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बीजेपी कार्डिनल और बिशप को लुभा रही है लेकिन ईसाइयों से दूर !

बीजेपी कार्डिनल और बिशप को लुभा रही है लेकिन ईसाइयों से दूर !

उत्तर भारत, खासकर हिंदी पट्टी में ईसाइयों और भारतीय जनता पार्टी या हिंदू संगठनों के बीच कोई विशेष सौहार्द नहीं है। हिंदी पट्टी के क्षेत्रों में ईसाई धर्म प्रचारकों और हिंदू संगठनों के बीच दूरी लगातार बढ़ रही है, क्योंकि हिंदू अब इन क्षेत्रों में धर्मांतरण को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं। खास बात यह है कि हिंदी भाषी क्षेत्र दक्षिण भारतीय मिशनरियों से भरे पड़े हैं, इनमें कैथोलिक चर्च का दबदबा है। और यह पादरी / नन दक्षिण भारतीय खासकर केरल के बिशपाें की संघ – भाजपा से बढ़ती नजदीकियों का अंदर ही अंदर विरोध कर रहे है।

ईस्टर पर, केरल में भाजपा नेताओं ने बिशप हाउस और कुछ चुनिंदा ईसाईयों के घरों का दौरा किया, जहां उन्होंने यीशु मसीह और प्रधानमंत्री मोदी की एक छोटी तस्वीर वाले कार्ड वितरित किए। उसी दिन, प्रधानमंत्री मोदी ने दिल्ली में एक कैथोलिक चर्च का दौरा किया और प्रार्थना में भाग लिया। ईस्टर के दो सप्ताह बाद मोदी की केरल यात्रा के दौरान, सिरो-मालाबार चर्च के प्रमुख, कार्डिनल जॉर्ज एलेनचेरी सहित सात बिशपों ने कोच्चि के एक निजी होटल में प्रधानमंत्री के साथ बैठक की। कार्डिनल जॉर्ज एलेनचेरी ने मोदी के साथ बैठक को “बहुत सफल” करार दिया।

राज्य के धर्मनिरपेक्ष होने की अवधारणा पर यह बहस कभी खत्म नहीं हो सकती है कि राज्य को सभी धर्मों से समान दूरी रखनी चाहिए या सभी धर्मों के प्रति समान लगाव दिखाना चाहिए। लेकिन चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदू धर्म के प्रति खुल कर अपना लगाव प्रदर्शित करते हैं, मंदिरों में पूजा करते हैं, मंदिर का शिलान्यास और लोकार्पण करते हैं, इसलिए उनसे उम्मीद की जाती है कि वे दूसरे धर्मों के प्रति भी लगाव और सम्मान दिखाएंगे, और वह कार्डिनल जॉर्ज एलेनचेरी व बिशपों से मिलकर ईसाई समाज काे ऐसा ही संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि यह संदेश भले ही चर्च नेतृत्व तक पहुंचा हाे, पर आम ईसाई या औसत ईसाई मतदाता तक नहीं गया है।
उत्तर भारत, खासकर हिंदी पट्टी में ईसाइयों और भारतीय जनता पार्टी या हिंदू संगठनों के बीच कोई विशेष सौहार्द नहीं है। हिंदी पट्टी के क्षेत्रों में ईसाई धर्म प्रचारकों और हिंदू संगठनों के बीच दूरी लगातार बढ़ रही है, क्योंकि हिंदू अब इन क्षेत्रों में धर्मांतरण को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं। खास बात यह है कि हिंदी भाषी क्षेत्र दक्षिण भारतीय मिशनरियों से भरे पड़े हैं, इनमें कैथोलिक चर्च का दबदबा है। और यह पादरी / नन दक्षिण भारतीय खासकर केरल के बिशपाें की संघ – भाजपा से बढ़ती नजदीकियों का अंदर ही अंदर विरोध कर रहे है।

ईसाई समुदाय के अधिकांश बुद्धिजीवी इस बात से सहमत हैं कि केरल में कई बिशप और चर्च पिछले कुछ वर्षों में जांच के दायरे में रहे हैं, और विशेष रूप से खुद कार्डिनल एलेनचेरी, जो धोखाधड़ी, आपराधिक विश्वासघात, जालसाजी और आपराधिक साजिश के कई मामलों का सामना कर रहे हैं। वे अपने बचाव व चर्च की संस्थाओं के बिना किसी बाधा के संचालन के लिए भाजपा-संघ से अपनी नजदीकियां बढ़ा रहे हैं। इस सबके बावजूद इस बार उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी के सामने अपना पुराना एजेंडा रखा है।

प्रधानमंत्री के साथ चर्चा के मुद्दों में चर्चों पर हमले, तटीय विनियमन क्षेत्र के तहत आने वाले क्षेत्रों में मछुआरों के लिए घर, दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा, रबर की कीमत में वृद्धि, भारत की आधिकारिक यात्रा के लिए पोप फ्रांसिस को आमंत्रित करना और एंग्लो-इंडियन के लिए आरक्षित लोकसभा में दो सीट की दोबारा बहाली की मांग शामिल हैं। हालांकि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने बुधवार (19 अप्रैल 2023) को विधानसभा ने संविधान में संशोधन कर दलित ईसाइयों को आरक्षण के दायरे में लाने का प्रस्ताव पास किया था। इस प्रस्ताव में स्टालिन ने केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार से ईसाई धर्म अपनाने वाले आदि द्रविड़ों को आरक्षण देने के लिए संविधान में संशोधन करने का आग्रह किया है।

यह संभव है कि ऐसे प्रस्ताव से प्रधानमंत्री से मिलने वाले बिशप दबाव में हाेंगे। वैसे भी चर्च का सबसे बड़ा एजेंडा दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिलाना है, क्योंकि इससे चर्च को आगे बढ़ने में मदद मिलेगी। इससे चर्च सत्ता पर काबिज लोगों को दो फायदे नजर आते हैं, पहला, अगर दलित पृष्ठभूमि के ईसाइयों को हिंदू दलितों की तरह आरक्षण में शामिल कर लिया जाए तो बड़े पैमाने पर धर्मांतरण का रास्ता खुल जाएगा। दूसरा, ईसाई दलित चर्च के भीतर जिन अधिकारों की मांग कर रहे हैं, वे कमजोर हो जाएंगे। इन्हें आसानी से पहचाना भी जा सकता है।

वर्तमान में ईसाइयों की कुल आबादी का 65 प्रतिशत दक्षिण भारत और पूर्वी राज्यों में है। हिंदी पट्टी में 35 प्रतिशत ईसाई हैं। अब ईसाई धर्म के विकास की संभावनाएं दक्षिण की अपेक्षा हिन्दी क्षेत्रों में अधिक हैं। भाजपा केवल दक्षिण के कुछ बिशपों और चर्च के नेताओं के बल पर ईसाई समाज में अपना जनाधार नहीं बढ़ा सकती। क्योंकि दक्षिण और पूर्वी राज्यों के धर्म प्रचारकों और मिशनरियों के स्वार्थ हिंदी पट्टी से जुड़े हुए हैं।

मोदी सरकार अपने पिछले 9 साल के कार्यकाल में अल्पसंख्यक मंत्रालय के तहत हजारों करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद आम ईसाइयों के बीच कोई खास प्रभाव नहीं डाल पाई है। भाजपा और संघ को उन ईसाइयों की पहचान कर उन्हें आगे लाना होगा, जाे चर्च की साम्राज्यवादी नीतियों के खिलाफ आम ईसाइयों में जागरूकता पैदा कर सकें। तभी ईसाई समाज में भाजपा और संघ के प्रति सद्भाव बनेगा।

– आर एल फ़्रांसिस

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