आस्था का सैलाब
मनुष्य एक धार्मिक प्राणी है, इसीलिए वह अपनी धर्मांधता के वशीभूत होकर निर्णय लेता है। जब धर्मभीरू भक्तों की आस्था अतिश्यता में परिवर्तित हो जाती है, तो उसके दुष्परिणाम भी प्रकट होने प्रारम्भ हो जाते हैं। ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होने के लिए कौन उत्तरदायी है? यह एक यक्ष प्रश्न है क्योंकि हम किसी को भी इस परिस्थिति का एकमात्र उत्तरदायी नहीं कह सकते। परन्तु इससे साधारण जनता ही सबसे अधिक प्रभावित होती है, क्योंकि उस भोलीभाली जनता को कुछ स्वार्थी तत्वों के द्वारा स्वयं के आर्थिक लाभ हेतु गुमराह कर दिया जाता है, धर्मांधता की अतिशयता एक प्रकार के पागलपन कारण बन जाती है। ऐसी धर्मांधता मुख्यतः हिन्दु और मुस्लिम धर्म के अनुयायियों में देखने मिलती है। फलस्वरूप मन्दिर व मस्जिदों में त्योहारों के अवसर पर जनता का सैलाब इस विश्वास के साथ एकत्रित हो जाता है कि इन धार्मिक स्थलों पर अल्हाह अथवा ईश्वर विराजमान हैं, जिनके दर्शन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी।
धर्म स्थलों पर श्रृद्धालुओं की अतिशय भीड़ होने का दूसरा कारण यह है कि जब-जब पृथ्वी पर पाप की अधिकता हो जाती है, तब-तब मनुष्य अपना पाप छुपाने के लिए धर्म स्थलों की ओर उन्मुख होता है। परन्तु आज तक एक भी ऐसा उदाहरण दृष्टव्य नहीं है, जिसमें ईश्वर अथवा अल्लाह किसी को भी मन्दिर-मस्जिद से प्राप्त हुए हों। यदि सर्वशक्तिमान यहाँ प्रत्यक्ष विराजमान होते तो इन धर्म स्थलों से सम्बद्ध प्रबन्ध समितियों के सदस्यों एवं पंडित, पंडो और मुल्लाओं के साथ कभी भी अनिष्ट नहीं हुआ होता।
ईश्वर की मूर्ति का निर्माण एक मूर्तिकार के द्वारा मात्र कल्पना के आधार पर ही किया जाता है। जबकि किसी भी मूर्तिकार को ईश्वर के वास्तविक स्वरूप के दर्शन नहीं हुए होते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि ईश्वर को किसी भी रूप में स्मरण अथवा प्राप्त करने हेतु मनुष्य को अपने आन्तरिक चक्षु खोलने होंगे क्योंकि वह एक अदृश्य शक्ति है जिसको हम मन्दिर अथवा मस्जिद में ढूंढते ही रह जाते हैं।
भगवान ने जब भी किसी को दर्शन दिए हैं तो वह स्वयं भक्त के पास किसी भी रूप में पहुँच कर दिए है, ऐसे असंख्य उदाहरण हैं, यथा – शबरी के यहाँ भगवान राम, विभीषण को भगवान हनुमान ने लंका में तथा युद्ध भूमि पर भगवान राम ने स्वयं रावण को दर्शन दिए और उसका परिवार सहित उद्धार किया क्योंकि वह एक महान शिव भक्त था, श्रीकृष्ण, गोपियों को वंृदावन में तथा पांडवों को हस्तिनापुर में दर्शन देने हेतु स्वयं पधारे, भगवान विष्णु ने भक्त प्रहलाद को उसके घर पर ही नरसिंह अवतार के रूप में दर्शन दिए। ऐसे अनेकों उदाहरण दिए जा सकते हैं।
यदि ईश्वर केवल मन्दिरों में ही प्राप्त होते तो हमें नित्-प्रतिदिन धर्म स्थलों पर असामयिक मृत्यु से सम्बन्धित दुर्घटनाओं की सूचना प्राप्त नहीं होती। मन्दिरों में अपने ईष्ट के दर्शन करना एक साकारात्मक ऊर्जा प्राप्त करने का साधन है, परन्तु धर्मांधता की अतिशयता अत्यधिक हानिकारक होती है। मनुष्य को अपने मन की शांति को अपने अर्न्तमन में ही खोजना होगा, यदि धार्मिक व्यक्ति समूह में मंदिर-मस्जिद में एकत्रित होंगे तो वहाँ के वातावरण में अशांति उत्पन्न होगी परिणामस्वरूप साधक को शांति कैसे प्राप्त हो सकती है। ईश्वर की भक्ति करने के लिए शांत वातावरण चाहिए, तभी योगी और मुनि एंकात स्थान पर साधना करने हेतु आते हैं।
श्रवण कुमार ने अपने दृष्टिहीन माता-पिता को अपने कंधे पर कांवड़ में बिठाकर धार्मिक स्थलों की यात्रा कराई। मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार का अपने माता-पिता को धार्मिक यात्रा कराने का उद्देश्य मात्र दर्शन कराना ही नहीं था अपितु उनके प्रति सच्चा श्रृद्धाभाव था, उनको शांति मिले और वे स्वर्ग गमन प्रसन्नता के साथ कर सकें।
हमें यदि ईश्वर को प्राप्त करना है तो उन्हें मन्दिर के स्थान पर अपने घर पर ही निमंत्रित करना चाहिए। यदि साधक की सच्ची श्रृद्धा से उनको निमन्त्रण प्राप्त होगा तो वे अवश्य आयेंगे और आते रहे हैं। बाजार में अशुद्ध प्रकार से निर्मित मिष्ठान का क्रय कर भोग लगाने से भगवान कभी प्रसन्न नहीं होगें, भगवान भोग भी वहीं गृहण करते हैं जो साधक द्वारा स्वयं निर्मित किया गया हो तथा अश्रुधारा से उनको समर्पित किया गया हो। आज मन्दिरों में प्रसाद अर्पण करना एक रूढ़ी बन गया है जो कि व्यापारियों ने स्वयं के लाभ अर्जन हेतु प्रचलित कर दिया है, जिसके अन्तर्गत धर्मभीरू जनता लुटने हेतु तत्पर रहती है। धर्म की आड़ में आज अधिकांश मन्दिर केवल स्वार्थी तत्वों के अड्डे बन कर रह गए हैं।
ऊं नमः शिवाष
ऊँ नमश्चण्डिायै*
हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृgष्ण हरे हरे,*
हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे।*
योगश मोहन