएगा कि नई सरकार जांच के नाम पर बदलापुर की राजनीति करती है या फिर लूट के माल में हिस्सा लेने का हथकंडा मात्र है।

शशांक शर्मा

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