सन 2014 के आम चुनावों में जीत के बाद और हालिया विधानसभा चुनावों के पहले तक भारतीय जनता पार्टी का अजेय होने का जो मिथक था, वह टूटता नजर आ रहा है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी को मिली हार ने उसके प्रति बनी राष्ट्रीय अवधारणा में दरार डाल दी है। तीन हिंदीभाषी राज्यों में भाजपा की हार कितनी बड़ी है, और उसका असर कितना गहरा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उत्तर पूर्व में इकलौती जगह यानी मिजोरम में कायम कांग्रेस का सफाया हो गया, लेकिन कांग्रेस की यह हार मिजोरम के बाहर बड़ी खबर तक नहीं बनी। कांग्रेस की उस तेलंगाना में भी करारी हार हुई, जहां पांच साल पहले तक उसका राज होता था। वह तेलंगाना उस अविभाजित आंध्र का हिस्सा था, जिसकी बदौलत 2004 में कांग्रेस की केंद्रीय सत्ता में वापसी हुई थी। जिसमें अविभाजित आंध्र के पूर्व मु यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी ने बड़ी भूमिका निभाई थी। आंध्र प्रदेश का सघन दौरा करने के बाद उन्होंने ना सिर्फ तेलुगू देशम को उखाड़ फेंका था, बल्कि केंद्र में कांग्रेसी जीत के बड़े क्षत्रप बनकर उभरे थे।
तीन विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद विपक्षी राजनीति के खेमे और विपक्ष की भूमिका निभा रहे राष्ट्रीय मीडिया के बड़े हिस्से में उ मीदों के परिंदे आसमान में ऊंची उड़ान भरने लगे थे। उ मीद इस बात की कि महागठबंधन बनकर रहेगा। वही महागठबंधन, जिसने 2015 में हुए बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान जन्म लिया था। तब नरेंद्र मोदी को चुनौती देने के लिए बिहार की राजनीति में न के बराबर भूमिका वाली समाजवादी पार्टी को भी शामिल करने की कोशिश की गई। समाजवादी पार्टी के राजपिता मुलायम सिंह यादव ने लालू यादव, नीतीश कुमार के साथ बिहार जाकर मंच साझा भी किया। लेकिन हकीकत में उन्होंने महागठबंधन में शामिल होने से कन्नी काट ली थी। तब रिश्तेदार बन चुके लालू यादव को उ मीद थी कि पारिवारिक रिश्तेदारी का सिला मुलायम सिंह यादव राजनीतिक रिश्ते के रूप में भी देंगे। लेकिन उन्हें निराशा हाथ लगी थी। भारतीय जनता पार्टी से 1991 से खार खाए बैठी भारतीय वामपंथी पार्टियां भले ही अपने राजनीतिक वजूद की आखिरी सांस ले रही हों, लेकिन वे भाजपा को शिकस्त देने के लिए जैसे ही माकूल माहौल नजर आता है, उसमें अपनी भूमिका तो खुद-ब-खुद जोड़ ही लेती हैं, भाजपा विरोधी राजनीतिक विचार की बड़ी पैरोकार बनकर अपने आप आगे आ जाती हैं। कहना न होगा कि महागठबंधन के विचार के वक्त भी वे आगे आ गई थीं। माक्र्सवादी क युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी और भारतीय क युनिस्ट पार्टी के महासचिव सुधाकर रेड्डी और सचिव डी राजा भी खुलकर मैदान में आ गए। पिछली सदी के नब्बे के दशक तक वाममोर्चे के नेताओं हरकिशन सिंह सुरजीत और एबी वर्धन का नैतिक कद कम से कम विपक्षी राजनीति में इतना ऊंचा था कि उनकी बात सुनी जाती थी और उन्हें अगली पंक्ति में स्थान भी मिलता था। लेकिन अब ऐसा नहीं रहा। फिर भी महागठबंधन के विचार को बढ़ावा देने में इन पार्टियों ने बढ़-चढ़कर भूमिका निभाई। महागठबंधन का वही विचार एक बार फिर कुलांचे मारने लगा है। सीताराम येचुरी उ मीद भरे सुर में कह भी चुके हैं, ‘राजनीतिक हालात में विकल्प उभर आते हैं और वैसा राजनीतिक माहौल फिर बन गया है।’
लेकिन क्या भारतीय जनता पार्टी को चुनौती देने और केंद्रीय सत्ता से बाहर करने के लिए महागठबंधन बन भी पाएगा? इसका जवाब ‘ना’ में मिलता नजर आ रहा है। भारतीय राजनीति में कहा जाता है कि केंद्रीय सत्ता की राह उत्तर प्रदेश और बिहार से होकर जाती है। इसकी वजह भी है। उत्तर प्रदेश से लोकसभा की जहां 80 सीटें आती हैं, वहीं बिहार से लोकसभा की इसकी आधी यानी 40 सीटें आती हैं। लोकसभा की कुल सं या की एक चौथाई से भी ज्यादा सीटें तो इन्हीं दो राज्यों से आती हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश में महागठबंधन का विचार खटाई में पड़ गया है। महागठबंधन में जो बड़े विपक्षी दल यानी समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी शामिल होकर महागठबंधन को ताकतवर बना सकते थे, वे दोनों ही दल महागठबंधन के स्वघोषित अगुआ माने जा रहे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को किनारा कर चुके हैं। कांग्रेस के लिए उन्होंने राज्य में सिर्फ दो सीटें छोड़ दी हैं। अमेठी की सीट से खुद राहुल गांधी सांसद हैं तो उसके पास वाली रायबरेली से उनकी मां और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी। राज्य के दोनों विपक्षी दल समाजवादी पार्टी और बहुजनसमाज पार्टी पहले महागठबंधन में शामिल होने के संकेत दे चुके थे, लेकिन उन्होंने कांग्रेस को इन्हीं दोनों सीटों का प्रस्ताव दिया था। लेकिन कांग्रेस आठ से दस सीटें चाहती थी। राहुल गांधी की राजनीति के नजदीकी रणनीतिकार आरपीएन सिंह, जितिन प्रसाद और राजकुमारी रत्ना सिंह जैसे नेता उत्तर प्रदेश से ही आते हैं और उनके बिना कांग्रेस अध्यक्ष की ताकत का कोई मतलब नहीं है। बहरहाल समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को कांग्रेस से दो से ज्यादा सीटों का सौदा अलग लगा तो उन्होंने खुद के दम पर भी चुनाव लडऩे की ठान ली। उत्तर प्रदेश में बुआ यानी मायावती और बबुआ यानी अखिलेश ने मिलकर जो गठबंधन बनाया है, उसमें समाजवादी पार्टी 38 और बहुजन समाज पार्टी 38 सीटों पर चुनाव लडऩे जा रही है। जबकि दो सीटें उसने राष्ट्रीय लोकदल के लिए रखी हैं। हां, उन्होंने यह तय जरूर किया है कि भले ही महागठबंधन में कांग्रेस शामिल ना हो, लेकिन उसके लिए उन्होंने अमेठी और रायबरेली की सीट खाली रखी है।
महागठबंधन को लेकर अखिलेश यादव के मन में कैसी शंका रही, उसे उनके बयान से ही समझा जाना चाहिए। समाजवादी पार्टी प्रमुख ने कहा था, ”बीजेपी के लिए महागठबंधन कोई बड़ी चुनौती नहीं है। 2019 में भी हमारी वापसी होगी, हां यूपी में सपा-बसपा के गठबंधन से कुछ चुनौती जरूर खड़ीं हो सकती हैं।’’ जाहिर है कि जब उत्तर प्रदेश में ही महागठबंधन नहीं बन पाएगा तो देशभर में महागठबंधन की आंच पर भारतीय जनता पार्टी के प्रभाव को कैसे जलाया जाएगा। शायद यही वजह है कि भारतीय जनता पार्टी हालिया हार के बाद उपजी चुनौतियों के बावजूद उ मीद से है। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का यह बयान शायद इसी तथ्य के बाद आया है। उन्होंने कहा है, ‘महागठबंधन का कोई वजूद ही नहीं है।’
महागठबंधन में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजपार्टी के न शामिल होने को लेकर कांग्रेस या दूसरे विपक्षी दलों ने खुलकर कुछ नहीं कहा है, अलबत्ता उनके समर्थक मीडिया के लोग खुसुर-पुसुर में यह समझाते फिर रहे हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार ने दोनों दलों पर सीबीआई का डंडा चलाया है। जिसकी वजह से दोनों कांग्रेस की अगुवाई में महागठबंधन में शामिल नहीं हो रहे हैं। गौरतलब है कि दोनों ही दलों के मुखियाओं पर आय से अधिक संपत्ति और भ्रष्टाचार के मामले दर्ज हैं। जिनके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में भी मामले लंबित हैं। बहरहाल यह तर्क देने वालों के पास इस बात का जवाब नहीं है कि फिर मध्य प्रदेश और राजस्थान में बहुजन समाज पार्टी ने भाजपा की बजाय कांग्रेस को समर्थन क्यों दे दिया? क्या भारतीय जनता पार्टी की सरकार की सीबीआई का डंडा इन राज्यों के मामले में इन पार्टियों के खिलाफ नहीं चलता।
उत्तर प्रदेश के नजदीकी बिहार में महागठबंधन का विचार फलित होता नजर आ रहा था। लेकिन वहां भी यह गठबंधन गैर कांग्रेसी दलों का ही बनता नजर आ रहा है। राष्ट्रीय जनता दल की कमान संभाल रहे तेजस्वी यादव ने मायावती की जिस तरह पायंलगी की है, उसके संकेत साफ हैं। हाल तक केंद्रीय सत्ता में शामिल रहे राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के नेता उपेंद्र कुशवाहा नरेंद्र मोदी पर कैबिनेट को रबर स्टैंप बनाने और संघ के एजेंडे पर चलने का आरोप लगाते हुए इस गठबंधन में शामिल हो चुके हैं। बेशक उन्होंने मोदी और भारतीय जनता पार्टी को सवालों के घेरे में लिया है लेकिन उनकी असल समस्या नीतीश कुमार रहे हैं। राजनीति में अतीत को लेकर आंकलन नहीं किया जाता है। लेकिन यह भी सच है कि अगर 2013 में नीतीश कुमार ने भारतीय जनता पार्टी का साथ नहीं छोड़ा होता तो बिहार में लालू यादव, कांग्रेस और उपेंद्र कुशवाहा का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया होता। नीतीश कुमार के अलगाव के बाद उपजे शून्य में कुशवाहा जैसे राजनेताओं की बन आई। वैसे कुशवाहा और नीतीश 2009 के पहले तक दोस्त हुआ करते थे। लेकिन दोनों में राजनीतिक अदावत बढ़ती गई और इतनी बढ़ी कि दोनों एक दूसरे के राजनीतिक खून के प्यासे हो गए। इसलिए नीतीश कुमार की राष्ट्रीय जनतांत्रिक खेमे में वापसी के बाद से ही उपेंद्र कुशवाहा असहज थे। बहरहाल बिहार के लिए जो महागठबंधन बना है, उसमें उसके पूर्ववर्ती हिस्से झारखंड को भी शामिल किया गया है। बिहार की चालीस और झारखंड की 14 सीटों को लेकर इन दलों के बीच सीटों का बंटवारा होना है। कहा जा रहा है कि बिहार में आरजेडी कांग्रेस के लिए चार सीटें ही छोडऩा चाहती है, जबकि राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी को चार और खुद के लिए 30 सीटें रखना चाहती है। वैसे अब इसमें समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी मिल रही हैं। झारखंड में भी गैर झारखंड मुक्ति मोर्चा तीनों दलों को एक-एक सीटें मिल सकती हैं। एक दौर में लालू के चेले रहे नागमणि इन दिनों उपेंद्र कुशवाहा के प्रमुख सलाहकार हैं। उन्हें झारखंड की चतरा सीट से लडऩा है और महागठबंधन में उनकी वजह से चतरा सीट राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी मांग रही हैं। हालांकि यहां झारखंड विकास मोर्चा, झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस ने तय कर लिया है कि संसदीय चुनाव वे कांग्रेस की अगुवाई में लड़ेंगे, जबकि विधानसभा का चुनाव हेमंत सोरेन को आगे रखकर।
महागठबंधन इसके अलावा कहीं कामयाब होते नजर आ रहा है तो वे दक्षिण भारत के चार राज्य हैं। आंध्र प्रदेश में तो निजी दुश्मनी की हद तक मोदी विरोध में उतर चुके तेलुगू देशम पार्टी के महासचिव और आंध्र प्रदेश के मु यमंत्री नारा चंद्रबाबू नायडू अपने नाम को सही साबित करते हुए देशभर में मोदी विरोधी नारा लगाते नजर आ रहे हैं। मोदी विरोधी खेमे को मजबूत करने के लिए उन्होंने एक तरह से अभियान ही छेड़ रखा है। अपनी प्रशासनिक नाराजगी छिपाने के लिए उन्होंने बार-बार मोदी सरकार से आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग रखी। मोदी सरकार बार-बार यह सफाई देती रही कि दसवें वित्त आयोग की रिपोर्ट के बाद सीमावर्ती और पहाड़ी राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा देना संभव नहीं रहा। अलबत्ता केंद्र सरकार नायडू को समझाने और आंध्र प्रदेश को सहयोग देने का वादा करती रही। लेकिन विशेष राज्य की मांग पर अड़े नायडू ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से नाता तोड़ दिया। वैसे उनकी छवि सत्ता के साथ ही रहने की रही है। 1998-2004 तक वे तत्कालीन वाजपेयी सरकार के साथ रहे। सत्ता का बाहर से समर्थन करते रहे और उसकी कीमत वसूलते रहे। बहरहाल उन्हें आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा इसलिए चाहिए था कि आंध्र प्रदेश में वे विकासकार्य नहीं करा सके। फिर अमरावती को नए राज्य की राजधानी बनाने के लिए जरूरी 6000 करोड़ की रकम नहीं जुटा पाए। उन्हें उ मीद थी कि केंद्र सरकार यह मदद करेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तब वे उस कांग्रेस के साथ जा खड़े हुए, जिसके विरोध में उनके ससुर नंदमुरितारक रामाराव ने 1982 में तेलुगूदेशम की स्थापना की थी। बहरहाल उनकी नजर में अब राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री बनने लायक सर्वाधिक नेता हैं। उन्होंने ही अरविंद केजरीवाल को भी महागठबंधन में शामिल करने की कोशिश की थी। पहले तो ऐसा होता लगा। दिल्ली की हवा में यह खबर चलने भी लगी थी लोकसभा चुनावों में केजरीवाल और कांग्रेस के बीच समझौता हो सकता है। लेकिन अब राजीव गांधी को दिए भारत रत्न को वापस करने की मांग को लेकर दोनों दलों में खटास आ गई है। दरअसल 1984 के सिख विरोधी दंगों में कांग्रेस के पूर्व सांसद सज्जन कुमार को आजीवन कारावास की सजा होने के बाद केजरीवाल को पंजाब में अपनी राजनीति के लिए संभावनाएं नजर आने लगी हैं, वहीं दिल्ली के सिख वोटरों के भारतीय जनता पार्टी की ओर पूरी तरह खिसकने के आसार बढ़ गए हैं। इसलिए केजरीवाल ने राजीव गांधी से भारत रत्न स मान वापस लेने का प्रस्ताव दिल्ली विधानसभा से पारित करा दिया है। कांग्रेस के सर्वोच्च नेता के पिता और पूर्व में सर्वोच्च नेता रहे श स से स मान वापसी की मांग करना उनके सर्वोच्च बलिदान का कम से कम कांग्रेस की नजर में अपमान ही होगा, इसलिए अब दोनों दलों में गठबंधन शायद ही हो सके।
कर्नाटक में तो महागठबंधन विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद से ही चल रहा है। वहां जनता दल सेक्युलर और कांग्रेस मिलकर बाकायदा सरकार चला रहे हैं। केरल में वाममोर्चा भले ही सरकार चला रहा है, लेकिन वह महागठबंधन के लिए कांग्रेस से रणनीतिक साझेदारी कर सकता है। क्योंकि पिछले विधानसभा चुनावों में 16 प्रतिशत वोट लेकर उभरी भारतीय जनता पार्टी से अब वहां के दोनों प्रमुख गठबंधनों कांग्रेस की अगुवाई वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट और वाममोर्चे की अगुवाई वाले ले ट डेमोक्रेटिक फ्रंट सशंकित हैं। महागठबंधन की तेज आवाज तमिलनाडु से भी सुनाई पड़ी है। द्रमुक नेता एम करूणानिधि की मूर्ति के अनावरण समारोह में जिस तरह द्रविड़ मुनेत्र कषगम् प्रमुख स्टालिन ने राहुल गांधी को मोदी को हराने वाला नेता बताया, उससे साफ है कि वे महागठबंधन की ओर एक कदम बढ़ा चुके हैं। इस गठबंधन में बाकी छोटे दलों का क्या रूख होगा, अभी तय नहीं है। सीमित ही सही, रजनीकांत और कमल हासन की पार्टियों का भी वजूद है। उन्होंने अभी अपना रूख तय नहीं किया है। यह तय है कि अगर द्रमुक कांग्रेस की अगुवाई वाले महागठबंधन में शामिल होगी तो उसकी धुर विरोधी अन्ना द्रमुक को भारतीय जनता पार्टी के साथ रहना होगा। तमिलनाडु के दोनों प्रमुख दलों का संकट यह है कि अब उनके चमत्कारिक नेताओं करूणानिधि और जयललिता का निधन हो चुका है। इसलिए वे अब शायद ही अपने दम पर जीत हासिल कर सकें। वैसे तो गोवा छोटा राज्य है, लेकिन यहां भी गठबंधन की संभावना बन रही है। हालांकि यहां लोकसभा की सिर्फ दो सीटें हैं। महागठबंधन महाराष्ट्र में पहले से ही माना जा सकता है। क्योंकि वहां भारतीय जनता पार्टी के विरोध में कांग्रेस और शरद पवार की अगुवाई वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठबंधन पहले से ही चल रहा है। प्रकाश अंबेडकर की अगुवाई वाली आरपीआई और शेतकारी संगठन जैसे कुछ छोटे दल पहले से ही इस गठबंधन में हैं। लेकिन राज्य में सबसे चमत्कारिक बदलाव शिवसेना में आया बदलाव नजर आ रहा है। शिवसेना के प्रवक्ता और सांसद संजय राउत को उस कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी में प्रधानमंत्री पद की धाक नजर आने लगी है, जिसके खिलाफ इस पार्टी ने अपना पूरा आंदोलन चलाया है। शिवसेना भारतीय जनता पार्टी की पुरानी सहयोगी है, लेकिन महाराष्ट्र के पिछले विधानसभा चुनाव में जिस तरह भारतीय जनता पार्टी ने उसे किनारे रखकर अपना चुनाव अभियान चलाया और नंबर वन पार्टी बन गई, उसे शिवसेना पचा नहीं पाई है। वह राज्य और केंद्र के सरकार में शामिल है, लेकिन उसे भाजपा का साथ भी पच नहीं रहा है। इसलिए यह तय है कि अगर केंद्र में गैर भाजपा सरकार की उ मीद बढ़ी तो वह आखिरी दौर में पाला बदल भी सकती है।
महागठबंधन की राह में तीन बड़े क्षेत्रीय क्षत्रप बाधक भी हैं। इनमें पहला नाम ममता बनर्जी का है। पश्चिम बंगाल की मु यमंत्री ममता बनर्जी महागठबंधन की बजाय फेडरल फ्रंट बनाने की वकालत कर रही हैं। पश्चिम बंगाल में 39 लोकसभा सीटें हैं। ममता को लगता है कि अगले चुनाव में जिस दल के ज्यादा सांसद आएंगे, उस दल के नेता के प्रधानमंत्री बनने की संभावना बढ़ जाएगी। यह सोच समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की है। इसलिए इन दलों ने महागठबंधन से दूरी बना रखी है। महागठबंधन और फेडरल फ्रंट में मोटे तौर पर अंतर यह है कि फेडरल फ्रंट में हर दल के नेता की हैसियत बराबर की होगी, जबकि महागठबंधन एक ही अवधारणा पर चल रहा है कि राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री पद के उ मीदवार हैं। फेडरल फ्रंट यानी संघीय मोर्चा के दो और बड़े नाम उड़ीसा के मु यमंत्री नवीन पटनायक और तेलंगाना के मु यमंत्री के चंद्रशेखर राव हैं। इसमें वाइएसआर कांग्रेस के अध्यक्ष के जगन रेड्डी भी शामिल हो गए हैं।
इन नेताओं की चिंता यह भी है कि अगर वे कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबंधन में शामिल हुए तो उनके पास जो मुस्लिम वोट बैंक का बड़ा आधार भारतीय जनता पार्टी के विरोध के नाम पर बना है, वह उनसे छिटक जाएगा और वह कांग्रेस के पास चला जाएगा। इस वजह से ये महागठबंधन में शामिल होने से छिटक रहे हैं। कांग्रेस के साथ महागठबंधन में शामिल होने से समाजावादी और बहुजन समाज पार्टी भी इसीलिए हिचक रही है कि अगर वे कांग्रेस के साथ आए तो उत्तर प्रदेश में उनका जो बड़ा आधार वोटबैंक है, उसमें कांग्रेस सेंध लगाकर अपना आधार बढ़ा सकती है। महागठबंधन में शामिल होने को लेकर उड़ीसा के बीजू जनता दल की भी अपनी कोई साफ राय नहीं है। वैसे मोटे तौर पर माना जा रहा है कि वह महागठबंधन में शामिल नहीं होगी। उसके एक नेता ने तो बयान भी दिया है कि किस गठबंधन में शामिल होना है, इस पर ध्यान चुनाव नतीजों के बाद दिया जाएगा। यानी साफ है कि बीजू जनता दल बिना किसी गठबंधन के लोकसभा चुनावों में उतरने जा रहा है।
चंद्रशेखर राव और नवीन पटनायक की एक चिंता और है। उड़ीसा में भले ही भारतीय जनता पार्टी को उभरती हुई बड़ी ताकत माना जा रहा है, लेकिन अब भी नवीन पटनायक के सामने बीजेपी की बरक्स कांग्रेस पार्टी कहीं ज्यादा ताकतवर है। ऐसा ही हाल तेलंगाना में भी है। दोनों दलों की चिंता है कि अगर वे महागठबंधन में शामिल हुए तो उनका समर्थक आधारवोट बैंक कांग्रेस की तरफ भी खिसक सकता है या कांग्रेस विरोधी वोट समूह नाराज होकर उनसे खिसककर भारतीय जनता पार्टी की ओर चला जाएगा। इसलिए भी वे दल महागठबंधन में शामिल होने से बच रहे हैं।
महागठबंधन में तमिलनाडु में कमल हसन और रजनीकांत की पार्टियों के साथ ही डीएमडीके समेत पूर्वोत्तर के छोटे दलों की भी अपनी भूमिका होगी। महागठबंधन में बाकी दल भले ही राहुल गांधी की अगुवाई को स्वीकार कर लें, लेकिन समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, ममता बनर्जी और के चंद्रशेखर राव उन्हें शायद ही नेता मानें। शायद यही वजह है कि अब कांग्रेस भी राहुल को बिना प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताए चुनाव मैदान में उतरने का संकेत दे रही है। कुलमिलाकर देखा जाए तो महागठबंधन की संभावना आधे देश पर भी नहीं नजर आ रही है। अखिल भारतीय पार्टी बन चुकी भारतीय जनता पार्टी के लिए यही राहत की बात है। लेकिन अगर उसे चुनाव जीतना है तो उसे अपने सच्चे कार्यकर्ताओं को मनाना होगा, जो साढ़े चार साल के राज में अपनी उपेक्षा से नाराज और निराश है, किसानों की फसल कर्ज माफी की योजनाओं की बहती गंगा में उसे भी हाथ धोना होगा और एससी एसटी एक्ट एवं जीएसटी से नाराज अपने कोर वोटरों को समझाना होगा।
उमेश चतुर्वेदी
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चाचा-भतीजे की जंग में ढीली न पड़ जाए गठबंधन की गांठ
भारतीय जनता पार्टी को शिकस्त देने की गरज से यूपी में तैयार हुए महागठबंधन की गांठ चाचा-भतीजे की जंग में ढीली न पड़ जाए। इस आशंका से दोनों दल बरी नहीं है। लखनऊ में जिस जोर-शोर से महागठबंधन का ऐलान हुआ उसके ठीक तीन दिन बाद बसपा प्रमुख मायावती ने कहा कि दोनों दलों के नेताओं कार्यकर्ताओं की यह जि मेदारी है कि सारे गिले-शिकवे भुलाकर चुनाव में अधिकाधिक सीटें दिलाकर महागठबंधन को जीत दिलाए यही उनके सालगिरह का तोहफा होगा। महागठबंधन को लेकर जितने दोनों दलों के नेता मुतमईन है उतने नीचे तबके के नेता कार्यकर्ता नहीं दिख रहे हैं। संभवत: इसीलिए बसपा प्रमुख मायावती को इस तरह का बयान देना पड़ा। महागठबंधन को लेकर भाजपा और कांग्रेस के अलावा प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के मुखिया जिस तरह उस पर हमले कर रहे हैं उससे सपा और यादव बाहुल्य वाले क्षेत्रों में महागठबंधन को नुकसान होने की संंभावना से राजनीतिक प्रेक्षकों को इंकार नहीं है इस चिंता ने सपा नेतृत्व की पेशानी पर पसीना ला दिया है। सपा को चिंता यह भी कि शिवपाल के नेतृत्ववाली प्रसपा यदि कांग्रेस से तालमेल करके उसके प्रभाव वाले क्षेत्रों में मैदान में उतरती है तो निश्चित रूप से उसके उ मीदवारों को परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। सपा मेें चाचा-भतीजे के आपसी द्वन्द में महागठबंधन को होने वाले नुकसान ने बसपा के लोगों को भी दुविधा में डाल रखा है। महागठबंधन होने के बाद प्रसपा नेता शिवपाल यादव ने कांग्रेस भाजपा के बजाए महागठबंधन के नेताओं पर हमले तेज कर दिए हैं। हाल ही में उन्होंने अपने एक बयान में कहा कि महागठबंधन में शामिल दोनों दलों के प्रमुख नेताओं में से एक ने अपने भाई और दूसरे ने अपने पिता को धोखा दिया। ऐसे में यह उ मीद कैसे की जा सकती है कि यह दोनों नेता जनता के प्रति वफादार होंगे। शिवपाल यादव द्वारा महागठबंधन में शामिल दोनों नेताओं पर किए जा रहे हमले से भाजपा और कांग्रेस दोनों को बड़ी राहत पहुंची है। उन्हें लग रहा है कि उनका काम अब और आसान हो गया है। शिवपाल यादव मायावती के उस बयान से काफी नाराज बताए जा रहे हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि भाजपा शिवपाल यादव पर फिजूल का पैसा बहा रही है। अपने ऊपर लगे इस तरह के आरोप से आहत शिवपाल यादव ने सपा नेताओं को वे बयान भी याद दिलाएं जिसमें कल तक मायावती को दौलत की बेटी और न जाने क्या-क्या आरोप लगाए गए थे। राजनीतिक जानकारों की माने तो 12 जनवरी को लखनऊ के जिस होटल में महागठबंधन के गठन के समय दोनों दलों के नेताओं द्वारा इस गठजोड़ के सबसे मजबूत होने के दावे किए गए, उसको लेकर दोनों दलों के जमीनी कार्यकर्ता बहुत ज्यादा संतुष्टï नहीं है। सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव के समधी तथा पूर्व विधायक हरिओम यादव ने ही कहा कि यह महागठबंधन बहुत ज्यादा दिनों तक चलने वाला नहीं है। मायावती का तो इतिहास यही बताता है कि अपने स्वार्थहित के चलते बहुत ज्यादा दिनों तक किसी के साथ चल नहीं सकती है। यूपी में तीन बार भाजपा की मदद से सरकार बना चुकी मायावती 1996 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ी और बाद में 1997 में भाजपा के समर्थन से सरकार बनाई। मायावती के बारे में यह धारणा आम है कि वादा किसी से इरादा किसी से। हाल ही में तीन राज्यों के हुए विधानसभा चुनाव में उन्होंने छत्तीसगढ़ में जनकांग्रेस के नेता और वहां के पूर्व मु यमंत्री अजीत जोगी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और पार्टी का खाता नहीं ुाला तो उन्होंने इसका ठीकरा जोगी के सिर मढ़ दिया। इसकी पुनरावृत्ति यूपी में हो सकती है इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।
डॉ एस. पी. सिंह (द्ब्रयूरो चीफ उ.प्र.)
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सपा बसपा गठबंधन अपने ठगी में फंसी
विगत विधान सभा चुनावों में भाजपा के जीत में हार का श्रेय देने वाली कांग्रेस ने आखिरकार सपा बसपा गठबंधन की ठगी से आजिज होकर वर्षों तक राजनीति से दूर रही श्रीमती प्रियंका गांधी वाड्रा को उप्र कांग्रेस का महासचिव बनाकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का परचम लहराने का जि मा सौंपा है। महासचिव के रूप में पूर्व केन्द्रीय मंत्री रहे माधवराव सिंधिया सुपुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया को पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जि मेदारी दी गयी है । दोनों ही युवा नेता ग्लैमर से भरपूर हैं। ऐसे में कांग्रेस से ठगी कर चुकी सपा बसपा गठबंधन की परेशानियां बढ़ गयी हैं, कारणवश राजनीति से दूर होने के बावजूद भी प्रियंका गांधी अमेठी, रायबरेली सहित चुनावों में कांग्रेस का प्रचार करती रही हैं और अपने हंसमुख मिजाज से महिलाओं की खास चहेती हैं जिससे निचले तबके के लोगों में उनकी अच्छी पैठ है। इससे जहां अमेठी, रायबरेली, सुलतानपुर, अयोध्या (फैजाबाद), बाराबंकी में सपा बसपा के वोट बैंक में सेंधमारी होगी वहीं भाजपा के जीत के आसार बढ़ जाएंगे। यह बात दीगर है कि अमेठी रायबरेली में गठबंधन अपना प्रत्याशी ही ना उतारे। पूर्वी उत्तर प्रदेश मु यमंत्री योगी आदित्य नाथ का गढ़ माना जाता है, ऐसे में भले ही उनके पर परागत वोट बैंक में प्रियंका सेंधमारी न कर पाएं परन्तु यह तय है कि कांग्रेस की वोट प्रतिशतता जरूर बढ़ेगी जिसका खामियाजा अन्तत: सपा बसपा गठबंधन को ही भुगतना होगा। ऐसा भी नहीं है कि उप्र में भाजपा बहुत मजबूत है कारण कि तीन मु यमंत्रियों के सहारे चल रही सरकार जिला स्तर पर गुटबाजी का शिकार है जिसे समय रहते संगठित न किया गया तो भाजपा को नुकसान ही नहीं बल्कि हार का मुंह देखना पड़ेगा। अकंठ भ्रष्टाचार में डुबी रही कांग्रेस यूपी में स्थानीय भ्रष्टाचार को मुद्दा भी बना रही है जबकि सच भी यही है कि इस समय थानों तहसीलों व सरकारी कार्यालयों में भ्रष्टाचार चरम पर है जो कि पब्लिक की निराशा का कारण बना हुआ है ।
रही बात पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तो ज्योतिरादित्य सिंधिया भले ही अपने पिता के पैतृक राजनीति के सहानुभूति से कांग्रेस को जीत के मुहाने तक पहुंचाने की कोशिश करेंगे किन्तु अधिकतर जिले मुस्लिम बाहुल्य होने के नाते शायद ही उनकी पैठ मुस्लिम मतदाताओं में है क्योंकि फसाद में माहिर सपा ने पहले ही इन मतदाताओं पर कब्जा कर बसपा जैसी मजबूत जनाधार वाली पार्टी को भी कगार पर पहुंचा दिया है जिसके एवज में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजबब्बर व गुलाम नवी आजाद भी कुछ खास नहीं कर पाए। प्रियंका गांधी को राजनीति में लाने के उद्देश्य को यदि सारांश में कहें तो यह प्रधानमंत्री मोदी की उन राष्ट्रीय नीतियों का भय है जिसमें संवैधानिक रूप में कमांडो सुरक्षा का सुख भोग रहे गांधी परिवार को कहीं न कहीं अपनी सुरक्षा तक हट जाने का अंदेशा है नहीं तो 2009 तक स्वर्गीय राजीव गांधी की आसामयिक मृत्यु से आहत होकर जिस राजनीति से सोनिया गांधी परहेज कर रही थी उसी समय राहुल गांधी को देश का प्रधानमंत्री बना दिया होता जबकि अमेठी वासियों की लाख विनती के बाद भी ऐसा नहीं किया और एक गैर राजनीतिक परिवेश के सरदार को प्रधानमंत्री बना दिया। लिहाजा आज कांग्रेस डूबते को तिनके का सहारा ढूंढ रही है।
डीपी सिंह (विशेष संवाददाता)