राजनीति का सांस्कृतिक होना अनिवार्य है। संस्कृतिविहीन राजनीति कलहपूर्ण होती है। ऐसी राजनीति के संचालक और नेता देश को परेशानी में डालने वाले होते हैं। उनका आचरण उनके लिए भी फलप्रद नहीं होता। वे स्वयं की भी बेज्जती कराते हैं। कांग्रेस के नेता व पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी अपने निराधार वक्तव्यों से जगहंसाई करा रहे हैं। उन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में अपने देश भारत के सम्बंध में अनर्गल टिप्पणियां की हैं। कैम्ब्रिज में बोलते हुए उन्होंने कहा है कि, ‘‘भारत की संवैधानिक संस्थाएं सत्ता पक्ष के नियंत्रण में हैं‘‘। राहुल जी स्वतंत्र न्यायपालिका द्वारा भिन्न भिन्न विषयों पर दिए गए निर्णयों पर ध्यान नहीं देते। सर्वोच्च न्यायालय ने अभी चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के सम्बंध में विशेष प्रकार का निष्कर्ष दिया है। न्यायपीठ ने हिन्दू आस्था को भारत के लोगों की जीवनशैली बताया है। देश की न्यायपालिका संवैधानिक स्वतंत्रता का सदुपयोग कर रही है। यह शीर्ष संवैधानिक संस्था है। समझ में नहीं आता कि उन्हें न्यायपालिका भी सत्ता पक्ष के नियंत्रण में क्यों दिखाई पड़ती है।
संसद भारत का सर्वोच्च जनप्रतिनिधि निकाय है। यह विधायी व संविधायी अधिकारों से संपन्न है। राहुल गाँधी स्वयं लोकसभा सदस्य हैं। उन्होंने लोकसभा में असंसदीय टिप्पणियां की थी। ऐसी असंसदीय बातें कार्यवाही से निकाली गईं। असंसदीय कथनों को कार्यवाही से निकालना संसदीय विशेषाधिकार का अंग है। यह काम सरकारी नहीं है। मूलभूत प्रश्न है कि क्या राहुल गाँधी संसद को भी सरकार के दबाव में काम करने वाली संस्था मानते हैं। ऐसी अनर्गल टिप्पणियां ब्रिटिश संसद में नहीं होती। राहुल गाँधी ने विदेशी सांसदों के मध्य कहा है कि भारत में विपक्षी सांसदों के माइक बंद कर दिए जाते हैं। तथ्य यह है कि ब्रिटिश संसद व भारतीय संसद अपनी कार्यवाही के लिए स्वतंत्र और संप्रभु संस्थाएं हैं। ब्रिटिश संसदीय परिपाटी के अनुसार संसद अपनी कार्य संचालन प्रक्रिया की स्वामी होती है – ‘हॉउस इज द मास्टर ऑफ हिज ओन बिजनेस‘। भारत में भी संसद अपनी संचालन प्रक्रिया की स्वामी है। समझ में नहीं आता कि राहुल गाँधी ब्रिटिश सांसदों से भारतीय संसद में कथित रूप से माइक बंद करने की शिकायत क्यों कर रहे हैं? आखिरकार ब्रिटिश सांसद राहुल की समस्या का समाधान कैसे कर सकते हैं? राहुल जी कृपया ध्यान देना चाहें। लोकसभा मण्डप में अध्यक्ष के आसन के पीछे ‘धर्मचक्र प्रवर्तनाय‘ लिखा हुआ है। राहुल को छूट है कि वह धर्म या धर्मचक्र माने या न माने लेकिन उन्हें धर्मचक्र प्रवर्तनाय की मान्यता पर ध्यान देना चाहिए। दिक्काल की विधि का अनुसरण धर्मचक्र है। प्राचीन संसद भवन में ऐसे सांस्कृतिक वाक्य भिन्न भिन्न स्थलों पर अंकित हैं। केन्द्रीय कक्ष के द्वार संख्या एक की ओर बढ़ते हुए पंचतंत्र का सुन्दर सूक्त अंकित है, ‘‘अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् द्य उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् – अर्थात यह मेरा है, यह पराया है। ऐसा सोचने वाले संकीर्ण बुद्धि के हैं। उदारमना के लिए यह पूरी पृथ्वी एक परिवार है।‘‘ इसी तरह लिफ्ट संख्या एक के पास सभा की संरचना के सम्बंध में महाभारत का सुन्दर वाक्य है, ‘‘न स सभा यत्र न सन्ति वृद्धा न ते वृद्धा ये न वदन्ति धर्मम् नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति न तत् सत्यं यच्छलेनाभ्युपेतम् – अर्थात वह सभा सभा नहीं जिसमें वृद्ध न हों। वे वृद्ध वृद्ध नहीं जो धर्मनिष्ठ न हों। वह धर्म धर्म नहीं है जो सत्य न हो।‘‘ भारतीय राष्ट्र राज्य के प्रतीक चिन्ह में तीन शेरों व चक्र के नीचे ‘सत्यमेव जयते‘ छपा रहता है। ‘सत्यमेव जयते‘ उत्तरवैदिककालीन मुण्डकोपनिषद का मंत्र है – ‘सत्यमेव जयते नानृतं‘ अर्थात सत्य की विजय होती है झूठ की नहीं। राहुल जी को भारतीय संस्कृति के ऐसे आधारभूत तत्वों का अध्ययन करना चाहिए।
राहुल के विदेश में दिए गए वक्तव्य भारतीय राष्ट्र राज्य की गरिमा को क्षति पहुँचाने वाले हैं। उनके बयानों पर खासी बहस छिड़ गई है। इस बहस से तमाम विचारणीय बिंदु निकलते हैं। पहला कि क्या भारत का कोई राजनीतिज्ञ विदेश जाकर अपने देश की निंदा कर सकता है? क्या भारत की आतंरिक राजनीति में सत्ता पक्ष को नीचा दिखाने के लिए विदेश की धरती का दुरूपयोग उचित है? क्या भारत के बाहर किसी भी देश में भारत की प्रतिष्ठा, गरिमा, महिमा को क्षति पहुँचाने वाले वक्तव्य औचित्यपूर्ण हैं? सभी संसद सदस्य पदग्रहण के पूर्व शपथ लेते हैं। शपथ में भारत की प्रभुता और अखण्डता अक्षुण्ण रखने का संकल्प होता है कि मैं जो पद ग्रहण करने जा रहा हूँ उसके कर्तव्यों का श्रद्धपूर्वक निर्वहन करूँगा। (संविधान तीसरी अनुसूची) क्या इस शपथ संकल्प को किसी सांसद द्वारा भंग किया जा सकता है? घरेलू राजनीति की बात दूसरी है और विदेश में भाषण करना भिन्न विषय है। मूलभूत प्रश्न है कि राहुल जी की टिप्पणियों में भारतीय राष्ट्र राज्य की प्रतिष्ठा गिराने या कम करने के उल्लेख क्यों है। निस्संदेह राहुल जी सत्तारूढ़ राजग के विपक्षी नेता हैं। संसदीय परंपरा में विपक्ष को सरकार की आलोचना का अधिकार है। यूरोपीय विद्वानों ने विपक्ष के तीन अधिकार बताए हैं। पहला कर्तव्य सरकार को परामर्श देना है – ‘टू प्रपोज दि गवर्नमेंट‘। विपक्ष का दूसरा कर्तव्य सरकार का विरोध करना है – ‘टू अपोज दि गवर्नमेंट‘। विपक्ष का तीसरा कर्तव्य सरकार को जनहितकारी कार्यों के लिए विवश करते हुए सरकार हटाना भी है – ‘टू डिपोज दि गवर्नमेंट‘। ब्रिटिश संसदीय परंपरा में प्रतिपक्ष को ‘गवर्नमेंट इन वेटिंग‘ कहते हैं। राहुल गाँधी विचार करें कि क्या वे उक्त तीन कर्तव्यों में से किसी एक का भी परिपालन समुचित करते हैं। लोकतांत्रिक देश के लिए सत्तापक्ष व विपक्ष दोनों ही मूल्यवान हैं। कमजोर सरकारें उचित निर्णय नहीं ले सकतीं। कमजोर प्रतिपक्ष समुचित आलोचना नहीं कर पाता।
भारत की वर्तमान नरेन्द्र मोदी सरकार भारी बहुमत के साथ सशक्त सत्ता पक्ष है। लेकिन विपक्ष कमजोर है। परस्पर विभाजित होने के कारण और भी अशक्त है। विपक्ष की कमजोरी का एक प्रमुख कारण राहुल गाँधी जैसे नेता भी हैं। सरकार की आलोचना का काम देश की धरती पर ही होना चाहिए। किसी अन्य देश में नहीं। अटल बिहारी बाजपेयी ने विदेश में विपक्ष के नेता के रूप में सरकारी शिष्ट मण्डल का नेतृत्व किया था। प्रेस ने पूछा कि आप विपक्ष के नेता होकर सरकारी पक्ष से क्यों बोल रहे हैं। बाजपेयी ने कहा कि मैं भारत में विपक्ष का नेता हूँ। लेकिन यहाँ अपने देश का प्रतिनिधि हूँ। ऐसे उदाहरणों से राहुल सहित सभी राजनैतिक नेताओं को प्रेरणा लेनी चाहिए। भारत से विदेश यात्राओं पर जाने वाले सभी राजनेताओं ने अपने देश की संस्कृति सभ्यता और संसदीय प्रणाली की पक्षधरता की है लेकिन कांग्रेस के नेता राहुल जी ने गलत परंपरा डालने का गलत प्रयास किया है। अच्छा होता कि वे यहीं अपने देश में आम जनता के मध्य सघन अभियान चलाते। सरकारी पक्ष की गलतियों व निर्णयों की आलोचना करते। आम जनता उनके वक्तव्य का विश्लेषण करती। उनकी बातें सही होती तो उनका जनाधार बढ़ता। उनकी पार्टी कांग्रेस को भी इसका लाभ मिलता। उन्होंने विदेश में जाकर भारत की आलोचना की। विदेशी भूमि के लोग भारत के मतदाता नहीं हैं। कांग्रेस नेता के इस आचरण में भारत की गरिमा पर चोट है। इसे किसी भी सूरत में औचित्यपूर्ण नहीं माना जा सकता।