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विकसित देश भारत के आर्थिक दर्शन को लागू कर अपनी आर्थिक समस्याओं का हल निकाल सकते हैं

विकसित देश भारत के आर्थिक दर्शन को लागू कर अपनी आर्थिक समस्याओं का हल निकाल सकते हैं

विश्व के कुछ विकसित देश, विशेष रूप से अमेरिका और ब्रिटेन, भारत को समय समय पर आर्थिक क्षेत्र में अपना ज्ञान प्रदान करते रहे हैं। परंतु, अब विश्व के आर्थिक धरातल पर परिस्थितियां तेजी से बदल रही हैं और भारत की स्थिति इस संदर्भ में बहुत सुदृढ़ होती जा रही है वहीं विकसित देशों की स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है। अमरीका स्थित निवेश बैंकिंग एवं वित्तीय संस्थान भारत के कुल कर्ज की स्थिति पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहते रहे हैं कि भारत का कर्ज, सकल घरेलू उत्पाद की तुलना में, तेजी से बढ़ता जा रहा है। जबकि, इसी मापदंड के आधार पर अमेरिका एवं अन्य विकसित देशों की स्थिति देखी जाय तो भारत की तुलना में इन देशों की स्थिति बहुत अधिक दयनीय स्थिति में पहुंच गई है, परंतु यह देश भारत को आज भी ज्ञान देते नहीं चूकते हैं कि भारत अपनी स्थिति में किस प्रकार सुधार करे।

अमेरिका के कुल कर्ज की स्थिति यह है कि आज अमेरिका का कुल कर्ज 34 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर को पार करते हुए यह अमेरिका के सकल घरेलू उत्पाद (28 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर) का 123 प्रतिशत हो गया है, जो पूरे विश्व में समस्त देशों के बीच सबसे अधिक प्रतिशत है। अमेरिका आज प्रतिवर्ष अपने आय के कुल स्त्रोतों से अधिक ऋण ले रहा है। जब भी अमेरिकी सरकार को खर्च करने हेतु धन की आवश्यकता पड़ती है, वह बाजार में अमेरिकी बांड्ज जारी कर ऋण लेकर अपना काम चलाता है। यह बहुत ही गलत तरीका है परंतु अमेरिकी सरकार को आज भी इस बात की चिंता नहीं है। हालत यहां तक बिगड़ गए हैं कि अमेरिकी कानून द्वारा अमेरिकी सरकार के बाजार के ऋण लेने के लिए निर्धारित की गई अधिकतम सीमा भी पार हो जाती है एवं लगभग प्रत्येक तिमाही के अंतराल पर अमेरिकी संसद द्वारा ऋण लेने की इस अधिकतम सीमा को बढ़ाया जाता है, इसके बाद अमेरिकी सरकार बाजार से ऋण लेती है और अपने खर्चे चलाती है। यदि बाजार से ऋण लेने की सीमा को प्रत्येक तिमाही पश्चात अमेरिकी संसद द्वारा नहीं बढ़ाया जाय तो शायद अमेरिकी सरकार द्वारा अपने सामान्य खर्चों को चलाना ही असम्भव हो जाएगा। अमेरिका में आर्थिक क्षेत्र में हालत इस स्थिति में पहुंच गए हैं कि अमेरिकी सरकार को ऋण पर ब्याज का भुगतान करने के लिए भी बाजार से ऋण लेना पड़ रहा है। अमेरिकी सरकार द्वारा लगभग प्रत्येक 100 दिनों के अंतराल में 1 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का ऋण बाजार से लिया जा रहा है। ऋण पर अदा किए जाने वाले ब्याज की राशि आज अमेरिका के सुरक्षा बजट से भी अधिक हो गई है। आज प्रत्येक वर्ष अमेरिकी सरकार को 87,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर की राशि ऋण पर ब्याज के रूप में अदा करनी होती है जबकि अमेरिका का वार्षिक सुरक्षा बजट 82,200 करोड़ अमेरिकी डॉलर का है। उक्त परिस्थितियों के बीच अभी हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, जेपी मोर्गन चेज, बैंक आफ अमेरिका, ब्लैक रॉक, आदि वित्तीय संस्थानों के उच्च अधिकारियों  ने अमेरिकी सरकार को चेतावनी दी है कि वह इस प्रकार के तरीकों को अपनाने से बाज आए अन्यथा अमेरिकी अर्थव्यवस्था को डूबने से कोई बचा नहीं सकेगा और इसका प्रभाव पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था पर पड़े बिना नहीं रहेगा। अमेरिका का बढ़ता ऋण पूरे विश्व में ब्याज दरों को प्रभावित कर रहा है, इससे विश्व में कई देशों को ब्याज दरों को बढ़ाना पड़ रहा है और ऋण की लागत के साथ ही विनिर्माण इकाईयों की उत्पादन लागत भी बढ़ रही है। आज विश्व के कई देशों की अर्थव्यवस्थाएं,  वैश्वीकरण के इस युग में, आपस में जुड़ी हुई हैं एवं एक दूसरे को प्रभावित कर रही हैं। 

आज अमेरिका द्वारा अन्य देशों को ज्ञान देने के बजाय अपनी लगातार गर्त में जा रही अर्थव्यवस्था को सम्हालने के प्रयास करने चाहिए। अमेरिकी सरकार को अपने खर्चों पर नियंत्रण करते हुए अपने आय के साधनों को बढ़ाना चाहिए। न कि, भारत एवं अन्य विकासशील देशों को सीख दे कि ये देश अपने देश में किसानों को दी जा रही सब्सिडी/सुविधाओं में कटौती करें और अंतरराष्ट्रीय व्यापार करते समय अमेरिका द्वारा दी गई सलाह को ध्यान में रखें। आज अमेरिकी अर्थव्यवस्था की जो स्थिति है और विश्व के अन्य देश यदि अमेरिकी सलाह के अनुसार अपनी अर्थव्यवस्थाओं में आर्थिक सुधार कार्यक्रम लागू करते हैं तो सम्भव है कि इन देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर भी संकट के बादल मंडराने लगें। अमेरिका में पूंजीवाद पर आधारित अर्थव्यवस्था अब अंतिम सांसे लेती दिखाई दे रही है। यदि शीघ्र ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था को नहीं सम्हाला गया तो कई अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़े बिना नहीं रहेगा।

भारत में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों की संख्या को लेकर भी पश्चिमी जगत अपनी चिंता व्यक्त करता रहता है। हाल ही में ब्रिटेन के एक सांसद ने इस सम्बंध में अपनी राय प्रकट करते हुए कहा है कि भारत को गरीबों की संख्या को कम करने हेतु कुछ विशेष उपाय करने चाहिए। इस प्रकार की सलाह देने वाले विदेशी नागरिक यह भूल जाते हैं कि पिछले 10 वर्षों के दौरान भारत में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले नागरिकों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है और अब यह लगभग 10 प्रतिशत तक रह गई है। जब ब्रिटेन ने वर्ष 1947 में भारत छोड़ा था तब भारत को अति गरीब देश बनाकर छोड़ा था और भारत की 50 प्रतिशत से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही थी। और, आज ब्रिटेन में ही लगभग 18 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है। फिर, किस आधार पर ब्रिटेन एवं अन्य विकसित देशों के नागरिक, आर्थिक क्षेत्र में, भारत को सलाह देने लगते हैं। जबकि, भारतीय अर्थव्यवस्था चूंकि सनातन चिंतन पर आधारित आर्थिक नियमों का अनुपालन करते हुए आगे बढ़ रही है इसलिए भारतीय अर्थव्यवस्था आज इन देशों की तुलना में अधिक मजबूत दिखाई दे रही हैं। विकसित देशों को यदि अपनी आर्थिक समस्याओं को हल करना है तो साम्यवाद एवं पूंजीवाद पर आधारित आर्थिक नीतियों का परित्याग कर भारतीय आर्थिक दर्शन को अपनाकर अपनी आर्थिक समस्याओं का हल निकालने का प्रयास करना चाहिए, न कि समय समय अन्य देशों को इस सम्बंध में अपना ज्ञान बांटना चाहिए।          

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