यदि भारत के प्राचीन अर्थतंत्र के बारे में अध्ययन किया जाय तो ध्यान में आता है कि प्राचीन भारत की अर्थव्यस्था अत्यधिक समृद्ध थी। विश्व के कई भागों में सभ्यता के उदय से कई सहस्त्राब्दी पूर्व, भारत में उन्नत व्यवसाय, उत्पादन, वाणिज्य, समुद्र पार विदेश व्यापार, जल, थल एवं वायुमार्ग से बिक्री हेतु वस्तुओं के परिवहन एवं तत्संबंधी आज जैसी उन्नत नियमावलियां, व्यवसाय के नियमन एवं करारोपण के सिद्धांतों का अत्यंत विस्तृत विवेचन भारत के प्राचीन वेद ग्रंथों में प्रचुर मात्रा में मिलता है। प्राचीन भारत में उन्नत व्यावसायिक प्रशासन व प्रबंधन युक्त अर्थतंत्र के होने के भी प्रमाण मिलते हैं। प्राचीन भारत में कुटीर उद्योग बहुत फल फूल रहा था इससे सभी नागरिकों को रोजगार उपलब्ध रहता था एवं हर वस्तु का उत्पादन प्रचुर मात्रा में होता था। ग्रामीण स्तर पर भी समस्त प्रकार के आवश्यक उत्पाद पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहते थे अतः वस्तुओं के दामों पर सदैव अंकुश रहता था। बल्कि कई बार तो वस्तुओं की बाजार में आवश्यकता से अधिक उपलब्धि के कारण उत्पादों के दामों में कमी होते देखी जाती थी।
ब्रिटिश आर्थिक इतिहास लेखक श्री एंगस मेडिसन एवं अन्य कई अनुसंधान शोधपत्रों के अनुसार ईसा के पूर्व की 15 शताब्दियों तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का हिस्सा 35-40 प्रतिशत बना रहा एवं ईस्वी वर्ष 1 से सन 1500 तक भारत विश्व का सबसे धनी देश था। श्री एंगस मेडिसन के अनुसार मुगलकालीन आर्थिक गतिरोध के बाद भी 1700 ईस्वी में वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का योगदान 24.4 प्रतिशत था। ब्रिटिश औपनिवेशिक शोषण के दौर में यह घटकर 1950 में मात्र 4.2 प्रतिशत रह गया था। हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के श्री जेफ्रे विलियमसन के “इंडियाज डीइंडस्ट्रीयलाइजेशन इन 18 एंड 19 सेंचुरीज“ के अनुसार, वैश्विक औद्योगिक उत्पादन में भारत का हिस्सा, ईस्ट इंडिया कम्पनी के भारत आने के समय जो 1750 में 25 प्रतिशत था, घट कर 1900 में 2 प्रतिशत तक आ गया और इंग्लैंड का हिस्सा जो 1700 में 2.9 प्रतिशत था, 1870 तक ही बढ़कर 9 प्रतिशत हो गया था।
भारत पर मुगलों के आक्रमण एवं ईस्ट इंडिया कम्पनी के माध्यम से अंग्रेजों द्वारा भारत पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने के बाद से भारत के वैभवकाल को जैसे ग्रहण लग गया। एक ओर तो मुस्लिम आक्रांताओं ने भारत को जमकर लूटा तो दूसरी ओर यूनाइटेड किंगडम (ब्रिटेन) ने भारतीय अर्थव्यवस्था एवं सामाजिक ताने-बाने को एक तरह से छिन्न-भिन्न कर दिया। इस खंडकाल में महान भारतीय संस्कृति को भी बहुत नुक्सान पहुंचाने का भरपूर प्रयास किया गया। कुल मिलाकर इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय अर्थव्यवस्था जो कभी लगभग 18 शताब्दियों तक पूरे विश्व में प्रमुख अर्थव्यवस्था बनी हुई थी वह उक्त कारणों के चलते 18वीं शताब्दी में विश्व के प्रथम 10 स्थानों से भी बाहर हो गई और कृषि तक के क्षेत्र में भी अपनी आत्मनिर्भरता खो दी। वर्ष 1896 में वैश्विक स्तर पर प्रथम 10 अर्थव्यवस्थाओं में अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, जर्मन एंपायर, फ़्रान्स, रशियन एंपायर, किंग डायनास्टी, इटली, हंगरी, स्पेन एवं जापान का दबदबा बना रहा था। भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के समय वर्ष 1947 में भी विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में अमरीका, यूरोपीयन देशों एवं रूस का दबदबा दिखाई देता है। वर्ष 1947 में विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में चीन का नाम ही नहीं था और चीन भारत से भी नीचे बना रहा परंतु वर्ष 1982 में चीन की अर्थव्यवस्था विश्व की प्रथम 10 अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होकर 10वें स्थान पर आ गई और फिर उसने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा एवं आज चीन विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। भारतीय अर्थव्यवस्था इस बीच लगातार संघर्ष करती रही एवं वर्ष 1991 में भारत में आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को लागू करने के बाद भी लम्बे समय तक भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की प्रथम 10 अर्थव्यवस्थाओं में शामिल नहीं हो सकी परंतु वर्ष 2009 में भारतीय अर्थव्यवस्था 9वें स्थान पर, वर्ष 2010 में 10वें स्थान पर, वर्ष 2011 में प्रथम 10 अर्थव्यवस्थाओं से बाहर, वर्ष 2012 में 10वें स्थान पर, वर्ष 2013 में 9वें स्थान पर, वर्ष 2014 में 8वें एवं 7वें स्थान पर, वर्ष 2017 में 6वें स्थान पर एवं वर्ष 2022 में 5वें स्थान पर रही। इस प्रकार भारतीय अर्थव्यवस्था का सफर वैश्विक स्तर पर चलता रहा है। परंतु, वर्ष 2014 के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था ने एक तरह से रफ्तार पकड़ ली है और वैश्विक स्तर पर प्रथम 10 अर्थव्यवस्थाओं की रैंकिंग में लगातार सुधार करती जा रही है। पिछले 8 वर्षों के दौरान भारत ने आर्थिक क्षेत्र में कई निर्णय लेकर विश्व को प्रभावित करने में सफलता पाई है। आठ वर्ष पूर्व सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आधार पर भारत, विश्व में दसवें स्थान पर था। इन आठ वर्षों में रूस, ब्राजील, इटली, फ़्रान्स एवं ब्रिटेन को पीछे छोड़कर भारतीय अर्थव्यवस्था जीडीपी के आधार पर पांचवें स्थान पर आ गई है। अब उम्मीद की जा रही है कि वर्ष 2028 तक भारत, विश्व की सबसे बड़ी तीसरी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। हालांकि क्रय सामर्थ्य साम्य के आधार पर आज भारतीय अर्थव्यवस्था अमेरिका व चीन के बाद तीसरे स्थान पर आ चुकी है।
आज भारत ने आर्थिक क्षेत्र के कई आयामों में विश्व में प्रथम स्थान प्राप्त कर लिया है। दुग्ध उत्पादन में विश्व में भारत की हिस्सेदारी वर्ष 2014 के 18.28 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2023 में 24.08 प्रतिशत पर पहुंच गई है। प्रति व्यक्ति दुग्ध की उपलब्धता भी वर्ष 2014 के 312 ग्राम प्रतिदिन से बढ़कर वर्ष 2023 में 451 ग्राम प्रति व्यक्ति हो गई है। इसी प्रकार सूचना प्रौद्योगिकी, फार्मा उद्योग, स्टील उत्पादन, डायमंड आभूषण उत्पादन, ऑटोमोबाइल उत्पादन, मोबाइल उत्पादन, खिलौना उद्योग, रक्षा उपकरण उत्पादन, जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भी भारत ने हाल ही के समय में विश्व में अपना एक अलग स्थान बना लिया है। अब तो कृषि के क्षेत्र से भी निर्यात में लगातार आकर्षक वृद्धि हो रही है। भारतीय नागरिकों, विशेष रूप से गरीब वर्ग के, की सुविधाओं के विस्तार पर भी विशेष ध्यान दिया जा रहा है। देश में टायलेट कवरेज वर्ष 2014 में 39 प्रतिशत था जो वर्ष 2023 में बढ़कर 98 प्रतिशत हो गया है। इसी प्रकार, भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अन्तर्गत वर्ष 2014 में 51 प्रतिशत कवरेज था जो वर्ष 2023 में बढ़कर 98 प्रतिशत हो गया है। बैंकिंग सेवाओं का कवरेज वर्ष 2014 के 61 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2023 में 99 प्रतिशत हो गया है। बिजली की उपलब्धता वर्ष 2014 में 69 प्रतिशत क्षेत्र में थी जो अब बढ़कर 99 प्रतिशत क्षेत्र में हो गई है। नल से जल की उपलब्धता वर्ष 2014 में 13 प्रतिशत परिवारों से बढ़कर वर्ष 2023 में 58 प्रतिशत परिवारों में हो गई है। दूर दराज के इलाकों में तेज गति की इंटरनेट की सुविधा पहुंचाने के उद्देश्य से ओप्टिकल फाइबर का कवरेज जो वर्ष 2014 में मात्र 2 प्रतिशत था उसे वर्ष 2023 में बढ़ाकर 73 प्रतिशत कर दिया गया है।
वर्ष 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात उस समय की सरकार द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए था। परंतु, ऐसा हो नहीं सका क्योंकि भारत ने शुरुआती दौर में साम्यवादी आर्थिक मॉडल को अपनाते हुए देश का आर्थिक विकास करने का निर्णय लिया था। यह आर्थिक विकास मॉडल पूरे विश्व में ही असफल सिद्ध हुआ था। कई देशों, जिन्होंने भारत के साथ ही अपना आर्थिक विकास प्रारम्भ किया था वे पूंजीवादी मॉडल को अपनाकर आगे बढ़े। आज ये सभी देश, यथा जापान, जर्मनी, इजराईल एवं ब्रिटेन विकसित देशों की श्रेणी में शामिल हो चुके हैं। साथ ही, चीन ने, एक साम्यवादी देश होते हुए भी, वर्ष 1980 में आर्थिक सुधार कार्यक्रम लागू करने के उपरांत पूंजीवादी मॉडल को अपनाया और अपना आर्थिक विकास प्रारम्भ किया और आज चीन भी विकसित देशों की श्रेणी में शामिल हो चुका है। केवल भारत ही अभी तक विकासशील देश के रूप में वर्ष 2013 तक आर्थिक विकास के लिए संघर्ष करता दिखाई दे रहा था। हालांकि हाल ही के समय में पूंजीवादी विकास मॉडल में भी कई तरह की गम्भीर समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं, जैसे, मुद्रा स्फीति, आय की असमानता, बढ़ती बेरोजगारी, राज्य का बढ़ता कर्ज, बढ़ता वित्तीय घाटा, आदि, जिन्हें विकसित देश लगातार गम्भीर प्रयास करने के बावजूद भी नियंत्रण में नहीं कर पा रहे हैं एवं अब वे भारत की ओर एक नए आर्थिक मॉडल के लिए आशाभरी नजरों से देख रहे हैं।
प्रहलाद सबनानी
सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक,