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भाजपा चुस्त, कांग्रेस सुस्त (उच्चतम न्यायालय ने कहा दुरुस्त)

 

जब कुछ करने के लिये ठान लिया जाता है तब उसके लिये रास्ते भी निकलने लगते हैं। अमित शाह गोवा में सरकार बनाने की ठान चुके थे। पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो भी सरकार बनाने की जोड़तोड़ में वह लगे रहे। सबसे बड़ा दल न बनने के बावजूद उनके रणनीतिक कौशल ने रातोंरात गोवा में सरकार का गठन करवा दिया। चुनाव पूर्व आम आदमी पार्टी के चंगुल से गोवा को बचाते हुये और चुनाव परिणाम उपरांत कांग्रेस को सरकार बनाने से विफल करती भाजपा की राजनीति बता रहे हैं विशेष संवाददाता अमित त्यागी।

गोवा एक ऐसा राज्य था जहां आम आदमी पार्टी अपना वर्चस्व बढ़ाने में लगी थी। कमजोर होती कांग्रेस और सत्ताधारी भाजपा की सत्ताविरोधी लहर के चलते ‘आप’ गोवा में पूरी तरह रायता फैलाने के मूड में थी। यदि छह माह पहले गोवा में चुनाव होते तो वहां की राजनैतिक परिस्थितियां ऐसी थीं कि अपनी ईमानदार छवि के पीछे एक धूर्त मुखौटा छिपाये अरविंद केजरीवाल एवं पार्टी के चंगुल में गोवा भी फंसता दिखने लगा था। समय रहते भाजपा के रणनीतिकारों ने गोवा और पंजाब पर विशेष रूप से काम करना शुरू किया। वक्त ने करवट ली।

गोवा में एक रणनीति के तहत एक पुराने संघी पार्सेकर ने अपनी पार्टी बनाई। गोवा में आम आदमी पार्टी को कमजोर करने के प्रयास कई स्तरों पर दिखाई दिये। महाराष्ट्र गोमांतक पार्टी और शिवसेना ने भी अपनी भूमिका का निर्वाह किया। कुछ निर्दलीय की मजबूती आम आदमी पार्टी की सक्रियता को कमजोर कर गयी। पर सिर्फ आम आदमी पार्टी की कमजोरी और चुनाव पूर्व की इतनी सी कवायद से ही सरकार नहीं बन गयी। चुनाव परिणामों के बाद भी तेज़ी और सटीकता के द्वारा गोवा को पर्रिकर की अगुवाई वाली सरकार मिली।

तेज़ी और सटीकता से बनी गोवा में सरकार 

गोवा में चुनाव परिणाम आने और शपथ ग्रहण के बीच के घटनाक्रम बेहद रोचक हैं। जिस तरह से अमित शाह ने दूरदर्शिता दिखाई एवं नितिन गडकरी ने फुर्ती, वह उनके विपक्षियों को सांस लेने का भी समय नहीं दे पाया। वह जब तक कुछ समझ पाते तब तक गोवा में भाजपा की सरकार बन चुकी थी। 11 मार्च को जब नतीजे आए तो राज्य की 40 में से 13 सीटों पर भाजपा एवं 17 पर कांग्रेस को जीत मिली। अमित शाह ने बिना देर किए हुए उसी शाम नितिन गडकरी को फोन कर मिलने के लिए कहा। लगभग तीस मिनट बाद गडकरी, अमित शाह के आवास पर थे। समय शाम के लगभग सात बजे का रहा होगा। गडकरी गोवा राज्य की इकाई के प्रमुख हैं। इसके बाद अमित शाह ने गडकरी से गोवा के राजनीतिक हालात पर लंबी बातचीत की। गडकरी का कहना था कि राज्य में बीजेपी को अपेक्षित समर्थन नहीं मिला है किन्तु अमित शाह शायद गोवा में सरकार बनाने का निर्णय कर चुके थे। उन्होंने गडकरी को तत्काल गोवा जाने के लिए कहा। उसके बाद अविलंब उसी रात नितिन गडकरी गोवा पहुंचे। वहां सबसे पहले पार्टी और सहयोगी दलों से गोवा की कमान संभालमे पर चर्चा हुयी। यहां से मनोहर पर्रिकर की वापसी की चर्चा की शुरुआत हुयी। पर्रिकर से भी राय ली गयी। पर्रिकर तो चुनाव पूर्व ही गोवा के खाने को दिल्ली से बेहतर बता चुके थे। इसी क्रम में आगे रात डेढ़ बजे एमजीजी के नेता सुदिन धवलीकर से गडकरी की मुलाकात हुयी। इन दोनों नेताओं के बीच एक पुरानी पहचान है एवं आपसी समझबूझ रही है।

अपनी पुरानी दोस्ती को आधार बनाकर नितिन गडकरी ने तीन विधायकों वाली एमजीपी का समर्थन सुदिन से मांगा। उसके बाद गडकरी की मुलाकात गोवा फारवर्ड पार्टी के नेता विजय सरदेसाई से हुयी। इस पार्टी के भी तीन विधायक चुनाव जीते थे। दोनों दल समर्थन को तो राज़ी हुये किन्तु उन्होंने एक शर्त रख दी। यदि रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को फिर से भाजपा गोवा का मुख्यमंत्री बनाये तो वे समर्थन देंगे।

पूरी रात की मुलाक़ातों से उभरे परिदृश्य में यह एक बड़ी मांग थी। गडकरी ने तड़के सुबह पांच बजे अमित शाह को फोन किया और उनको सारी बातें बताईं। इस पर अमित शाह ने कहा कि वह सुबह सात बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फोन कर स्थिति से अवगत कराएंगे। उनके फैसले के बाद पर्रिकर की वापसी पर कुछ कहने की स्थिति बन पायेगी।

इसकी एक वजह भी थी। इसके साथ एक तकनीकी पक्ष यह जुड़ा था कि पर्रिकर की वापसी का फैसला भाजपा का संसदीय बोर्ड ही कर सकता था। उसके बाद सुबह साढ़े आठ बजे अमित शाह ने गडकरी को फोन कर बताया कि इस बारे में प्रधानमंत्री समेत उनकी सभी संबंधित लोगों से बात हो गयी है। सभी ने कहा है कि यदि भाजपा गोवा में सरकार बनाने की स्थिति में है और पर्रिकर वापस लौटने को तैयार हों, तो अपेक्षित समर्थन की स्थिति में प्रयास किये जाने चाहिये। बस यहीं से भाजपा की सरकार बनाने की राह खुल गयी। तीन निर्दलियों का सहयोग प्राप्त होते ही पर्रिकर ने हां कर दी। मज़ेदार बात यह रही कि कांग्रेस सबसे बड़े दल के मुगालते में रहते हुये राज्यपाल के बुलावे का इंतज़ार करती रह गयी और भाजपा नें अपने समर्थित 22 विधायकों की सूची भी सौंप दी।

गोवा कांग्रेस के प्रभारी दिग्विजय सिंह आ गए निशाने पर

14 विधायकों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरी कांग्रेस को उम्मीद थी कि वह गोवा में सरकार का निर्माण कर ही लेंगे। भाजपा की तेज़ी और उनके गोवा प्रभारी दिग्विजय सिंह की सुस्ती के कारण कांग्रेस चूक कर गयी। गोवा के जीते कांग्रेसी विधायक और स्थानीय नेता दिग्विजय सिंह को पूरी तरह जिम्मेदार मानते रहे। अपनी झेंप मिटाने के लिए दिग्विजय सिंह ने राज्य सभा में हंगामा भी किया किन्तु अब पछताये होत क्या, जब चिडिय़ा चुग गयी खेत। हताश दिग्विजय सिंह ने तो गडकरी और पर्रिकर पर बेहद गंभीर आरोप लगाया कि गोवा में गडकरी और पर्रिकर जी ने डकैती डाली है, मैन्डेट की चोरी की है। कांग्रेसी सांसदों ने राज्यपाल की भूमिका पर भी सवाल उठा दिया। केंद्र सरकार ने इस विषय पर सदन में चर्चा का आश्वासन देकर अपनी पारदर्शिता साफ कर दी। इन सब विषयों पर उछलकूद मचाने वाली कांग्रेस यह पक्ष भूल गयी कि जिन विषयों पर वह सवाल उठा रही है उस पर तो उच्चतम न्यायालय पहले ही अपना निर्णय दे चुका है। उसने गोवा में सरकार गठन को पहले ही संवैधानिक करार दे दिया है।

वक्त के साथ सुस्त होते जा रहे कांग्रेसियों की पहली सुस्ती तब दिखाई दी जब गोवा में भाजपा की सरकार बन गयी। और दूसरी सुस्ती तब दिखाई दी जब न्यायालय का निर्णय आने के बाद भी वह राज्यसभा में हंगामा करते रहे। कांग्रेसियों की व्यथा को समझा जा सकता है। सबसे बड़े दल होने के बावजूद सरकार न बना पाने का मलाल तो होता ही है।

आपसी समझ बूझ की कमी ले डूबी कांग्रेस को

चालीस सीटों वाली गोवा विधानसभा में सरकार बनाने के लिए किसी भी दल को 21 सीटों की आवश्यकता थी। कांग्रेस ने 17 और भाजपा नें 14 सीटों पर विजय पायी थी। भाजपा ने बड़ी तेज गति से अपने कदम बढ़ाते हुये दो क्षेत्रीय पार्टियों (गोवा फॉरवर्ड और महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी) का सहयोग प्राप्त कर लिया। दो निर्दलीय उम्मीदवारों का समर्थन पहले से प्राप्त कर चुकी भाजपा तीन-तीन सीटों वाले दलों के साथ आते ही बहुमत में आ गयी। 11 मार्च को चुनाव परिणाम आने बाद 12 मार्च दोपहर तक भाजपा के सारे दांव चले जा चुके थे जबकि 12 मार्च की शाम तक कांग्रेस अपना नेता भी नहीं चुन पायी थी।

एक पांच सितारा होटल में कांग्रेसियों में इस बात के लिए लड़ाई हो रही थी कि गोवा में मुख्यमंत्री पद के लिए संभावित तौर पर किसे चुना जाए। लगभग पांच घंटे तक कांग्रेसी नेता इस बात को लेकर आपस में तकरार करते रहे कि गोवा में उनका सर्वोच्च नेता कौन होगा? गोवा में मुख्यमंत्री पद के लिए कांग्रेस की तरफ से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष लुईजिन्हो फलेरियो, पूर्व मुख्यमंत्री दिगंबर कामत और प्रताप सिंह राणे मजबूत दावेदार थे, लेकिन तीनों समूह के नेताओं ने एक दूसरे को नकार दिया। पांच घंटे तक आपसी खींचतान और घमासान के बाद भी कांग्रेसी खेमे में किसी पर सहमति नहीं बन सकी। ताज़ा ताज़ा चुन कर आए विधायकों ने इसके लिए दिल्ली में बैठे आलाकमान को दोषी ठहरा दिया। विधायकों का मानना रहा कि कांग्रेस गोवा में सरकार बनाने में इसलिए नाकाम रही क्योंकि दिल्ली का शीर्ष नेतृत्व निष्क्रिय बैठा रहा। दूसरी तरफ मनोहर पर्रिकर ने अपने प्रतिद्वंदी विजयी सरदेसाई को भी मना लिया। कुछ समय पहले तक भाजपा का गोवा फॉरवर्ड पार्टी के साथ गठबंधन था, जो कि चुनाव से ठीक पहले टूट गया था। इस विघटन की वजह गोवा फॉरवर्ड पार्टी के अध्यक्ष विजयी सरदेसाई को मनोहर पर्रिकर द्वारा सार्वजनिक तौर पर नीचा दिखाना था। किन्तु चुनाव परिणामों के बाद एक तय राजनीति के तहत दोनों नेता फिर से साथ-साथ आ गए और एक बड़े ही नाटकीय अंदाज में भाजपा की सरकार बन गयी।

आत्मचिंतन करे कांग्रेस

गोवा कांग्रेस के लिए एक आत्मचिंतन की केस स्टडी है कि वह अकेली क्यों खड़ी है? जब भाजपा के साथ सभी छोटे दल आ गए तब ऐसा क्यों हुआ कि आज उसके साथ कोई आने को तैयार नहीं है। सिर्फ भाजपा पर दोष मढऩे की बजाए कांग्रेस अगर आत्मचिंतन करे कि ऐसी कैसी नीतियां रही हैं जिसके कारण लोग उससे दूर हो रहे हैं तो शायद उसके कुछ पाप धुल जायें।

राज्यपाल के विशेषाधिकार का मामला है : सर्वोच्च न्यायालय

कांग्रेस ने भाजपा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने के राज्यपाल मृदुला सिन्हा के फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। सर्वोच्च न्यायालय ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि यह मामला राज्यपाल के विशेषाधिकार का मामला है। आपको वहीं जाकर अपनी बात रखनी चाहिए थी। इस तरह याचिका खारिज कर दी गयी। इसके साथ ही कांग्रेस का वह आरोप भी खारिज हो गया जिसके अनुसार गोवा की राज्यपाल को सबसे बड़े दल को पहले मौका देना चाहिए था। भाजपा को सरकार बनाने का मौका देने से विधायकों की खरीद-फरोख्त को बढ़ावा मिलेगा।

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