कश्मीर के पत्थरफेंकू लड़कों पर हमारी फौज ने जबर्दस्त दांव मारा है। इस बार उन्होंने एक पत्थरफेंकू लड़के को पकड़कर जीप पर बिठाया और बांध दिया। उसे जीप पर बैठा देखकर अन्य पत्थरफेंकू लड़के असमंजस में पड़ गए। अब वे पत्थर चलाते तो फौजियों पर वे पड़ते या नहीं पड़ते लेकिन उनके उस साथी को तो वे चकनाचूर कर ही देते। ऐसे में वह लड़का उन फौजी जवानों की ढाल बन गया। वह लड़का भी सही-सलामत बच निकला और ये फौजी भी अपने ठिकाने पर पहुंच गए। मैं समझता हूं कि इससे बेहतर अहिंसक तरीका क्या हो सकता है? इसकी जितनी तारीफ की जाए कम है। यह ऐसा गजब का तरीका है, जिसका अनुकरण दुनिया के सभी छापामार युद्धों में भी किया जा सकता है। जिस अफसर या जवान ने यह तरीका सुझाया है, उसे सरकार की ओर से अच्छा-सा पुरस्कार दिया जाना चाहिए।
कश्मीर के कुछ मशहूर विरोधी नेताओं ने उस पत्थरफेंकू लड़के को अगुआ बनाने की निंदा की है और सारे मामले की जांच की मांग की है। इन नेताओं की हताशा और मूर्खता अपरंपार है। क्या वे यह चाहते हैं कि पत्थरफेंकू नौजवानों पर गोलियां बरसाई जाएं या फौजी जवान भी पत्थरफेंकू बन जाएं? कुछ माह पहले जवानों ने आत्मरक्षा में गोलियां चलाई थीं, तब संसद में और उसके बाहर बेहद ज्यादा खेद प्रकट किया गया था। अनेक लोग मर गए थे और सैकड़ों नौजवान अंधे हो गए थे। फारुक और उमर अब्दुल्ला क्या उसी दुखद कहानी को दुबारा दोहराना चाहते हैं? वे यह क्यों नहीं समझते कि ये गुस्साए हुए कश्मीरी नौजवान भी भारत माता के बेटे हैं, उनके भाई हैं, उनके प्राण भी अमूल्य हैं। इन हताश और निराश नेताओं से मुझे तो यह उम्मीद थी कि वे फौज की इस जबर्दस्त पहल की तारीफ करेंगे और कश्मीरी जवानों को अहिंसक प्रतिरोध की नई-नई तरकीबें सुझाएंगे लेकिन जिन लोगों ने कुर्सी हथियाना ही अपनी जिंदगी का मकसद बना रखा है, वे ऐसी घटिया किस्म की बयानबाजी के अलावा क्या कर सकते हैं? उन्हें पता होना चाहिए कि पाकिस्तानी फौज ने बलूचों पर किस बेरहमी से आसमानी हमले किए थे। डोनाल्ड ट्रंप ने जलालाबाद में कितना बड़ा बम फोड़ा है और ब्लादिमीर पुतिन ने चेचन्या के मुस्लिम बागियों पर कैसी बमों की बरसात कर दी थी। कश्मीर के लोग हिंसा के जरिए कुछ भी हासिल नहीं कर सकते, यह बात क्या उन्हें सभी कश्मीरी नेता समझाने
कश्मीर के पत्थरफेंकू लड़कों पर हमारी फौज ने जबर्दस्त दांव मारा है। इस बार उन्होंने एक पत्थरफेंकू लड़के को पकड़कर जीप पर बिठाया और बांध दिया। उसे जीप पर बैठा देखकर अन्य पत्थरफेंकू लड़के असमंजस में पड़ गए। अब वे पत्थर चलाते तो फौजियों पर वे पड़ते या नहीं पड़ते लेकिन उनके उस साथी को तो वे चकनाचूर कर ही देते। ऐसे में वह लड़का उन फौजी जवानों की ढाल बन गया। वह लड़का भी सही-सलामत बच निकला और ये फौजी भी अपने ठिकाने पर पहुंच गए। मैं समझता हूं कि इससे बेहतर अहिंसक तरीका क्या हो सकता है? इसकी जितनी तारीफ की जाए कम है। यह ऐसा गजब का तरीका है, जिसका अनुकरण दुनिया के सभी छापामार युद्धों में भी किया जा सकता है। जिस अफसर या जवान ने यह तरीका सुझाया है, उसे सरकार की ओर से अच्छा-सा पुरस्कार दिया जाना चाहिए।
कश्मीर के कुछ मशहूर विरोधी नेताओं ने उस पत्थरफेंकू लड़के को अगुआ बनाने की निंदा की है और सारे मामले की जांच की मांग की है। इन नेताओं की हताशा और मूर्खता अपरंपार है। क्या वे यह चाहते हैं कि पत्थरफेंकू नौजवानों पर गोलियां बरसाई जाएं या फौजी जवान भी पत्थरफेंकू बन जाएं? कुछ माह पहले जवानों ने आत्मरक्षा में गोलियां चलाई थीं, तब संसद में और उसके बाहर बेहद ज्यादा खेद प्रकट किया गया था। अनेक लोग मर गए थे और सैकड़ों नौजवान अंधे हो गए थे। फारुक और उमर अब्दुल्ला क्या उसी दुखद कहानी को दुबारा दोहराना चाहते हैं? वे यह क्यों नहीं समझते कि ये गुस्साए हुए कश्मीरी नौजवान भी भारत माता के बेटे हैं, उनके भाई हैं, उनके प्राण भी अमूल्य हैं। इन हताश और निराश नेताओं से मुझे तो यह उम्मीद थी कि वे फौज की इस जबर्दस्त पहल की तारीफ करेंगे और कश्मीरी जवानों को अहिंसक प्रतिरोध की नई-नई तरकीबें सुझाएंगे लेकिन जिन लोगों ने कुर्सी हथियाना ही अपनी जिंदगी का मकसद बना रखा है, वे ऐसी घटिया किस्म की बयानबाजी के अलावा क्या कर सकते हैं? उन्हें पता होना चाहिए कि पाकिस्तानी फौज ने बलूचों पर किस बेरहमी से आसमानी हमले किए थे। डोनाल्ड ट्रंप ने जलालाबाद में कितना बड़ा बम फोड़ा है और ब्लादिमीर पुतिन ने चेचन्या के मुस्लिम बागियों पर कैसी बमों की बरसात कर दी थी। कश्मीर के लोग हिंसा के जरिए कुछ भी हासिल नहीं कर सकते, यह बात क्या उन्हें सभी कश्मीरी नेता समझाने का कष्ट करेंगे?
का कष्ट करेंगे?