भारत के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि आठ सौ वर्षों के निरन्तर आक्रमण के परिणाम स्वरूप हमारी चिन्तन प्रक्रिया बदल गई है। हम एक हजार वर्ष पूर्व जिन शब्दों को जिन अर्थों में ग्रहण करते थे आज ग्रहण कर पाने में असमर्थ हैं। इनमें एक सबसे महत्वपूर्ण शब्द धर्म है।
अब्राहमिक मजहबों के आक्रमणों के फलस्वरूप हमने धर्म को मजहब के पर्याय के रूप में प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया। वास्तविकता तो यह है कि उनके यहाँ धर्म जैसी कोई परिकल्पना है ही नहीं। धर्म एक वृहत्तर और व्यापक परिकल्पना है। धर्म परलोक पर आधारित नहीं लोक पर आधारित होता है। धर्म स्वयं के लिए ही नहीं सबके लिए होता है। धर्म की महत्ता उसकी व्यापकता पर निर्भर करती है। धर्म का कर्म स्वयं से प्रारम्भ होकर समष्टि में विलीन होता है। जो कर्म सभी के लिए और सबका है वही धर्म है।
धर्म की क्रिया मरने के बाद स्वर्ग के लिए नहीं जीते जी लोक के लिए होती है। धर्म प्रलोभन पर नहीं कर्तव्य पर आधारित होता है।
देवासुर संग्राम धर्म और अधर्म का युद्ध इसलिए था क्योंकि एक पक्ष कर्तव्य का था और दूसरा प्रलोभन का। प्रलोभन कर्म का स्वयं में यानी स्वार्थ में विसर्जन करता है और कर्तव्य कर्म का समष्टि में विसर्जन करता है। व्यक्ति के कर्म का आधार स्वार्थ से समष्टि की ओर जितना अधिक बढ़ता है वह उतना ही धार्मिक होता जाता है, इसलिए धर्म अलगाव की ओर नहीं बदलाव की ओर बढ़ता है। धर्म सबको समेटता है, सहेजता है और संयोजित करता है।
धर्म केवल कर्म पर निर्भर नहीं करता, बल्कि धर्म कर्म के आधार पर निर्भर करता है। एक ही कर्म अधर्म भी हो सकता है और धर्म भी हो सकता है। इसका विवेक केवल और केवल उसके आधिष्ठान पर निर्भर करता है, इसलिए कई बार शास्त्रों में कथाओं को लेकर लोग भ्रमित हो जाते हैं कि यह धर्म है या अधर्म है।
स्थूल वाह्य कर्म के आधार पर धर्म और अधर्म की कोई विभाजक रेखा नहीं है। धर्म और अधर्म का एक ही आधार है वह है उसके उद्देश्य की व्यापकता।
उपासना भी धर्म तभी है जब वह सभी के लिए हो और सबका हो। स्वयं के हित या गिरोह, समूह या संगठन के हित तक सीमित उपासना धर्म की श्रेणी में नहीं आती। धर्म के लिए उपासना के कर्म का अन्य कर्मों की तरह उसके अधिष्ठान पर विचार करना पड़ेगा। जिसमें सबकी चिन्ता नहीं है, सबका हित नहीं है, जो सबके लिए नहीं है वह धर्म नहीं है, इसलिए सनातन धर्म का पलन करने वाला हिन्दू समाज अपनी सभी उपासनाओं के पश्चात् ‘धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, विश्व का कल्याण हो, प्राणियों में सद्भाव हो’ का उद्घोष करता है। यहाँ यह नहीं कहा गया कि केवल मनुष्य का ही कल्याण हो या केवल मनुष्य में ही सद्भाव हो बल्कि, विश्व का कल्याण हो और सभी प्राणियों में सद्भाव हो तब धर्म की जय होती है और अधर्म का नाश होता है। अन्त में उद्घोष करके अपने संकल्प का पुनर्स्मरण इसलिए किया जाता है कि यह विदित हो कि हमने जो अनुष्ठान किया उसके पीछे का भाव और उद्देश्य धर्म है। यदि ऐसा नहीं है थो वह अनुष्ठान धर्म नहीं है।
धर्म परलोक के भोग का अनुबंध नहीं है और न ही धर्म कोई गिरोह है या संगठन है जो विभाजन की दीवार पर खड़ा हो। धर्म तो जगत का आधार है, संतुलन है और सामंजस्य है। धर्म ही समस्त संसार की प्रतिष्ठा का मूल है, इसीलिए कहा गया- “धर्मों विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा।”
– डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह