चारधाम सड़क परियोजना, चारधाम रेल प्रस्ताव, सम्मेद शिखर और अब गंगा विलास – तीर्थों को पर्यटकों के लिए खोलने का उत्साह पर्यावरणीय पैमाने पर खतरनाक साबित हो सकता है। क्या करें ? आइए, मंथन करें।गंगा विलास नहीं, नदी तीर्थ : तीर्थ गांव
लेखक: अरुण तिवारी
दिलचस्प है कि हमारा घूमना-घुमाना, आज दुनिया के देशों को सबसे अधिक विदेशी मुद्रा कमाकर देने वाला उद्योग बन गया है। विश्व आर्थिक फोरम का निष्कर्ष है कि भारतीय पर्यटन उद्योग में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 25 फीसदी तक योगदान करने की क्षमता है; वह भी गांवों के भरोसे। फोरम मानता है कि भारत के गांव विरासत, संस्कृति और अनुभवों के ऐसे महासागर है, जिन तक पर्यटकों की पहुंच अभी शेष है। गांव आधारित प्रभावी पर्यटन को गति देकर, भारत वर्ष 2027 तक प्रति वर्ष 150 लाख अतिरिक्त पर्यटकों को आकर्षित करने की क्षमता हासिल कर सकता है। इस तरह वह 25 अरब अमेरिकी डॉलर की अतिरिक्त विदेशी मुद्रा अर्जित कर सकता है। इसके लिए भारत को अपने 60 हज़ार गांवों में कम से कम एक लाख उद्यमों को गतिशीलता प्रदान करनी होगी। यह भारत में ग्रामीण पर्यटन के विकास की पूर्णतया वाणिज्यिक दृष्टि है। भारतीय दृष्टि भिन्न है।
भ्रमण की भारतीय दृष्टि
भ्रमण तो कई जीव करते हैं, किंतु मानव ने अपने भ्रमण का उपयोग अपने अंतर्मन और अपने बाह्य जगत का विकास के लिए किया। बाह्य जगत का विकास यानी सभ्यता का विकास और अंतर्मन का विकास यानी सांस्कृतिक विकास। इसीलिए मानव अन्य जीवों की तुलना में, अधिक जिज्ञासु, अधिक सांस्कृतिक, अधिक हुनरमंद और अधिक विचारवान हो सका; अपनी रचनाओं का विशाल संसार गढ़ सका। स्पष्ट है कि भ्रमण, मनुष्य के लिए मूल रूप से सभ्यता और संस्कृति.. दोनो को पुष्ट करने का माध्यम रहा है। भ्रमण की भारतीय दृष्टि का मूल यही है। इसी दृष्टि को सामने रखकर भारतीय मनीषियों ने भिन्न उद्देश्यों के आधार पर भ्रमण को पर्यटन, तीर्थाटन और देशाटन के रूप में वर्गीकृत किया है और तीनों को अलग-अलग वर्गों के लिए सीमित किया है। भ्रमण के इस वर्गीकरण तथा दृष्टि को यदि हम बचाकर रख सकें तो बेहतर होगा; वरना हमारे गांवों के भ्रमण में जैसे ही पूर्णतया नई वाणिज्यिक दृष्टि का प्रवेश होगा, हमारा भ्रमण तात्कालिक आर्थिक लाभ का माध्यम तो बन जाएगा, किंतु भारतीय गांवों को लम्बे समय तक गांवों के रूप-स्वरूप में बचा रखना असंभव हो जायेगा। भारतीय गांवों के बचे-खुचे रूप-स्वरूप के पूरी तरह लोप का मतलब होगा, भारत की सांस्कृतिक इकाइयों का लोप हो जाना। सोचिए कि क्या यह उचित होगा ?
तीर्थ भाव से हो ग्राम्य पर्यटन का विकास
हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत के गांव महज् सामाजिक इकाइयां न होकर, पूर्णतया सांस्कृतिक इकाइयां हैं। हमारे गांवों की बुनियाद सुविधा नहीं, रिश्तों की नींव पर रखी गई है। भारतीय गांवों में मौजूद कला, शिल्प, मेले, पर्व आदि कोई उद्यम नहीं, बल्कि एक जीवन शैली हैं। बहुमत भारत आज भी गांवों में ही बसता है। इसीलिए आज भी कहा जाता है कि यदि भारत को जानना हो तो भारत के गांवों को जानना चाहिए। रिश्ते-नाते, संस्कृति, विरासत और अपनी प्राकृतिक धरोहरों को संजोकर रखने के कारण भारत के 60 हज़ार गांव अभी भी तीर्थ ही हैं। तीर्थाटन – तीर्थयात्रियों से सादगी, संयम, श्रद्धा और अनुशासन की मांग करता है। तीर्थयात्री से लोभ-लालच, छल-कपट की अपेक्षा नहीं की जाती। भारतीय गांवों में पर्यटन और पर्यटकों के रुझान का विकास इसी भाव और अपेक्षा के साथ करना चाहिए। नदियां, इस भाव को पुष्ट करने का सर्वाधिक सुलभ, सुगम्य और प्रेरक माध्यम हैं और आगे भी बनी रह सकती हैं। क्यों ? क्योंकि भारत की नदियां आज भी अपनी यात्रा की ज्यादातर दूरी ग्रामीण इलाकों से गुजरते हुए तय करती हैं; क्योंकि नदियां आज भी भारतीय संस्कृति व सभ्यता की सर्वप्रिय प्रवाह हैं।
नदी पर सवार संभावना
गौर कीजिए कि भारत, नदियों का देश है। सिंधु, झेलम, चेनाब, रावी, सतलुज, ब्यास, मेघना, गंगा, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी ..नर्मदा, ब्रह्मपुत्र, तुंगभद्रा, वैगई, महानदी, पेन्नर, पेरियार, कूवम, अडयार, माण्डवी, मूसी, मीठी, माही, वेदवती और सुवर्णमुखी…गिनती गिनते जाइए. कि भारत में नदियां ही नदियां हैं। मरुभूमि होने के बावजूद, राजस्थान 50 से अधिक नदियों का प्रदेश है। राजस्थान के चुरु और बीकानेर को छोड़कर, भारत में शायद ही कोई ज़िला ऐसा हो, जहां नदी न हो। भारत के हर प्रखण्ड के रिकॉर्ड में आपको कोई न कोई छोटी-बड़ी नदी लिखी मिल जायेगी। भारत में शायद ही कोई गांव हो, जिसका किसी न किसी नदी से सांस्कृतिक रिश्ता न हो। मुण्डन से लेकर मृत्यु तक; स्नान से लेकर पूजन, पान, दान तक; पर्व, परिक्रमा से लेकर मेले तक, सन्यास, शिष्यत्व से लेकर कल्पवास तक; सभी कुछ नदी के किनारे। हर नदी के अपने कथानक हैं; गीत-संगीत हैं; लोकोत्सव हैं। भैया दूज, गंगा दशहरा, छठ पूजा, मकर सक्रान्ति पूरी तरह नदी पर्व हैं। गंगा के किनारे वर्ष में 21 बार स्नान पर्व होता है। गंगा, शिप्रा और गोदावरी के किनारे लगने वाले कुंभ में बिना बुलाए करोड़ों जुटते आपने देखे ही होंगे। 14 देवताओं को सैयद नदी में स्नान कराने के कारण खारची पूजा (त्रिपुरा) तथा मूर्ति विसर्जन के कारण गणेश चतुर्थी, दूर्गा पूजा, विश्वकर्मा पूजा आदि पर्वों का नदियों से रिश्ता है। नदियां योग, ध्यान, तप, पूजन, चिंतन, मनन और आनंद की अनुभूति की केन्द्र हैं ही। नदी में डुबकी लगाते, राफ्टिंग-नौका विहार करते, मछलियों को अठखेलियां लेते हुए घंटों निहारते हमें जो अनुभूति होती है, वह एक ऐसा सहायक कारक है, जो किसी को भी नदियों की ओर आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है। किंतु इस पूरे आकर्षण को नदी, गांव और नगर के बीच के सम्मानजनक रिश्ते की पर्यटक गतिविधि के रूप में विकसित करने के लिए कुछ कदम उठाने ज़रूरी होगे :
ज़रूरी कदम
1. नदी केन्द्रित ग्राम्य पर्यटन को विकसित करने के लिए नदियों को अविरल-निर्मल तथा गांवों को स्वच्छ-सुन्दर बनाना सबसे पहली ज़रूरत होगी। एशिया का सबसे स्वच्छ गांव का दर्जा प्राप्त होने के कारण ही मेघालय का गांव मावलिन्नांग, आज पर्यटन का नया केन्द्र बन गया है।
2. नदी-ग्राम्य पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए नदियों को उनकी विशेषताओं के साथ प्रस्तुत करना शुरू करना होगा; जैसे सबसे छोटा आबाद नदी द्वीप – उमानंद, भारत का सबसे पहला नदी द्वीप ज़िला – माजुली, स्वच्छ नदी – चम्बल, भारत का सबसे वेगवान प्रवाह – ब्रह्मपुत्र, सबसे पवित्र प्रवाह – गंगा, एक ऐसी नदी जिसकी परिक्रमा की जाती है – नर्मदा, ऐसी नदी घाटी जिसके नाम पर सभ्यता का नाम पड़ा – सिंधु नदी घाटी, नदियां जिन्हे स्थानीय समुदायों ने पुनर्जीवित किया – अरवरी, कालीबेंई, गाड गंगा।
3. सच पूछो तो भारत की प्रत्येक नदी की अपनी भू-सांस्कृतिक विविधता, भूमिका और उससे जुड़े लोक कथानक, आयोजन व उत्सव हैं। नुक्कड़ नाटक, नृत्य-नाट्य प्रस्तुति, नदी सम्वाद, नदी यात्राओं आदि के ज़रिए आगुन्तकों को इन सभी से परिचित कराना चाहिए। गंगा, ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, नर्मदा.. छह मुख्य नदियों को लेकर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र ने यह शुरुआत की है। इससे न सिर्फ नदियों के प्रति चेतना, जन-जुड़ाव व दायित्वबोध बढे़गा, बल्कि नदी आधारित ग्रामीण पर्यटन को अधिक रुचिकर बनाने में भी मदद मिलेगी।
4. नदी पर्यटन का वास्तविक लाभ गांवों को तभी मिलेगा, जब नदी पर्वों-मेलों के नियोजन, संचालन और प्रबंधन में स्थानीय ग्रामीण समुदाय की सह-भागिता बढ़े। इसके लिए स्थानीय गांववासियों को ज़िम्मेदार भूमिका में आने के लिए प्रेरित, प्रशिक्षित और प्रोत्साहित करना ज़रूरी होगा।
5. केरल ने ग्राम्य जीवन के अनुभवों से रुबरु कराने को अपनी पर्यटन गतिविधियों से जोड़ा है। नदी आयोजनों को भी स्थानीय ग्राम्य अनुभवों, कलाओं, आस्थाओं आदि से रुबरु कराने वाली गतिविधियों से जोड़ा जाना चाहिए। स्थानीय खेल-कूद, लोकोत्सव तथा परम्परागत कला-कारीगरी-हुनर प्रतियोगिताओं के आयोजन तथा ग्रामीण खेत-खलिहानों, घरों के भ्रमण, इसमें सहायक होंगे।
6. उत्तर प्रदेश के ज़िला गाजीपुर में गंगा किनारे स्थित गांव गहमर, एशिया का सबसे बड़ा गांव भी है और फौजियों का मशहूर गांव भी। फौज में भर्ती होना, यहां एक परम्परा जैसा है। नदियों किनारे बसे अनेकानेक गांव ऐसी अनेकानेक खासियत करते हैं। नदी किनारे के ऐसे गांवों की खूबियों से लोगों को रुबरु होना, क्या अपने आप में एक दिलचस्प अनुभव नहीं होगा ? नदी-गांव पर्यटन विकास की दृष्टि से क्या यह एक आकर्षक पर्यटन विषय नहीं हो सकता ? इसे नदी-गांव यात्रा के रूप में अंजाम दिया जा सकता है।
7. भारत की अनेकानेक हस्तियों , विधाओं का जन्म गांवों में ही हुआ है। माउंट एवरेस्ट फतेह करने वाली प्रथम भारतीय पर्वतारोही बछेन्द्रीपाल का गांव नाकुरी, मिसाइलमैन अब्दुल कलाम का गांव रामेश्वरम्, तुलसी-कबीर-रहीम-प्रेमचंद के गांव, कलारीपयट्टु युद्धकला का गांव, पहलवानों का गांव, प्राकृतिक खेती का गांव, मुक़दमामुक्त-सद्भावयुक्त गांव आदि आदि। ऐसी खूबियों वाले गांवों की लड़ियां बनाकर ग्राम्य पर्यटन विकास के प्रयास भी गांव-देश का हित ही करेंगे। अतुल्य भारत – विचार पर काम हुआ है। ‘अतुल्य नदी: अतुल्य गांव’ के इस प्रस्तावित नारे के आधार पर भी तीर्थ विकास के बारे विचार करना चाहिए। इसके ज़रिए नगरवासियों की गांवों के प्रति समझ भी बढे़गी, सम्मान भी और पर्यटन भी। ऐसे गांव प्रेरक भूमिका में आ जायेंगे; साथ ही उनकी खूबियों का हमारे व्यक्तित्व व नागरिकता विकास में बेहतर ढंग से हो सकेगा। हां, ऐसे गांवों को उनकी खूबियों के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए तैयार रखने की व्यवस्थापरक ज़िम्मेदारी स्थानीय पंचायतीराज संस्थानों तथा प्रशासन को लेनी ही होगी। पर्यटन, संस्कृति तथा पंचायतीराज विभाग मिलकर ऐसे गांवों के खूबी विशेष आधारित विकास के लिए विशेष आर्थिक प्रावधान करें तो काम आसान हो जायेगा। इसके बहुआयामी लाभ होंगे।
8. नदी आयोजनों में होटल और बड़ी-बड़ी फैक्टरियों में बनी वस्तुओं से अटे पडे़ बाज़ार की जगह, स्थानीय मानव संसाधन, परिवहन, ग्रामीण आवास, स्थानीय परंपरागत खाद्य व्यंजनों के उपयोग को प्राथमिकता देने की नीति व योजना पर काम करना चाहिए। इसके लिए जहां गांवों को इस तरह के उपयोग से जुड़ी सावधानियों के प्रति प्रशिक्षित करने की ज़रूरत होगी, वहीं बाहरीपर्यटकों में नैतिकता, अनुशासन, जिज्ञासु व तीर्थाटन भाव का विकास भी ज़रूरी होगा।
9. कुम्भ अपने मौलिक स्वरूप में सिर्फ स्नान पर्व न होकर, एक मंथन पर्व था। कुम्भ एक ऐसा अवसर होता था, जब ऋषि, अपने शोध, सिद्धांत व अविष्कारों को धर्म समाज के समक्ष प्रस्तुत करते थे। धर्म समाज उन पर मंथन करता था। समाज हितैषी शोध, सिद्धांत व अविष्कारों को अपनाने के लिए समाज को प्रेरित व शिक्षित करने का काम धर्मगुरुओं का था। राजसत्ता तथा कल्पवासियों के माध्यम से यह ज्ञान, समाज तक पहुंचता था। समाज अपनी पारिवारिक-सामुदायिक समस्याओं के हल भी कल्पवास के दौरान पाता था। एक कालखण्ड ऐसा भी आया कि जब कुम्भ, समाज की अपनी कलात्मक विधाओं तथा कारीगरी के उत्कर्ष उत्पादों की प्रदर्शनी का अवसर बन गया। कुम्भ को पुनः सामयिक मसलों पर राज-समाज-संतों के साझे मंथन तथा वैज्ञानिक खोजों, उत्कर्ष कारीगरी व पारम्परिक कलात्मक विधाओं के प्रदर्शन का अवसर बनाना चाहिए। इससे गांव-नदी पर्यटन के नज़रिए को ज्यादा संजीदा पर्यटक मिलने तो सुनिश्चित होंगे ही कुम्भ, देश-दुनिया को दिशा देने वाला एक ऐसा आयोजन बन जायेगा, जिसमें हर कोई आना चाहे।
10. नदियों के उद्गम से लेकर संगम तक तीर्थ क्षेत्र, पूजास्थली, तपस्थली, वनस्थली, धर्मशाला और अध्ययनशालाओं के रूप में ढांचागत् व्यवस्था पहले से मौजूद है। भारत में कितने ही गांव हैं, जहां कितने ही घर, कितनी ही हवेलियां वीरान पड़ी हैं। नदी-गांव पर्यटन में इनके उपयोग की संभावना तलाशना श्रेयस्कर होगा।
11. हां, इतनी सावधानी अवश्य रखनी होगी कि नदी-गांव आधारित कोई भी पर्यटन गतिविधि, उपयोग किए गए संसाधन तथा प्रयोग किए गए तरीके सामाजिक सौहार्द, ग्रामीण खूबियों और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले न हों। सुनिश्चित करना होगा कि पर्यटन गांव व नदी संसाधनों की लूट का माध्यम न बनने पाये। गांव-नदी पर्यटन को नगरीय पर्यटन की तुलना में कम खर्चीला बनाने की व्यवस्थात्मक पहल भी ज़रूरी होगी।
कहना न होगा कि चाहत चाहे तीर्थाटन की अथवा पर्यटन की; भारत की नदियों और गांवों में इनके उद्देश्यों की पूर्ति की संभावना अकूत है। इस संभावना के विकास का सबसे बड़ा लाभ गांवों के गांव तथा नदियों के नदियां बने रहने के रूप में सामने आयेगा। लोग ज़मीनी हक़ीक़त से रुबरु हो सकेंगे। अपनी जड़ों को जानने की चाहत का विकास होगा। ग्रामीण भारत के प्रति सबसे पहले स्वयं हम भारतवासियों की समझ बेहतर होगी। इससे दूसरे देशों की तुलना में अपने देश को देखने का हमारा नज़रिया बदलेगा। दुनिया भी जान सकेगी कि भारत, एक बेहतर सभ्यता और संस्कृति से युक्त देश है। इसी से भारत की विकास नीतियों मंे गांव और प्रकृति को बेहतर स्थान दे सकने वाली गलियां कुछ और खुल जाएंगी। नदियों के सुख-दुख के साथ जन-जुड़ाव का चुम्बक कुछ और प्रभावी होकर सामने आयेगा। भारत के अलग-अलग भू-सांस्कृतिक इलाकों के लिए स्थानीय विकास के अलग-अलग मॉडल विकसित करने की सूत्रमाला भी इसी रास्ते से हाथ में लगेगी। कितना अच्छा होगा यह सब !!
………………………………………………………………………………….बॉक्स 1
पर्यटन : एक पारिवारिक-सामाजिक-आर्थिक क्रिया
पर्यटन, संस्कृत भाषा के मूल शब्द ‘अटन’ से जुड़कर निकला शब्द है। ‘अटन’ यानी भ्रमण। पय जमा अटन = पर्यटन यानी आनंद और ज्ञान की प्राप्ति के लिए भ्रमण। देश जमा अटन = देशाटन यानी देश-विदेश में भ्रमण। तीर्थ जमा अटन = तीर्थाटन यानी तीर्थ क्षेत्रों का भ्रमण। अंग्रेजी भाषा में भ्रमण के लिए ‘टूरिज्म’ शब्द का प्रयोग किया गया है। ’टूरिज्म’ शब्द, मूल रूप से लैटिन भाषा के शब्द ‘टोमोस’ तथा ‘टोमोस’ शब्द, यहूदी भाषा के ‘तोरह’ शब्द से निकला है। ‘तोरह’ शब्द का एक अर्थ है, शिक्षा की खोज। ]टोमोस’ का शाब्दिक अर्थ है, वृत्त अथवा पहिए का घूमना।
पर्यटन की अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि, सिद्धान्त रूप से अपने मूल स्थान से निकलकर किसी भी अन्य देश अथवा स्थान पर 24 घंटे से अधिक ठहरने वाले को पर्यटक कहती है। यह दृष्टि रक्त-सम्बन्ध, ज्ञान-सांस्कृतिक विनिमेय, साहसिक उद्देश्य, मनोविनोद, चिकित्सा, खोज, समुद्र-दर्शन आदि जैसे उद्देश्यों से की गई यात्रा को पर्यटन की श्रेणी में रखती है। अपने मूल स्थान से दूसरे स्थान पर नौकरी करने, किसी आवासीय विद्यालय में पढ़ने अथवा कहीं स्थायी आवास के लिए की गई यात्रा की श्रेणी में नहीं रखा जाता। पर्यटन की यह दृष्टि व्यापार, वाणिज्य, राजनीतिक परिस्थितियां और धार्मिक आस्था को तीन ऐसी मूल शक्तियां मानती है, जो किसी को पर्यटन हेतु प्रेरित करती है।
गौर कीजिए कि दुनिया में पर्यटन का विकास एकल अथवा पारिवारिक न होकर, सामूहिक क्रिया के रूप में हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध से पूर्व पर्यटन के परिणाम चाहे जो रहे हों, लेकिन उसके पश्चात् पर्यटन अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में क्रांति का वाहक सिद्ध हुआ। हालांकि पर्यटन में संस्थागत प्रवेश के लक्षण अब सामने आने लगे हैं, लेकिन वास्तव में पर्यटन आज भी एक पारिवारिक-सामाजिक-आर्थिक क्रिया ही अधिक है। पर्यटन, अज्ञान को दूर कर, ज्ञान की नई विधाओं की खिड़कियां खोलता है। पर्यटन, अध्यात्मिक विकास के अवसर देता है। पर्यटन, सामाजिक सद्भाव तथा आर्थिक विकास की परिस्थितियां निर्मित करता है। पर्यटन, सांस्कृतिक, शैक्षिक, भौतिक और आर्थिक विनिमेय को सुलभ बनाता है।
यह सुलभता रुढ़ियों से मुक्त होने की प्रेरणा देती है; धर्म, जाति, रंग, वर्ग और वर्ण विभेद की लकीरों को धुंधला करती है। यह सुलभता, कालखण्ड विशेष की समस्याओं के समाधान सुझाने में भी सहायक सिद्ध होती है।
बड़ा परिवार, मंहगाई, समयाभाव, खराब सेहत, अरुचि, तनाव, सूचना का अभाव, खराब असुविधाजनक परिवहन तंत्र तथा पर्यटन स्थल पर अशांति को पर्यटन के विकास में बाधक माना गया है। अशांति हो तो इंसान क्या, प्रवासी पक्षी भी उस स्थान पर जाना पसंद नहीं करते हैं। अवकाश की अधिक अवधि, औद्योगिक विकास, नगरीकरण, अधिक आय, सस्ता परिवहन, शिक्षा में विशिष्टीकरण, सांस्कृतिक अभिरूचि, प्रचार तंत्र तथा राजकीय सहयोग को पर्यटन में सहायक माना गया है। जाहिर है कि यदि पर्यटन का विकास करना हो तो उपरलिखित बाधाओं का निराकरण तथा सहायक पहलुओं का प्रोत्साहन होना ही चाहिए।