नवरात्रि भारत भूमि पर मनाये जाने वाले प्रमुख त्यौहारों में से एक है. इसमें नौ दिन तक माँ दुर्गा के नौ अलग अलग स्वरूपों की पूजा की जाती है। दुर्गा का अर्थ ही है दुखों को दूर करने वाली शक्ति यानि सकारात्मक ऊर्जा। सनातन परम्पराओं में नारी को शक्ति का अवतार कहा गया है, ऐसा इसलिए भी है क्योंकि नारी जिस भी रूप में आपके जीवन में है वह सुख, प्रेम और ममत्व की संवाहक ही होती है. पौराणिक मान्यताओं में नारी के सम्बन्ध में यह विदित है कि “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” अर्थात जहाँ नारी का सम्मान होता है वहां देवता निवास करते हैं. दुनिया की किसी अन्य सभ्यता और संस्कृति में नारी के प्रति सम्मान और श्रद्धा का यह भाव देखने को नहीं मिलता है. वर्तमान समय में जहाँ एक ओर हमारा समाज देवी के आराधन के माध्यम से नारीत्व को पूजता है वहीं दूसरी ओर दिन प्रतिदिन महिलाओं और बच्चियों के प्रति हिंसा और उत्पीड़न की घटनाएं भी बढ़ती जा रही हैं। कन्या भ्रूण हत्या जैसी जघन्य वारदातों से तो ऐसा लगता है कि हम अपने लिए कन्यायें चाहते ही नहीं।
एनसीआरबी के मुताबिक साल 2013 में करीब तीन लाख दस हजार महिलाएं किसी न किसी हिंसा का शिकार हुई हैं. जिसमें बलात्कार, घरेलू हिंसा की शिकार, महिलाओं की खरीद फरोख्त और अपहरण जैसे मामले शामिल हैं. जबकि यही संख्या 2012 में करीब दो लाख चवालीस हजार थी. एक ही साल में ऐसे मामलों में इतनी बढोतरी सोचने को मजबूर करती है कि समाज किस ओर जा रहा है। समय के साथ निःसंदेह हमने विज्ञान और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में अभूतपूर्व सफलता हासिल की है किन्तु महिलाओं के प्रति अन्याय के ऐसे आंकड़े देखकर लगता है कि ऐसी सफलता बेमानी है क्योंकि टेक्नोलॉजी के विकास के साथ समाज की सोच में सकारात्मक परिवर्तन नहीं आया है। इसका एक बहुत बड़ा कारण ये है कि महिलाओं की आजादी के सम्बन्ध में हमारे विचार पश्चिमी दुनिया से ज्यादा प्रभावित हैं। हमें लगता है कि जो भी पश्चिम से आया है वही आधुनिक है। महिलाओं को जो आजादी टेक्नोलॉजी के आधार पर मिली है उसे हम मानसिक, वैचारिक और सामाजिक समझने की भूल करते हैं। टेक्नोलॉजी के माध्यम से आज हम किसी से भी बातकर सकते हैं, कहीं भी जा सकते हैं आदि आदि , लेकिन समाज की सोच नहीं बदल सकते। यही वजह है कि आधुनिक दौर में महिलाओं को आजादी तो मिल रही है लेकिन उनके प्रति अमानवीय सोच नहीं मिट पा रही। इसका उदाहरण एक तरफ तो किरण बेदी, कल्पना चावला, निर्मला सीतारमण, पी.वी.सिंधु जैसी सशक्त व सक्षम महिलाएं हैं वही दूसरी ओर इसी समाज में निर्भया जैसी पीड़िता भी हैं जो समाज की संवेदनहीनता व क्रूरता का शिकार हो जाती हैं। वर्तमान में विश्व भर में महिलाओं द्वारा यौन शोषण के लिए चलाया जा रहा “मी टू” अभियान इस अंतर्विरोध का एक ज्वलंत उदहारण है। इस अभियान में सभी महिलाएं सक्षम और अपने क्षेत्र की प्रतिष्ठित व्यक्तित्व हैं किंतु फिर भी खुद को पीड़ित बनने से नहीं रोक पा रही हैं। पुलिस रिकॉर्ड के अनुसार यौन उत्पीड़न, बाल विवाह, महिला तस्करी, बलात्कार, कन्या भ्रूण हत्या, जबरन गर्भपात, दहेज़ उत्पीड़न, तीन तलाक़, हलाला आदि के मामले दिनोदिन बढ़ते जा रहे हैं।
इसके अलावा दुनिया में बहुत से ऐसे देश हैं जहाँ महिलाओं को समानता का अधिकार मिलना बहुत दूर की कौड़ी है क्योंकि वहां उन्हें आजादी के मूलभूत अधिकार ही नहीं मिले हैं। पाकिस्तान की जानी मानी वकील और सामाजिक कार्यकर्ता आस्मां जहांगीर के मुताबिक़ इन देशों में महिलाओं को कार चलाने तक की अनुमति भी नहीं है, सिर ना ढ़कने पर उन्हें सजा दी जाती है। धर्म और परम्पराओं के नाम पर औरत को दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया है। लैंगिक भेदभाव के ऐसे माहौल में एक समाज के रूप में हम खुद को आधुनिक और प्रगतिशील नहीं कह सकते हैं।
भारत में भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। जिस देश में सदियों तक समाज मातृसत्तात्मक रहा हो और बच्चो की पहचान माँ के नाम से होती रही हो जैसे देवकीनंदन, कौन्तेय, राधेय, यशोदानन्दन आदि, वहां घर, बाजार, कार्यस्थल हर जगह नारी मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना झेलने को बाध्य है। एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में होने वाले बाल विवाहों का 40% सिर्फ भारत में होता है। इसके कारण गम्भीर और बहुत गहरे हैं जो सतही तौर पर सामान्य नजर आते हैं किंतु उनका असर बहुत प्रभावकारी होता है जैसे हिंदी फिल्मों में महिलाओं का चित्रण किस रूप में हो रहा है । एक कुंठित और विचारों की शुद्धि से जूझता लेखक जो अभिव्यक्ति की आज़ादी के फ़टे आवरण में अपना व्यापार साधता है और मुन्नी बदनाम और शीला की जवानी जैसे फूहड़ गीत परोस देता है जो हमारे बच्चों की जीवनशैली का हिस्सा बन जाता है । ये एक किस्म की “सॉफ्ट पॉवर” है जो पीढ़ियों के मन मस्तिष्क में एक विकृत मानसिकता स्थापित कर रही है और उन्हें गर्त में धकेल रही है । इसमें भी कोई शक नहीं है कि महिलाओं के प्रति समाज की सोच को दूषित करने में महिलाएं भी पुरुषों का साथ दे रहीं हैं क्योंकि दिन प्रतिदिन बढ़ती अश्लील फिल्मों, वेबसीरीज, गानों आदि की बढ़ती संख्या और उसमें महिलाओं की सक्रिय भागीदारी चिंता का कारण है । “छद्म नारीवाद” के नाम पर महानगरों में पुरुषों से बराबरी का ढोंग करके उनके साथ खुलेआम सिगरेट, शराब का सेवन आदि नारी को स्वछंद तो बना सकता है किंतु सुरक्षित नहीं । हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत में स्त्री विमर्श के मुद्दे अलग हैं, यहां आज भी करोड़ों महिलाओं को माहवारी के दिनों में सैनेटरी पैड्स तक उपलब्ध नहीं हैं, करोड़ों को कई मील दूर से पानी भर कर लाना होता है और कई हलाला और तीन तलाक की हैवानियत से जूझ रहीं हैं । अंत में यही कहा जा सकता है कि हर चीज़ के लिए सरकार और सिस्टम को कोसने की बजाय समाज को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि “जो सभ्यता नारी का सम्मान करना नहीं जानती, वो ना तो अतीत में उन्नति कर सकी है और ना ही भविष्य में उन्नति कर सकेगी।” हमें अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा और छद्म आधुनिकता की आड़ में प्रगतिशील पुरातन संस्कारों को रूढ़िवादी कह कर उनका निरादर करना बंद करना होगा तभी हम नवरात्रि का सही उद्देश्य स्थापित कर पाएंगे.
डॉ शशांक शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर