देश मे दयानिधी मारान के सनातन को मिटाने के वक्तव्य के बाद से य चर्चा समाप्त होने में नहीं आ रही है।मैंने पहले सोचा कि इसे नज़रअंदाज़ कर दूँ, लेकिन लगता है कि ये सोची समझी रणनीति के तहत सनातन को तोड़ने के लिए ऐक टूल किट के रूप में कही जा रही हैं। खडके साहब के सुपुत्र साहब में तो ये भी कह दिया कि सनातन कब कहाँ कैसे पैदा हुआ, इसका कोई सबूत नहीं है । पहले मैं इसी को लेना चाहता हूं।
मान्यवर खडगे जी, सनातन कहीं पैदा नहीं हुआ। धरती पर मनुष्य की उत्पत्ति के साथ जो आचारसंहिता शनैः शनैः विकसित हुई, जो मनुष्य मात्र के परिवार संचालन, देश संचालन , सेना संचालन, खानपान, अर्थात् मनुष्य मात्र की कुल गतिविधियों के लिये जो नियम बनते गये और अपने नियंता भगवान के लिये आराधना के लिये जो विधि विधान विकसित हुऐ वो सब मिल कर सनातन कहलाये। सनातन तो धरती पर मनुष्य के जन्म से विकास पाया और जिसका आदि अन्त न हो वही सनातन धर्म है। धर्म के अर्थ हैं जो धारण किया जाये। मनुष्य मात्र को चौपाये जानवर से अलग दो पाये पशु में अन्तर ही मनुष्य धर्म अर्थात् सनातन धर्म है। यदि धर्म न हो तो जन्म आहार निद्रा मैथुन सन्तान उत्पत्ति और वृद्ध होकर मृत्यु तो पशु की भी होती है। पशु से मनुष्य बनाने की आचार संहिता ही मानव धर्म अथवा सनातन धर्म है। इसमें परिवार और समाज व्यवस्था का महत्वपूर्ण स्थान है। लेकिन विश्व अथवा भारत को ही लें तो बहुत बड़ा भूखण्ड है तरह तरह के मौसम रंग रूप खाने पीनेके रहन सहन हैं तो देश भर में अनेकों राज्य और जनपद स्थापित हुऐ। तो अपने अपने राज्य और जनपद को बचाने के लिये सेनायें बनी, व्यापार के लिये व्यापारी , सेवा के लिये सेवक और जिनको अधिक ज्ञान था वो साधक, गुरू, विद्वान बने। इस प्रकार से समाज का वर्गीकरण होता चला गया और धीरे धीरे चतुर्वर्ण व्यवस्था बनी। अब जैसा आज भी होता है, कोई व्यावसायिक का पुत्र छोटी या बड़ी नौकरी कर लेता है तो पंडित अथवा पहले से सेवा में लगे हुऐ या सेना के परिवार का पुत्र पुत्री नौकरी करने के कारण सदा के लिये शूद्र तो हो नहीं गये। सेवानिवृत्ति अथवा बीच में ही वो अपनी मर्ज़ी से यदि कहीं पढ़ाने लगें तो वो मास्टरजी, अथवा पंडित जी कहलायेंगे । मेरे कहने का तात्पर्य है कि वर्ण व्यवस्था जन्म के साथ द्विज व्यवस्था कहलायी कि जन्म से चाहें कुछ भी हो, अपने कर्मानुसार ही असली वर्ण है। अब वर्ण व्यवस्था को तो राजनीति कारण या रिज़र्वेशन के कारण परमानेन्ट बनाया जा रहा है।
हमारी (जिसे मनुवादी कहा जाने लगा है), वर्ण व्यवस्था तो बहुत लचीली और द्विज के आधार पर थी। परम ज्ञानी और श्रेष्ठ ऋ्षी मुनि पाराशर के मछली पकड़नेवाली मत्स्य कन्या के गंगा के बीच नाव में सम्बन्ध बन जाने से उत्पन्न हुई सन्तान ही कौरव और पांडवों के पूर्वज हुऐ। यहीं देख लीजिए, पिता महर्षि (ब्राह्मण,)पत्नी मछेरन ( नीच जाति की), पुत्र छत्री ( कौरव पांडव) स्पष्ट है कहीं कोई वर्गीकरण जात पर नहीं हुआ।कर्म कभी छोटे बडे, ऊँच नीच का आधार नहीं बना।पहली बार १९३५ की जनसंख्या गणना में ब्रीटीश सरकार ने जातों का वर्गीकरण किया। ज़ितने भी व्यवसाय थे , उन सभी को जात बना दिया। मल्लाह, जुलाहा, वैश्य , छत्री, चमार, खटीक, धोबी, ब्राह्मण आदि। पहले जो पठन पाठन, पूजा तथा शिक्षक थे वो सब ब्राह्मण बना दिये गये। पहले ये आवश्यक था कि वो ही ब्राह्मण कहलाता था जो भिक्षा से जीवनयापन करें और पठन पाठन शिक्षा में रहे। १९३५ से जन्म आधारित हो गयी और समाज में बँटवारा कर ऊँच नीच कर दिया गया। मुझे अपने घर की याद है कि (अबसे लगभग ७० वर्ष पहले) एक सज्जन हमारे घर हर तीसरे चौथ दिन आते थे और जहां हम सब बैठे रहते उन्हीं मूँढो, कुर्सियों पर बैठ कर बात करते थे, वैसे जात के भंगी थे। आज भी इसी जात के एक सज्जन, भाजपा के सम्मानित और सक्रिय कार्यकर्ता हैं। मैंने तो कहीं भेदभाव होता नहीं देखा। प्रियंक खड़के जी(कांग्रेस अध्यक्ष के पुत्र) कि जो बराबरी का हक़ न दें और जन्मजात नींच ऊँच माने, उसे मिटा देना चाहिए ।
मैं आपको और उदाहरण देना चाहता हूँ। भगवान पवनपुत्र महाबली हनुमान जी सबसे बड़े रामभक्त हैं, लेकिन पहली बार विभीषण जी से मिलने पर अपने बार में कहते हैं कि उन जैसा कोई नीच ही नहीं है कि अगर सुबह कोई उनका नाम लेले तो दिन भर आहार भी न मिले । शबरी भिल्लनी, गीध मांसाहारी पक्षी, निषाद मल्लाह, विभीषण राक्षस। भगवान श्रीराम जी उन सबसे गोद और आलिंगन कर रहे हैं। अंगद, जामवन्त आदि अनेक हैं। महर्षि विश्वामित्र महान छत्री योद्धा और सम्राट थे, परन्तु बाद में विश्व प्रसिद्ध महर्षि कहलाये और महर्षि वशिष्ठ जी के समकक्ष बने। बाल्मीकि शिकारी से महर्षि बने, जिनके आश्रम मे बनवास के समय माता सीताजी ने आश्रय लिया और प्रभु की सन्तान को जन्म दिया। वो ऋषि ही नहीं थे, बल्कि शस्त्र विद्बा के धुरन्धर आचार्य थे, जिन्होंने लव कुश को धनुर्विद्या में इतना निपण कर दिया कि उन्होने अश्वमेध यज्ञ के समय भरत शत्रुघ्न लक्षमण जी तक को हरा दिया।
यही महाभारत मे हुआ। द्रोणाचार्य, कृपाचार्य इत्यादि कौरवों के गुरु थे लेकिन महाभारत में भीषण युद्धलड़े। । ये सब इसलिये हुआ कि व्यवस्था जन्मआधारित न हो कर कर्म आधारित थी।
जो शुद्ध व्यवस्था थी उसे केवल राजनीतिक लाभ के लिये स्थिर बनाया जा रहा है और प्रयास किया जा रहा है कि कैसे और अधिक विकृत करके उसका राजनीतिक लाभ उठाया जाये। इसके लिये सनातन को ज़बरदस्ती हीन करने का प्रयास हो रहा है।
जिस सनातन के ध्येय वाक्य सर्वे भवन्तु सुखिना, सर्वे सन्तु निरामया, विश्व बन्धुत्व, उसे सीमित करने के प्रयास में झूठे लांक्षन लगाये जा रहे है। जो कहता है” परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई , वो बन्धुत्व के विरूद्ध कैसे हो गया।जो कमी हैं ही नहीं, वो देख कर केवल अपनी मूर्खता सिद्ध की जा रही है।
सनातन का अपमान उन सिद्धांतों का अपमान है जिन से मानव , दो पाया जानवर न हो कर मनुष्यत्व को प्राप्त हुआ। यह धर्म नही, जीने का सभ्य तरीक़ा है । जब तक सभ्य मानव धरती पर है, सनातन रहेगा। जय सियाराम जी