राकेश दुबे
*कैरियर द्वन्द : युवा मौत का मार्ग*
भारत के सामने इससे बड़ा विरोधाभास नहीं हो सकता।जब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘परीक्षा पर चर्चा’ कार्यक्रम में देश के करोड़ों छात्र-छात्राओं, शिक्षकों व अभिभावकों से दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम व वर्चुअल संवाद के जरिये परीक्षा भय से मुक्त होने की बात कर रहे थे, देश के कई भागों से छात्रों के आत्महत्या करने की खबरें आ रही थीं। जाहिर है अभिभावक व शिक्षक इन बच्चों के मानसिक द्वंद्व व वास्तविक दिक्कतों को नहीं समझ पा रहे हैं, जिसके चलते इन बच्चों को मौत को गले लगाना अंतिम विकल्प नजर आ रहा है।
निश्चित रूप से परीक्षा का भय इस कदर बच्चों पर हावी है कि उन्हें लगने लगता है कि परीक्षा में असफलता के बाद जीवन में कुछ शेष नहीं रहेगा। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में इन तमाम चुनौतियों को संबोधित किया। उन्होंने गहरी बात कही कि– ‘बच्चों के रिपोर्ट कार्ड को अपना विजिटिंग कार्ड न बनाएं।’ यह एक हकीकत है कि अपने जीवन में शैक्षिक व रोजगारपरक लक्ष्यों को हासिल न कर पाने वाले अभिभावक अपने बच्चों से आईएएस, डॉक्टर व इंजीनियर बनने की उम्मीद पाल बैठते हैं। जमीनी हकीकत को नजरअंदाज करते हुए यह नहीं सोचते कि बच्चे की क्षमताएं क्या हैं और हमारी उम्मीदों का बोझ वे किस सीमा तक बर्दाश्त कर पाएंगे।
उदाहरण – एक मेरिटोरियस स्कूल के हॉस्टल से एक छात्र के पिता को फोन जाता है कि तुम्हारे बच्चे के नंबर कम आए हैं। उसे हॉस्टल से निकाल दिया जाएगा। इसके तीन घंटे बाद खबर आई कि छात्र ने हॉस्टल के कमरे में फंदा लगाकर आत्महत्या कर ली। यहां इस फोन करने वाले शिक्षक की जवाबदेही तय की जानी चाहिए कि उसने ऐसा संवेदनहीन व्यवहार क्यों किया? क्या नंबर कम आने के लिये छात्र को हॉस्टल से निकाल देना समस्या का समाधान है? यह दबाव अभिभावकों पर बना तो छात्र तनाव में आ गया। क्या उन कारणों की पड़ताल नहीं की जानी चाहिए थी जिसकी वजह से छात्र के नंबर कम आए? लाख टके का सवाल है- क्या नये दौर में संक्रमणकाल से गुजर रहे छात्रों को समझने में शिक्षक जिम्मेदार भूमिका निभा रहे हैं? उत्तर किसी से छिपा नहीं है, आपका अनुमान भी लगभग वही एवं सही है।
वहीं दूसरी ओर कोचिंग बाजार का गढ़ बन चुके कोटा में छात्रों की आत्महत्या का सिलसिला थम नहीं रहा है। कोटा से फिर एक संभावना के अस्त होने की खबर आ रही है। वहां से बुरी खबर आई कि सोमवार को जेईई व नीट परीक्षा की तैयारी कर रही 18 साल की निहारिका ने आत्महत्या कर ली। आत्महत्या करने से पहले लिखे पत्र में उसने लिखा- ‘मम्मी-पापा, मैं जेईई नहीं कर सकती, इसलिए सुसाइड कर रही हूं। आई एम लूजर, यही लास्ट ऑप्शन है।’ जाहिर है बच्ची इतनी भयाक्रांत थी कि परीक्षा से पहले ही आत्महत्या करने का फैसला कर लिया।
जाहिर है इस फैसले में परिवार की उम्मीदों का बोझ ही शामिल होगा, जिसके चलते परीक्षा की विफलता को उसने जीवन का अंत मान लिया। आखिर क्यों मां-बाप बच्चों के साथ ऐसा सहज संवाद नहीं बना पाते कि इस आत्मघाती फैसले से पहले वह किसी तरह का विमर्श उनके साथ कर सके? क्यों हम बच्चों के सामने ऐसे हालात पैदा कर देते हैं कि उन्हें लगता है कि परीक्षा में उत्तीर्ण न हुए तो जीवन ही खत्म हो जाएगा? प्रश्न यह भी है कि उम्मीदों का कब्रगाह बनते कोटा भेजने से पहले क्या अभिभावकों ने सोचा है कि क्या जेईई में निकलना निहारिका का पैशन भी है?
हर बच्चा अपने आप में विशिष्ट होता है। ईश्वर उसे किसी निश्चित लक्ष्य के लिये रचता है। दुर्भाग्य से मां-बाप उसकी रुचि व रुझान को नहीं समझ पाते। अपनी इच्छाएं थोपकर उसे कैरियर की दिशा निर्धारित करने के लिये कह देते हैं। यहीं से उसके जीवन में द्वन्द शुरू होते हैं। जो पाठ्यक्रम छात्र-छात्राओं के मन का होता है उसमें वे जीवन में आशातीत सफलता प्राप्त करते हैं, विशिष्टता हासिल करते हैं। दुर्भाग्य से हम 21वीं सदी के बच्चों को 19वीं सदी के हंटर से हांक रहे हैं। उनके अहसासों व उम्मीदों का खात्मा कर रहे हैं। सामाजिक प्रतिष्ठा के छद्म प्रदर्शन के लिए कि हमारा बेटा डॉक्टर व इंजीनियर है, बच्चों के अरमानों का गला घोंट रहे हैं। दरअसल, शिक्षक व अभिभावकों से संवेदनशील व्यवहार की उम्मीद की जानी चाहिए।