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त्योहार और परम्पराएँ

परम्पराएं पढ़ना भी सिखाती हैं। एक ख़ास आयातित विचारधारा के प्रभाव से शिक्षा का अच्छा ख़ासा नुकसान हुआ है। अभिभावकों को ये अच्छी तरह पता होता है कि स्कूल का पाठ्यक्रम उनके बच्चों को रट्टू तोता बना रहा है। जैसे रबी और खरीफ की फसलों का ही सोचिये, कौन सी कब उपजती-कटती है इसे याद क्यों करना पड़ता है? 14 जनवरी के आसपास मकर संक्रांति पर दही-चूड़ा खाने कि परम्परा है, नए धान की फसल उस वक्त आती है तो चूड़ा।

अप्रैल की शुरुआत का समय बिहार के लिए सतुआनी और मिथिलांचल में जूड़ शीतल नाम के पर्व का होता है। लिट्टी के अन्दर भरे होने, या घर से लौटते बिहारियों के पास होने के कारण जिस सत्तू को पहचाना जाता है, इस पर्व में उसे खाने की परम्परा है। अप्रैल दलहन की फसलों और गेहूं का समय होता है, इसलिए ये त्यौहार उससे जुड़ा है। परम्पराओं को पोंगापंथी बताने वालों को फसलों का समय रटना पड़ता है। ऐसे त्योहारों को मनाने वालों को अपने-आप ही पता होता है कि कौन सी फसल कब होती है।

#मिथिलांचल के जूड़ शीतल की महत्ता इसलिए भी है क्योंकि ये राजा सह्लेस की जयंती पर मनाया जाता है। स्थानीय मैथिलि भाषा में शायद शैलेष का अपभ्रंश सह्लेस हो गया है। स्थानीय गाँवों में सल्हेश पूजा के समय इनके भगत (जिसे भगता कहते है) खाली बदन पर लाल लंगोट, गले में माला , एक हाथ में अरबा चावल (यानि अक्षत) और दुसरे हाथ में बेंत लिए झूमते हैं। झाल और ढोल जैसे पारम्परिक वाद्ययंत्रों की धुन पर सल्हेश के माध्यम से पारलौकिकता का अनुभव करते हैं।

गह्वर के सामने मिटटी का अंग्रेजी अक्षर “E” के जैसा पिंड बनाया जाता है। इसके बगल में बेदी बनायीं जाती है। पूजा में प्रयुक्त सामग्री भी स्थानीय है जैसे कनेल के फुल, चीनी के लड्डू, पान-सुपारी के बिना तो मिथिला में कुछ भी नहीं होता। भगता गांजा भी इस्तेमाल करते और चढ़ाते हैं। वहीँ खैनी चढ़ाई जाती है, अरबा चावल, फलों के साथ वहां जनेऊ भी होता है ! भगता के ऊपर बारी-बारी से सल्हेश एवं उनके पार्षदों के भाव आते हैं। प्रसाद अक्षत लेकर भगता देखने (खेलने) जुटे लोग लौटते हैं।

प्रसाद में चढ़ा खीर, भगता के भोजन के लिए होता है और वो पूजा की शुरुआत लोकदेवताओं के आह्वान से करता है। मिथिलांचल में इसे भगता खेलना कहते हैं और इलाके के दो चार बूढ़े-बुजुर्गों को छोड़ दें तो भगत को कोई उसके नाम से जानता या बुलाता नहीं, उसे भगता ही कहा जाता है। राजा सह्लेस महत्वपूर्ण क्यों होते हैं ये मिथिलांचल के बाहर ढूंढना-जानना थोड़ा मुश्किल इसलिए हो जाता है क्योंकि बिहार राज्य को मिथिलांचल की भाषा और परम्पराओं को कुचलने-दबाने में मज़ा आता है।

प्रोफेसर राधाकृष्ण चौधरी की किताब “मिथिला इन द ऐज ऑफ़ विद्यापति” में राजा सह्लेस की पूजा परम्पराओं का उल्लेख आता है। मिथिलांचल शब्द के उच्चारण मात्र पर सीधा राजा जनक पर कूदकर, अहो-महो करते, बिलकुल भगता की ही तरह लोटने को प्रस्तुत होते लोग भी आमतौर राजा सह्लेस (शैलेष) का नाम नहीं बताते इसलिए अगली पीढ़ियों को भी उनका कम पता होगा। राजा सह्लेस (शैलेष) का महत्व इसलिए होता है क्योंकि तिब्बत की ओर से होने वाले आक्रमणों उन्होंने सामना किया था।

राजा सह्लेस (शैलेष) का राज्य और राजधानी (महिसौथा-सिराहा) आज के नेपाल में आता है। इनके पिता सोमदेव और माँ का शुभ गौरी थीं, विराटनगर के राजा की बेटी से इनके विवाह का जिक्र मिलता है। पहले इनका नाम जयवर्धन था और राजतिलक के समय नाम सह्लेस (शैलेष) हुआ। इनके एक और भाई भी थे और बहन का नाम बनसपती (वनस्पति) था। मिथिलांचल के राजा सह्लेस और जूड़ शीतल के बारे में लिखने के पीछे कारण सिर्फ #मिथिला परम्पराओं को सामने लाना नहीं था, एक और हिडन एजेंडा भी था।

बिहार की अनुसूचित जातियों में से एक “दुसाध” (पासवान) भी है। पूजा में जनेऊ चढ़ने, सभी लोगों के जुड़ शीतल मनाने के बारे में इतनी मेहनत से इसलिए बताया क्योंकि राजा सह्लेस (शैलेष) और उनका पुजारी भगता, दोनों इसी बिरादरी से आते हैं। बाकी रामविलास पासवान जैसे हर सरकार में मंत्री रहे बड़े नेताओं को तो छोड़िये, स्थानीय विधायक, वार्ड कमिश्नर, ग्राम-पंचायत वालों को भी कभी एक ट्वीट तक करके जुड़ शीतल की बधाई देते नहीं देखा, वो अलग बात है।

जुड़ शीतल और ऐसे ही अलग-अलग इलाकों के अपने-अपने स्थानीय पर्वों की हार्दिक शुभकामनाएं!
✍🏻आनन्द कुमार

सतुआनी!!

आज सतुआनी है। आज याद करूँ तो सबसे पहले याद आता है टुइयाँ और उसके साथ लम्बी गरदन वाला सुराही। और ये सब लाने वाली मईया।

टुइयाँ समझने में यदि समस्या हो रही हो तो आप लोग करवा को याद कर लीजिए। मिट्टी का करवा। वो नलके सी टोंटी वाला।

मईया गंगाजी नहाने जाती थी और पूजा-पाठ, दान-पुण्य क्या करती थी सो तो मालूम नहीं। पर हम तीनों भाई-बहनों के लिए टुइयाँ जरूर लाती थी। एक छोटी सुराही भी होती थी उसके हाथ में। बूट-गुड़ का प्रसाद मिलता था और फिर हम होते थे और हमारा टुइयाँ!

टुइयाँ में पानी भरा जाता था। फिर शुरू होता था पानी के ठंडे होने का इंतजार। बार-बार टोंटी से पानी सुड़क-सुड़क के चेक करना पड़ता था कि पानी ठंढा हो भी रहा है कि नहीं🤔। बड़ी मुश्किल से पाँच मिनट गुजारे जाते थे कि बड़ी जोर से प्यास लग आती थी। तब हमलोग को पानी पीना पड़ जाता था। 😎उस के बाद फिर दोबारा से सेम यही सिलसिला चालू हो जाता जब तक कि टुइयाँ टूट नहीं जाये।

जहाँ-जहाँ हम वहाँ-वहाँ टुइयाँ। छत पर, सीढ़ियों पर, बरामदे में, कमरे में। फिर बेचारा टुइयाँ हमलोगों की मेहनत से आजिज आ के एक के बाद एक टें बोल जाता था और हम तीनों को शांति पड़ जाता था।

खैर ये तो हुई बचपन की यादें। जब कि मिट्टी का एक अदना सा बरतन भी टोकरा भर खुशी दे जाता था। लेकिन ध्यान से देखा जाए तो हम हिन्दू लोग बच्चों से कोई कम उत्सवप्रिय नहीं हैं। छोटी छोटी बात में खुशी मनाने का एक आयोजन कर लेते हैं। हमारा पंचांग उत्सवधर्मिता और वैज्ञानिकता का समन्वय कर देता है।

तो वैज्ञानिक कारण ये कि आज से सूर्य मीन राशि से चल कर मेष राशि में प्रवेश कर जाएंगे। और हिन्दू कैलेंडर के हिसाब से आज से ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत हो जाएगी।

और खुशी की बात ये कि आज से खरमास समाप्त हो जायेगा और सभी मांगलिक कार्यों की शुरुआत हो जाएगी।और आज से घड़े का ठंढा पानी पीने का पानी मिलेगा सो अलग।😊
सो आज के दिन को बिहार और झारखंड में सतुआनी या बिसुआ के नाम से मनाया जायेगा।

मेष संक्रांति का यह पर्व असम में बिहू, बंगाल में पोइला बैशाख, पंजाब में बैसाखी, तमिलनाडु में पुदुवर्षम (अर्थात नववर्ष), मध्यवर्ती राज्यों में सतुआ संक्रांति, और जूड़ि शीतल के नाम से भी मनाया जाता है।

बिहार में सतुआनी के दिन गंगा स्नान-दान का विशेष महत्व होता है.

श्रद्धालु आज गंगा स्नान कर सत्तू व गुड़ की पूजा कर उसका सेवन करते हैं. साथ ही टिकोला यानि कच्चा आम भी खाना शुभ माना जाता है. इस समय तक नया सत्तू भी आ जाता है। यह और छोटे आम के टिकोले से बनी चटनी शरीर को ठंडक प्रदान करने के साथ सुपाच्य भी होती है, इसलिए सतुआनी में नया सत्तू खाने का रिवाज है।

बिहार के गांवों में देवी मंदिर में पूजा करने के बाद जौ और बूट यानी चना का सत्तू आम की चटनी के साथ खाया जाता है।

आज ही से घड़ों में पानी रखा जाने लगेगा। शरीर को ठंढक देने वाले आहार लेने की शुरुआत हो जाएगी।

मेष संक्रांति और ठेठ बिहार की संस्कृति का प्रतीक पर्व सतुआनी की आप सबों को शुभकामनाएं।
✍🏻कल्याणी मंगला गौरी

संक्रांति सतुआन बैसाखी से अपर प्रतिरूप Alter Ego तक

प्रत्येक वर्ष प्रतिपदा चै. शु. 1 युगादि नवसंवत्सर आता है, प्रत्येक वर्ष बैसाखी भी आती है जिसे देश के कई भागों में विविध नामों से नववर्ष के रूप में मनाया जाता है।
प्रत्येक वर्ष बहुत से लोग यह प्रश्न भी पूछते हैं कि यह क्या चक्कर है? कुछ पञ्चाङ्ग एवं पण्डितों को कोसने भी लगते हैं।
कोई चक्कर वक्कर नहीं है बल्कि अनेक नववर्ष भारत की प्राचीनता एवं रंग बिरंगे वैविध्य के प्रमाण हैं।
वर्ष का सम्बंध पृथ्वी से दिखती सूर्य की आभासी वार्षिक गति, ऋतुओं एवं कृषि चक्र तथा उससे जुड़े व्यवसायों से है। उत्तरी गोलार्द्ध में सूर्य जब अपने अधिकतम दक्षिणी झुकाव पर होते हैं तो सबसे लघु दिन एवं सबसे तिर्यक किरणपात के कारण जाड़े का समय अपने चरम पर होता है। दक्षिण से उत्तर की ओर चढ़ने लगते हैं तो ऋतु की कठोरता के क्रमश: लुप्त होने की आस बँधती है – नवजीवन, शीत मृत्यु है, ऊष्मा प्राण। प्रेक्षण की दृष्टि से भी वह समय बहुत उपयुक्त रहता है। इन सब कारणों से कभी उत्तरायण के समय ही नववर्ष होता था, पुराने समय के माघ मास में। जो भी कैलेण्डर पूर्णत: सौर गति पर आधारित होगा उसमें यह घटना एक निश्चित दिनाङ्क को होगी, आज कल 21/22 दिसम्बर।
हुआ क्या कि जब लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले हमने नक्षत्र पद्धति के साथ राशि पद्धति अपनायी तो उत्तरायण संक्रांति अर्थात मकर राशि वाले क्षेत्र में सूर्य के प्रवेश से जोड़ दिया गया। लट्टू की भाँति घूमती पृथ्वी की उत्तर दिशा की किसी नक्षत्र या तारे की सीध लगभग 25792 वर्ष की लम्बी आवृत्ति से दोलन करती रहती है।
इस कारण संक्रांति एवं उत्तरायण का सम्पात समाप्त होता गया, आज 24 दिनों का अंतर आ गया है। 14 जनवरी को संक्रांति तो मनायी जाती है किंतु वह उत्तरायण से 24 दिनों के अंतर पर होती है।
एक दूसरा नववर्ष वसंत ऋतु में होता है जबकि समूची धरा नवरस नववसन धारण कर रही होती है। उस ऋतु में कभी वेदाध्यायी वटुकों का उपनयन किया जाता था, श्रौत सत्र नये पुराने किये जाते थे। 22 दिसम्बर से बढ़ते हुये जब सूर्य आज के 20/21 मार्च तक पहुँचते हैं तो दिन रात लगभग सम हो जाते हैं, ठीक पूरब में उदय, ठीक पश्चिम में अस्त। ऐसा दिन नववर्ष के लिये उत्तम माना गया – वसंत विषुव, आजकल महाविषुव भी कहते हैं।
समस्या यह हुई कि चंदामामा की गति से चलने वाले मास नाम सौर-चंद्र पञ्चाङ्ग की देन थे। अपनी कलाओं में घटते बढ़ते चंद्रमा तिथि के लिये आकाश में वैसे ही कैलेण्डर की भाँति थे जैसे आज कल घर की भीति पर टँगा कैलेण्डर होता है। उसके निकट की शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को नववर्ष का आरम्भ माना गया जोकि प्रेक्षण एवं आनुष्ठानिक कारणों से भी उपयुक्त था। वही हुआ युगादि, गुड़ी पड़वा, चैत्र नवसंवत्सर का प्रथम दिन।
ऐसे में सौर कैलेण्डर वाले कैसे पीछे रहते? उन्होंने कहा, न जी, हम तो उसके निकट की सूर्य संक्रांति से नववर्ष मानेंगे। उसके निकट की संक्रांति हुई मेष संक्रांति अर्थात जिस दिन सूर्य मीन राशि से मेष राशि में प्रवेश करते दिखें। प्राचीनकाल होता तो ठीक वही दिन विषुव का दिन मनाते किंतु अब पुन: 24 दिनों का अंतर हो गया। बैसाखी प्रत्येक वर्ष आज के 13 अप्रैल को ही पड़ती है, सतुवान भी 13/14 अप्रैल को, 20/21 मार्च से लगभग 24 दिन पश्चात जिसका कि चंद्रगति से कोई सम्बन्ध नहीं।
जनस्मृति में अब भी उत्तरायण एवं विषुव, बीसू, बीहू आदि बने हुये हैं जो वस्तुत: संक्रांतियों से प्रतिस्थापित हो चुके हैं।

~ बिहने सतुवानि ह ‍~ बैसाखी, सौर नववर्ष

भारत में पञ्चाङ्गों की बड़ी समृद्ध परम्परा रही। एक साथ सौर एवं सौर-चंद्र तथा शीत अयनान्त एवं बसन्‍त विषुव के साथ आरम्भ होने वाले पञ्चाङ्ग प्रचलित रहे। जन सामान्य में चंद्र आधारित महीने यथा चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ इत्यादि ही प्रचलित रहे जोकि पूर्णिमा के दिन चंद्रमा की नक्षत्र विशेष के साथ संगति पर आधारित थे, यथा चैत्र में चित्रा पर, वैशाख में विशाखा पर। चंद्र की घटती बढ़ती कलाओं से बीतते दिनों की गिनती में सुविधा रहती थी।
सौर आधारित महीने मधु, माधव इत्यादि मुख्यत: श्रौत सत्र आधारित गतिविधियों में प्रचलित रहे जिनकी चंद्र आधारित महीनों से संगति जन सामान्य में भी प्रचलित थी यथा चैत्र का महीना मधु है। तुलसीदास ने लिखा – नवमी तिथि मधुमास।
ग्रेगरी का प्रचलित कैलेण्डर सौर गति आधारित है जिसका चंद्र कलाओं से कोई सम्बंध नहीं। आप के यहाँ जो अब संक्रांतियाँ मनाई जाती हैं, वे भी सूर्य गति से सम्बंधित हैं जिनका चंद्र कलाओं से कोई सम्बंध नहीं। इस कारण ही मकर संक्रांति प्रति वर्ष 14/15 जनवरी को ही पड़ती है तथा मेष संक्रांति 13/14 अप्रैल को।
मेषादि राशिमाला का प्रथम बिंदु होने से यह सौर नव वर्ष होता है जिसे सतुवानि के रूप में भोजपुरी क्षेत्र में मनाया जाता है तो तमिलनाडु में नववर्ष के रूप में। पञ्जाब में बैसाखी के रूप में मनाया जाता है।
रबी की सस्य के अन्न से जुड़े इस पर्व में जौ, चना इत्यादि का सत्तू ग्रहण करने का पूरब में प्रचलन है।
अब आप पूछेंगे कि तब युगादि वर्ष प्रतिपदा क्या थी? नाम से ही स्पष्ट है – चंद्र मास का पहला दिन अर्थात वह नववर्ष चंद्र-सौर पञ्चांग से है। दोनों में क्या समानता है या दोनों कैसे सम्बंधित हैं?
उत्तर है कि दोनों वसंत विषुव के दिन के निकट हैं जब कि सूर्य ठीक पूरब में उग कर ठीक पश्चिम में अस्त होते हैं। यह 20 मार्च को पड़ता है, उसके निकट की पूर्णिमा को चंद्र चित्रा पर होते हैं तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा चंद्र-पञ्जाङ्ग से नववर्ष होती है।
20/21 मार्च से 13/14 अप्रैल के बीच ~ 24 दिनों का अंतर है तो शीत अयनांत 21/22 दिसम्बर से 14/15 जनवरी के बीच भी इतने ही दिनों का। ऐसा क्यों है?
वास्तव में हमलोग उत्तरायण मनाते थे, उसे सूर्य के अधिकतम दक्षिणी झुकाव से उत्तर के दिन से मानने का प्रचलन था तो वासंती विषुव के सम दिन से उत्तर की ओर बढ़ने का दिनांक भी महत्त्वपूर्ण था।
जब 27 नक्षत्र आधारित गणना पद्धति में 12 राशि आधारित गणना पद्धति का प्रवेश हुआ तो उस समय मकर संक्रांति एवं मेष संक्रांतियाँ क्रमश: शीत अयनांत 21/22 दिसम्बर एवं वसंत विषुव 20/21 मार्च की सम्पाती थीं अर्थात सम्बंधित संक्रांति, अयन, विषुव एक ही दिन पड़ते थे।
12 राशियों में सूर्य की आभासी गति का प्रेक्षण 27 की अपेक्षा सरल था जिसे तत्कालीन ज्योतिषियों ने बढ़ावा भी दिया। सदियों में लोकस्मृति में संक्रांतियाँ ही रह गयीं, उत्तरायण को लोग उनसे ही जानते लगे किंतु धरती की धुरी की एक विशिष्ट गति के कारण सम्पात क्रमश: हटता जा रहा है। अब अंतर ~24 दिनों का हो गया है जो आगे बढ़ता ही जायेगा।

गणित हो गया, अब प्रेक्षण।
सतुवान के दिन प्रात: साढ़े चार बजे उठ कर पूर्व उत्तर दिशा में देखें। तीन चमकते तारे दिखेंगे – सबसे ऊपर अभिजित, नीचे हंस एवं गरुड़ नक्षत्र मण्डल के सबसे चमकीले तारे। इन तीनों को मिला कर जो त्रिभुज बनता है उसे ‘ग्रीष्म त्रिभुज’ कहते हैं। अप्रैल आधा बीत गया। मई जून की झुलसाती धूप तो आने वाली है न, बैसाख जेठ की तपन के पश्चात आषाढ़ सावन भादो की झड़ी भी आयेगी।
वर्ष को वर्षा से ही नाम मिला। किसी विश्वामित्र के पत्रे में 21 जून से नववर्ष मिल जाय तो आश्चर्य चकित न हों, उस दिन ग्रीष्म अयनांत होता है, सूर्य देव अधिकतम उत्तरी झुकाव से दक्षिण की यात्रा आरम्भ करते हैं अर्थात घनघोर बरसते पर्जन्य की भूमिका। मानसून कब प्रबल होता है?
वर्षा न हो तो धरा कैसे तृप्त हो? स्थावर जङ्गम को जीवन कैसे मिले? हरियाली कैसे हो?
21 जून से नववर्ष मनाने की तुक तो है ही, देखें तो उसके निकट कौन सी संक्रांति है? कहीं मनायी जाती है क्या?
✍🏻सनातन कालयात्री श्री गिरिजेश राव

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