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औद्योगिक नीति की नये सिरे से समीक्षा जरूरी

सरकार भले ही खुश हो ले, सत्तारूढ़ दल जश्न मनाकर कुछ भी कहने-सुनने लगे, उनके पास कारण है | कारण जुलाई-सितंबर की दूसरी तिमाही में देश की जीडीपी दर 6.3 प्रतिशत रहना है | आत्ममुग्ध लोगों को ज्यादा नहीं थोड़े पीछे यानि पिछले वर्ष के आंकड़े देख लेना चाहिए | पिछले वर्ष यह वृद्धि ८.४ प्रतिशत थी |इसके बावजूद भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था बना हुआ है।

 हालांकि, यह विकास दर मौद्रिक नीति समिति के अनुमानों से मेल खाती है, लेकिन यह पिछले वर्ष इसी अवधि में सामने आई 8.4 की वृद्धि से कम है, यह पत्थर पर  लिखी इबारत है । कह सकते हैं कि पिछले वर्ष में वृद्धि उस समय दर्ज की गई जब अर्थव्यवस्था कोरोना दुष्काल के संकट से तेजी से उबर रही थी। अब यह गति अपने मूल स्वरूप में लौट रही है। यद्यपि राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय यानी एनएसओ की हालिया घोषित विकास दर चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में आई 13.5 प्रतिशत दर से कम है, सरकार को स्वीकार करना चाहिए कि अर्थव्यवस्था संकुचन के नकारात्मक प्रभावों के चपेट में आई है। जाहिर है महंगाई बढ़ने तथा वैश्विक विषम परिस्थितियों से मांग में गिरावट का असर दिखाई दिया है।

आज देश बड़ी चिंता विनिर्माण और खनन क्षेत्र में आई गिरावट होनी चाहिए। दरअसल, विनिर्माण के क्षेत्र में 4.3 प्रतिशत तथा खनन में 2.8 प्रतिशत का संकुचन देखा गया है। निस्संदेह विनिर्माण क्षेत्र में गिरावट नीति-नियंताओं की गंभीर चिंता का कारण होना चाहिए क्योंकि यह रोजगार सृजन का प्रमुख क्षेत्र भी है और देश की खपत को प्रभावित करता है। यही वजह है कि विनिर्माण क्षेत्र में संकुचन, उच्च मुद्रास्फीति और बढ़ते व्यापार घाटे ने देश की अर्थव्यवस्था के परिदृश्य में चिंता उत्पन्न की है।

यह तथ्य आँखे खोल देने वाला है कि देश की औद्योगिक विकास दर पिछले छह साल से लगातार संकुचित होती रही है। इसको चीन के साथ लगातार बढ़ते व्यापार घाटे के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए क्योंकि हम घरेलू उत्पाद को प्राथमिकता देने के बजाय चीनी आयात पर निर्भर होते जा रहे हैं। इस साल के पहले नौ महीनों में चीन के साथ व्यापार घाटा 76 अरब डालर होना चिंता की बात है। सही मायनों में देश की औद्योगिक नीति की नये सिरे से समीक्षा की तत्काल जरूरत है। यह क्षेत्र रोजगार सृजन का बड़ा जरिया होने के कारण खासा महत्व रखता है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि देश के सबसे भरोसेमंद कृषि क्षेत्र में 4.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। यह वृद्धि वैश्विक प्रतिकूलताओं के बावजूद हुई है, जिन्होंने पूरी दुनिया के विकास को धीमा कर दिया है। इसमें रूस-यूक्रेन युद्ध की भी बड़ी भूमिका है, जिसके चलते पेट्रो उत्पादों के दाम कुलांचे भरते रहे हैं। जहां यह क्षेत्र देश में खाद्यान्न की आपूर्ति सुनिश्चित करता है वहीं रोजगार का भी बड़ा जरिया भी है।

कृषि क्षेत्र से जुड़े उद्योगों में पूंजी निवेश बढ़ाकर अर्थव्यवस्था को गति दी जा सकती है। हालांकि, देश के शीर्ष अर्थशास्त्री भरोसा दिला रहे हैं कि देश की अर्थव्यवस्था अपने सात प्रतिशत के लक्ष्य को सहजता से हासिल कर लेगी। उन्हें विश्वास है कि अगली दो तिमाहियों में अर्थव्यवस्था बेहतर परिणाम देगी। देश का केंद्रीय बैंक भी भरोसा जता रहा है कि चौथी तिमाही तक देश की अर्थव्यवस्था अपनी पुरानी लय में लौट आएगी।

सरकार को महंगाई के स्तर पर नियंत्रण के लिये अतिरिक्त प्रयास करने की जरूरत है। रुपये के मूल्य में कमी तथा बढ़ी ब्याज दरें भी महंगाई रोकने के मार्ग में बाधक बनी हैं। इसके अलावा वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं में मंदी के बावजूद भारतीयों की खपत बढ़ने से घरेलू बाजार में मांग बढ़ी है। इससे विदेशी निवेश में भी सुधार देखा जा रहा है। बहरहाल, उम्मीद की जानी चाहिए कि देश की अर्थव्यवस्था कोरोना के प्रभावों से मुक्त होकर यथाशीघ्र अपनी पुरानी लय में लौटेगी, जिससे रोजगार के अवसरों में वृद्धि से कोरोना काल में गरीबी की रेखा के नीचे जाने वाले लोगों के जीवन स्तर में सुधार का प्रयास किया जा सके। तब बाजार में मांग व आपूर्ति का संतुलन कायम हो सकेगा।  जरूरी है कि देश के औद्योगिक क्षेत्र में अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण किया जाये ताकि निर्यात बढ़ाने की दिशा में भी पहल हो सके। इससे एक ओर जहां रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, वहीं निर्यात से विदेशी मुद्रा भंडार को भी मजबूती मिलेगी।

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