विश्व में जिस चैट जीपीटी का बोलबाला है, वो चैट जीपीटी ने इन्सान को इतनी कृत्रिम बौद्धिक शक्ति प्रदान करती है| जिससे संकट दिख रहा है कि शायद मानव को अब मौलिक चेतना और बौद्धिक विकास की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। जब हर प्रश्न का जवाब गढ़ा-गढ़ाया चैट जीपीटी पर हो तो मानव अपनी बुद्धि को कष्ट क्यों देगा? अब चैट जीपीटी नेताओं को उनके भाषण, कवियों को उनकी कविताओं के उचित शब्द, नाटकों के संवाद और अध्यात्म के नये शब्द सुझा और समझा सकती है। संकट पैदा हो गया कि अगर ऐसा हो गया तो प्रखर चेतना वाले इन्सान क्या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे? क्या उनकी मौलिक सृजनात्मक प्रतिभा के मुकाबले में यह यांत्रिक असाधारण क्षमता अवरोध बनकर खड़ी हो जाएगा|
जैसे किंडल के आगमन ने पुस्तक की उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह खड़े किये थे। तब लगने लगा था कि अब पुस्तक का अस्तित्व मिट जायेगा व पत्र-पत्रिकाएं भी अप्रासंगिक हो जाएंगी जबकि ई-संचार माध्यम पर हर किताब, पत्रिका और हर समाचार उपलब्ध है।पंजाबी यूनिवर्सिटी के पंजाबी विभाग के पंजाबी कंप्यूटर सहायता केन्द्र के अध्यापक ने एक शोध किया जिसने अलग-अलग भाषाओं में चैट जीपीटी की गुणवत्ता पर सवालिया निशान लगा दिए। नतीजा यह निकला कि अंग्रेजी से हटते ही क्षेत्रीय भाषाओं में एक तो इस सॉफ्टवेयर का अनुवाद मॉडल पूरी तरह से विकसित नहीं और दूसरी बात इसमें जितना गुड़ डालोगे, उतना ही मीठा होगा। अर्थात् पत्रकार और कवि आदि इंटरनेट पर ब्लॉग, विकिपीडिया और वेबसाइट्स पर जितनी अपनी रचनाएं और जानकारी साझा करेंगे उतना ही चैट जीपीटी की उड़ान भी चलेगी।
शोधकर्ताओं ने बताया कि अन्य भाषाओं में पूछे गए छोटे उत्तरों वाले सवालों में अगर 80 प्रतिशत उत्तर सही आते हैं तो बड़े प्रश्न वाले उत्तर में 8 प्रतिशत तक ही उत्तर सही आ पाते हैं। इतिहास, सेहत, खेल, कंप्यूटर, गणित, करंट अफेयर, भाषा विज्ञान और पर्यावरण विज्ञान के प्रश्न-पत्र डालकर यह परीक्षा ली गई। पंजाबी व हिंदी-अंग्रेजी के 300 नमूनों के सवाल डाले गए। चैट जीपीटी ने 67प्रतिशत , 80 प्रतिशत व 98 प्रतिस्ज्त अंक हासिल किए। यह बात अन्य डिजिटल प्रयोगों में भी महसूस की गई है।
देखा गया है कि क्षेत्रीय भाषाओं के मॉडल पूरी तरह विकसित नहीं होते हैं। इंटरनेट पर क्षेत्रीय भाषा की पाठ्य सामग्री की कमी के कारण बड़े सवालों के जवाब में प्रदर्शन खराब हो जाता है। इसलिए अगर चैट जीपीटी को भारत के लिए उपयोगी बनाना है तो भारत की क्षेत्रीय भाषाओं व हिंदी आदि में भी पूरा ज्ञान और पाठ्य सामग्री अपलोड करनी पड़ेगी, नहीं तो जवाब असंबद्ध आने लगेंगे। यही बात गूगल के प्रयोग में भी देखी गई है। गूगल का भी हर जवाब सही नहीं होता, अगर उसमें नवीनतम जानकारी नहीं डाली जाती है।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता उपकरणों के लिहाज से पिछले दिनों में रोबोट का इस्तेमाल भी बहुत प्रचलित हुआ है लेकिन रोबोट भी दो तरह के देखे गए। एक तो वे रोबोट जिनको आप निर्दिष्ट निर्देशों का पालन करने के लिए सिखाते हैं। वे केवल उतना ही करते हैं जितना उनकी यांत्रिकता में शामिल है। अब कृत्रिम बुद्धि का समावेश भी रोबोट में करने की कोशिश की जा रही है। यह कोशिश जितनी सफलता हासिल कर सकेगी, उतना ही रोबोट हर क्षेत्र में उपयोगी होगा। भारत जैसे देश में, जहां आबादी 140 करोड़ के आसपास जाकर चीन को पछाड़ दुनिया की सबसे बड़ी आबादी बन चुकी है, वहां आधुनिक रोबोट क्या इंसानी रोजगार की जगह नहीं ले लेंगे, एक प्रश्न है ? पहले ही भारत में काम करने योग्य व्यक्ति को रोजगार नहीं मिलता। उन्हें सरकारी अनुकम्पा और रियायती अनाज के सहारे जीना पड़ता है। अगर रोबोट का इस्तेमाल भारत में भी इसी तरह प्रचलित हो गया तो करोड़ों लोगों की यह श्रमशक्ति कहां जाएगी। क्या विदेश में पलायन होगा, जहां उनसे सस्ती दरों पर काम लिया जायेगा?
भारत में कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षितिज यहीं तक नहीं हैं। नई दिल्ली में एक अभियान नीति आयोग ने संस्कृति मंत्रालय के सहयोग से वन नेशन वन डिजिटल लाइब्रेरी के नाम से शुरू किया है। इसमें दिल्ली के हरेक पुस्तकालय की जानकारी पाठक को घर बैठे मिलेगी। पाठक को केवल इंडियन कल्चर पोर्टल पर लॉग इन करना पड़ेगा। चुनींदा लाइब्रेरियों की दुर्लभ किताबें उसके सामने खुलने लगेंगी। अभी यह शुरुआत सात लाइब्रेरियों से की गई है। इसमें 700 दुर्लभ किताबें शामिल हैं।