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संघीय मान्यता प्राप्त संवैधानिक संस्थाओं की अवहेलना क्यों?

देश के सर्वोच्च न्यायालय को राज्य सरकारों के प्रमुखों को संवैधानिक संस्थाओं के सम्मान के बारे में निर्देश देना ही पड़ेंगे, इसकी ज़रूरत अब साफ़ नज़र आ रही है। आज ये प्रश्न खड़े हैं कि दिल्ली के मुख्यमंत्री एवं आम आदमी पार्टी (आप) के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल संवैधानिक जांच एजेंसियों के सामने पेश क्यों नहीं हो रहे ? क्या आम आदमी इन एजेंसियों के समन को लगातार खारिज कर सकता है? क्या इनके समन को स्वीकार न करना ‘असंवैधानिक’ नहीं है? अदालत का इस व्यवस्था पर एक स्पष्ट आदेश जरूर आना चाहिए।

प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सीबीआई सरीखी एजेंसियों को संवैधानिक, संघीय मान्यता हासिल है कि वे देश के प्रधानमंत्री को भी जांच के लिए तलब कर सकती हैं। केजरीवाल भी संवैधानिक पद पर हैं और संविधान, लोकतंत्र बचाने के नारों पर राजनीति करते रहे हैं। फिर ईडी के समन को बार-बार ‘अवैध’ करार देना क्या संविधान-सम्मत है? केजरीवाल ने एक बार विधानसभा सत्र और विश्वास प्रस्ताव को बहाना बना कर ईडी और अदालत की पेशी से राहत मांगी थी। राहत तो मिल गई, लेकिन यह सवाल बेहद महत्वपूर्ण है कि केजरीवाल को 70 विधायकों के सदन में 62 विधायकों का प्रचंड बहुमत हासिल है, तो फिर सत्ता-पक्ष को विश्वास-मत का प्रस्ताव क्यों पेश करना पड़ा? विपक्ष ने तो अविश्वास व्यक्त नहीं किया था। इसी तरह केजरीवाल कभी राज्यसभा चुनाव, तो कभी चुनाव-प्रचार का बहाना बना कर ईडी के समन को अस्वीकार करते रहे हैं।

एक राजनेता औसतन हर दिन किसी न किसी काम में व्यस्त रहता है, तो क्या जांच एजेंसी के संवैधानिक दायित्व को ‘तारपीडो’ करता रहेगा? केजरीवाल की कथित शराब घोटाले में उपस्थिति और उनसे पूछताछ इसलिए अहम है, क्योंकि उनके उपमुख्यमंत्री रहे मनीष सिसोदिया बीते एक साल से जेल में हैं, उन पर मनी लॉन्ड्रिंग के गंभीर आरोप हैं, लिहाजा सर्वोच्च अदालत ने भी उन्हें जमानत नहीं दी है। बल्कि इस मामले में मनी टे्रल की आशंका जताई है। घोटाला करोड़ों रुपए का है, लेकिन ‘आप’ के प्रवक्ता दलीलें देते रहे हैं कि सिसोदिया और संजय से एक चवन्नी भी बरामद नहीं हुई, लेकिन जेल का उत्पीडऩ दिया जा रहा है। यह कुतर्क है। किसी भी ऐसे घोटाले में नकद बरामद नहीं हुआ करते, बल्कि लेन-देन बेनकाब होता है। ‘आप’ के राज्यसभा सांसद संजय सिंह भी बीती अक्तूबर से जेल की सलाखों के पीछे हैं और अदालत ने उन्हें भी जमानत नहीं दी है।

मनी लॉन्ड्रिंग का कानून ही इतना पेचीदा और सख्त है कि उसमें जमानत मिलना एक कठिन प्रक्रिया है। ये दोनों नेता, ‘आप’ के भीतर, केजरीवाल के दाएं-बाएं हाथ माने जाते रहे हैं, लिहाजा केजरीवाल को किसी सूचना या साक्ष्य के आधार पर गिरफ्तारी का अंदेशा और भय स्वाभाविक है। संभव है कि दोनों गिरफ्तार नेताओं से पूछताछ के दौरान ऐसा कोई साक्ष्य सामने आया हो, जो केजरीवाल की संलिप्तता की ओर संकेत करता हो, लिहाजा जांच एजेंसी केजरीवाल से भी पूछताछ करना चाहेगी। इसमें असामान्य क्या है? गौरतलब यह भी है कि जब शराब की नई नीति बनाई जा रही थी, उस दौरान शराब के बड़े व्यापारियों को मुख्यमंत्री केजरीवाल से भी मिलाया गया था। इसे भी अपराध न आंका जाए, तो दिल्ली सरकार की कैबिनेट ने जो फैसले लिए थे, उनसे केजरीवाल खुद को अलग कैसे रख सकते हैं? कैबिनेट के फैसले और दायित्व तो ‘सामूहिक’ होते हैं। केजरीवाल तो दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री हैं। बेशक उन्होंने किसी भी फाइल या विवादित फैसले पर हस्ताक्षर न किए हों, लेकिन कैबिनेट की प्रथम जिम्मेदारी उन्हीं की रही है।

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