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“हिंदुत्व के मूल तत्वों को पहचानो”

हिंदुत्व के मूल तत्व और सिद्धांतों की अवहेलना करके वर्षों से राष्ट्रीय हितों को आहत किया जाना प्रायः सामान्य हो गया है। देश की प्राचीन संस्कृति व सभ्यता और अपने ही प्रेरणाप्रद व आदर्श महापुरुषों के विरुद्ध नकारात्मक वातावरण बनाना प्रगतिशीलता बनता जा रहा है। जबकि ऐसे अन्यायों के विरुद्ध हिंदुओं के  आक्रोशित होने को अनुचित माना जाता है। लेकिन हमारा धर्म ऐसे अन्याय सहने को भी पाप कर्म ही मानता है।
क्या किसी षड्यंत्र के अंतर्गत केवल अहिंसा व सहिष्णुता आदि सहृदयता का पाठ हमको व हमारे पिता-दादा-पितामाह आदि पूर्वजों को शताब्दियों से पढ़ाया जाता रहा। वास्तव में मुगल काल के आरंभ से ही धीरे धीरे हिंदुओं को साधारणतः सहिष्णुता, अहिसंक, उदारता व अतिथि देवो भवः आदि विशेष का पाठ पढ़ाया गया । यहाँ तक कुछ अनुचित नहीं था। परंतु हम अपने स्वाभिमान को खोकर और अपने अस्तित्व को संकट में डाल कर इन सदगुणों को ढोते रहें तो क्या यह न्यायसंगत कहलाया जा सकता है ? हम अपनी आस्थाओं के प्रतीकों, मंदिर-मठों और तीर्थ स्थलों के साथ साथ देवी-देवताओं के मान-अपमान के प्रति भी सजग व सतर्क न रहें तो ये हमारी कैसी सहिष्णुता थी ? जब हम अपने ऋषि-मुनियों और आचार्यों के ज्ञान-विज्ञान को भी सुरक्षित न रख सके और अपनी प्राचीन धरोहरों को ध्वस्त होते देखते रहे तो क्या ऐसे में अहिंसात्मक बने रहना उचित था ? जब हमारी अरबों- खरबों की सम्पदा को लूटा जाता रहा और लाखों-करोड़ों हिंदुओं का बलात धर्मांतरण औऱ नरसंहार किया जाता रहा तो भी हम भीरु और कायर बन कर सर्वधर्म समभाव से जुड़े रहे , क्यों ?  क्या यह सत्य नहीं है कि इसप्रकार अत्याचारी व अमानवीय कुकृत्यों द्वारा शताब्दियों से हिन्दू जनमानस का मनोबल तोड़ा जाता रहा ? विभिन्न आलोचकों के पक्ष-विपक्ष में विचार हो सकते हैं , परंतु इतिहास साक्षी है और प्रमाणस्वरुप सन् 712 के बाद मुगल व ब्रिटिश शासकों द्वारा हमारे सांस्कृतिक गौरव के पतन की आक्रोशित करने वाली गाथा का व्यापक ऐतिहासिक वृतांत सर्वविदित है। इसको झुठलाया नहीं जा सकता। हमें अपनी दासता और पतन का विस्तृत इतिहास पढ़ाया गया। हमारे इस इतिहास ने हमको दासता की मनोवृत्ति से बाहर नहीं निकलने दिया । हम उदार व सहिष्णु बने रहे परंतु उसके साथ ही कायरता और संघर्षहीनता आदि के अवगुणों से ग्रस्त होते गये। अयोध्या में श्री राम मंदिर का निर्माण हो या गौरक्षा का प्रश्न हो, विरोध करने वालो की संख्या अभी भी कम नहीं है। वरिष्ठ लेख़क व राष्ट्रवादी विचारक स्व. भानुप्रताप शुक्ल के वर्षों पूर्व प्रकाशित हुए एक लेख के अनुसार “देशवासियों का एक वर्ग दूसरे वर्ग पर , एक जमात दूसरी जमात पर, एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय के ऊपर आक्रमण करे, हिंसा , हत्या , लूट और आगजनी करे , बलात्कार और अपहरण करे या करने का प्रयास करे या करने लग जाये तो पीड़ित समाज क्या करे ? अपना घर जलने दें , अपनी बहुबेटियों के साथ बलात्कार करने दें ?  उन्हें आमंत्रित करें कि आप हमारा घर फूकियें , हमारा घर लूटिये और हमारी ललनाओं को ले जाईये | अपनी खुशी के लिये आप जो चाहें करें हम कुछ नहीं कहेंगे”। वास्तव में स्व. शुक्ल जी के मन में इन जिहादियों के विरुद्ध कितना आक्रोश व हिंदुओं की विवशता के लिये कितनी अधिक पीड़ा थी जो उन्होंने इतने अधिक स्पष्ट शब्दों से इस कटु सत्य को हृदयस्पर्शी बना दिया था। याद रखो जब देश और समाज में अनाचार व दुराचार के विरुद्ध क्रोध भर जाता है तो वहाँ किसी चाणक्य को कुशासन के विरुद्ध शिखा खोलनी पड़ती है, क्योंकि धर्मरक्षा व राष्ट्र रक्षा का प्रश्न सर्वोपरि होता है।
निसंदेह हमने अपने स्वर्ण युग और गौरान्वित करने वाले इतिहास को भुला दिया। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि इतिहास के उन प्रेरणादायी अध्यायों व ग्रंथों के ज्ञान का हमें सानिध्य भी न मिल सका। हम वसुधैव कुटुम्बकम को मानने वाले हैं तो  “शस्त्रमेव जयते” के उदघोषक व शास्त्र एवं शस्त्र के पुजारी भी हैं। हम “अश्वमेघ यज्ञ” के लिए विजय रथ पर सवारी करने वाले महान योद्धाओं के वंशज होते हुए भी केवल सम्राट अशोक के कलिंग युद्ध के बाद उनके अहिंसात्मक प्रेम के प्रति आकर्षित हो गये, क्यों ? हमने अपने धर्म के मूल ग्रंथों वेद, उपनिषद, रामायण व महाभारत आदि के ज्ञान व सिद्धान्तों को आत्मसात नहीं किया बल्कि तथाकथित धर्माचार्यों व कथावाचकों से प्रभावित होकर उनके अनुसार धर्म के पालन को ही धर्म मान लिया। ऐसी विपरीत व्यवस्था ने भी हिंदुओं के आत्मस्वाभिमान को धूमिल ही किया। इसीलिए ऐसा प्रतीत होता है कि देश के नीतिनियन्ताओं ने हिंदुत्व की विराटता के मूल तत्वों का अध्ययन नहीं किया और तथाकथित बुद्धिजीवियों और धर्माचार्यो की भाँति केवल उदारता, भीरुता व अहिंसावादी आदि बनें रहने का ही नकारात्मक पक्ष रखा है। जबकि अन्य धर्मावलंबियों ने हिंदुत्व के विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा है तो भारत की गौरवशाली संस्कृति की रक्षार्थ प्रखर हिंदुत्व को रौद्र रुप धारण करने की निरंतर आवश्यकता बनी हुई  है । हिंदुत्व के मूल तत्व और सिद्धान्त भी इसको उचित मानते हैं । हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों को भी “हिन्दू” अस्मिता को स्वीकारना होगा साथ ही रामायण व महाभारत आदि महाकाव्यों को कपोल-कल्पित (मिथ्या) कहने वालो को इनकी सत्यता को समझना होगा। इन दिग्भ्रमित बुद्धिजीवियों को आक्रांताओं के दमनकारी इतिहास के अतिरिक्त राष्ट्र के स्वर्णिम काल व प्रेरणादायी इतिहास के अध्यायों का अध्ययन भी करना होगा ? प्रमुख समाजवादी नेता स्व. डॉ राममनोहर लोहिया से एक बार प्रश्न किया गया था कि “हिंदुस्तान क्यों इतनी बार गुलाम हुआ” ? इस पर उनका कहना था कि “हम दूब घास की तरह झुक जाते हैं, बहुत दबते हैं, हर स्थिति में समझौता करके आत्मसमर्पण कर देते हैं “। उन्होंने उपाय दिया कि  “आत्मसमर्पण की मनोवृति को खत्म करना सीखें और यह तभी होगा जब हिन्दू धर्म की तेजस्विता को हिन्दू प्रकट करने का प्रयास करेंगे”।
इसलिये यह कहना अनुचित नहीं कि सजग हिन्दू समाज ही राष्ट्र को सुरक्षित रख सकता है । उसके लिये हिंदुओं को कट्टरवादी व साम्प्रदायिक भी कहा जायेगा उनकी अनेक आलोचनाएँ भी होगी । लेकिन यह कहना अशुद्ध नहीं की यही तेजस्वी, साम्प्रदायिक व आक्रोशित हिन्दू ही धर्म व देश की रक्षा कर पायेंगे ? आज देशभक्ति व राष्ट्रवाद को साम्प्रदायिक कहकर नकारात्मक आलोचना सहनी पड़ती है। शत्रु देश पाकिस्तान व देशद्रोही जिहादियों पर जब आक्रमक होने के विचार का प्रसार होता है तब भी हिंदुओं को साम्प्रदायिक कहा जाता है। “समान नागरिक सहिंता”  की चर्चा हो या फिर बंग्लादेशी, पाकिस्तानी और रोहिंग्या मुस्लिम घुसपैठियों को बाहर निकालने का जनाक्रोश हो हिंदुओं पर साम्प्रदायिकता का आरोप लगाना समान्यतः प्रगतिशील विचार बन जाता है। ऐसी विपरीत स्थिति में राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये अगर हिंदुओं को कट्टरवादी,साम्प्रदायिक और समयानुसार संविधान का पालन करते हुए हिंसक भी होना पड़े तो इसमें अनुचित क्या है ? महर्षि अरविन्द ने वर्षों पूर्व लिखा था कि “हमने शक्ति को छोड़ दिया है, इसलिए शक्ति ने भी हमें छोड़ दिया”। अतः हिंदुत्व के मूल तत्व को पहचानो और शान्ति के लिये “शक्ति” के उपासक बनो।

विनोद कुमार सर्वोदय
(राष्ट्रवादी चिंतक व लेखक)

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