इसका अर्थ है सनातन धर्म। यह सनातन तथा अमृत तत्त्व की उपासना है।
(१) श्रेय-प्रेय मार्ग-एक सन्त इसी धर्म के नियमों के अनुसार सन्त बन कर उसका चोला डाले हैं पर सदा सनातन धर्म की संस्थाओं का व्यंग्य-विरोध करते रहते हैं। उनका कहना है कि यह सनातन है तो इस पर खतरा कैसे है? सदा अच्छी चीजों पर ही खतरा रहता है-घर की सफाई बार-बार करते हैं पुनः गन्दा हो जाता है। देव मात्र ३३ हैं, असुर ९९, प्रायः असुर जीत जाते हैं पर उनका मार्ग श्रेष्ठ नहीं है। वैवस्वत यम भारत का पश्चिम सीमा (अमरावती से ९० अंश पश्चिम संयमनी = यमन, सना) के राजा थे। उन्होंने कठोपनिषद् में नचिकेता से दोनों का विवेचन किया है-श्रेय (स्थायी या सनातन लाभ) तथा प्रेय (तात्कालिक लाभ या उसका लोभ)। श्रेय मार्ग पर चलनेवाले सनातनी हैं, उनको सम्मान के लिये श्री कहते हैं। जो हमें प्रेय दे सके वह पीर है या दक्षिण भारत में पेरिया। अन्य अर्थ हैं-
(२) सनातन पुरुष की उपासना-सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे (गीता, ११/१८) या भूत-भविष्य-वर्त्तमान में सर्वव्यापी-पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यं (पुरुष सूक्त)। या उसके शब्द रूप वेद की उपासना -भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात् प्रसिद्ध्यति। (मनुस्मृति, १२/९७)।
(३) सनातन या अमृत तत्त्व की उपासना-मृत्योर्मा अमृतं गमय आदि। जो निर्मित होता है वह बुलबुला जैसा क्षणभङ्गुर है, वह मूल स्रोत से मुक्त होता है अतः उसे मुच्यु या परोक्ष में मृत्यु कहा है। उसके बदले मूल स्रोत (समुद्र) की ही निष्ठा।
स समुद्रात् अमुच्यत, स मुच्युः अभवत्, तं वा एतं मुच्युं सन्तं मृत्य्ः इति आचक्षते (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व, १/७)
वेद में इसे केवल सनात् भी कहा है-
सनादेव शीर्यते सनाभिः। (ऋक्, १/१६४/१३, अथर्व, ९/९/११)
अनापिरिन्द्र जनुषा सनादसि (ऋक्, ८/२१/१३, अथर्व, २०/११४/१, साम, १/३९९, २/७३९),
सनाद् राजभ्यो जुह्वा जुहोमि (ऋक्, २/२७/१, वाज यजु, ३४/५४, काण्व सं, ११/१२, निरुक्त, १२/३६)।
मूल तत्त्व से जो बुद्-बुद् निकलता है उसे द्रप्सः (drops) या स्कन्द (निकलना, गिरना) भी कहा है। आकाशगंगा, तारे, ग्रह-सभी द्रप्सः हैं।
स्तोको वै द्रप्सः। (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, २/१२)
द्रप्सश्चस्कन्द प्रथमाँ अनु द्यूनिमं च योनिमनु यश्च पूर्वः (ऋक्, १०/१७/११)
यस्ते द्रप्सः स्कन्दति यस्ते अंशुर्बाहुच्युतो धिषणाया उपस्थात्। (ऋक्, १०/१७/१२)
(४) सनातन यज्ञ-स्वयं यज्ञ द्वारा उत्पादन कर उपभोग करना देवों का कार्य है। इसके विपरीत दूसरों का अपहरण करना असुर वृत्ति है-
यज्ञेनयज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकः महिमानः सचन्तः यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥ (पुरुष सूक्त, वाज, यजु, ३१/१६)
यज्ञ द्वारा इच्छित वस्तु का उत्पादन होता है-
अनेन प्रसविष्यध्वं एष वोऽस्तु इष्टकामधुक् (गीता, ३/१०)।
लूटा माल खत्म हो जाता है पर यज्ञ का चक्र सदा चलता रहता है-
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः (गीता ३/१६)।
अतः यज्ञ को चलाते रहना सनातन धर्म है। केवल इसका बचा भाग लेना चाहिये जिससे यह चक्र बन्द नहीं हो-
यज्ञशिष्टामृत भुजः (गीता, ४/३१) यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः (गीता, ३/१३)
यज्ञ चक्र द्वारा सभ्यता को सदा चलाते रहना सनातन है। असुरों द्वारा इसी लूट प्रवृत्ति के कारण सनातन धर्म पर सदा खतरा रहता है। जो यज्ञ के बदले बल (असु) द्वारा सम्पत्ति लूट कर काम चलाते थे, उनको असुर कहा गया। लूट के माल का १/५ भाग राजा को देने का नियम इसाई तथा इस्लाम मतों में है (माल-ए-गनीमत, Royal fifth)। जब लूटने योग्य नहीं बचता तो ये सभ्यतायें नष्ट हो जाती हैं। इनको दिति सन्तान भी इसी कारण कहते है। दिति का अर्थ है काटना। दूसरों को काट कर आय करना, या सभ्यता को २ भागों में बांटना। जो उनका मत माने वह अच्छा, बाकी काफिर। या पैगम्बर के बाद सब ठीक, उसके पहले का सभी चिह्न और ज्ञान नष्ट करना है।
(५) अदिति उपासना-पृथ्वी कक्षावृत्त का २७ नक्षत्रों में विभाजन दिति है पर उस चक्र में निरन्तन गति अदिति है। जैसे सम्वत्सर चक्र सदा चलता रहता है, जिस विन्दु पर एक सम्वत्सर समाप्त होता है वहीं से नया आरम्भ होता है-यह कालचक्र के अनुसार अर्थ है-
अदितिर्जातम् अदितिर्जनित्वम् (ऋग्वेद, १/८९/१०)
प्राचीन नियम था अदिति का नक्षत्र पुनर्वसु आने पर रथयात्रा होगी। देवों का वर्ष इसी से आरम्भ होता था। पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य आने से वर्ष (अदिति) का अन्त भी होता है और नये वर्ष (अदिति) का आरम्भ भी, अतः कहा गया है-अदितिर्जातम्, अदितिर्जनित्वम्। सूर्य पुनर्वसु नक्षत्र में ५ से १८ जुलाई तक रहता है, इस अवधि में रथयात्रा या बाहुड़ा निश्चय होगा। जो सनातन तत्त्व अदिति की उपासना करता है वह आदित्य या सनातनी है। दिति का अर्थ काटना है। उनके उपासक दैत्य विश्व को दो भागों में काट देते हैं-उनका भगवान् ठीक है बाकी गलत हैं अपने भगवान मत में धर्म परिवर्तन नहीं तो हत्या करना। उनके प्रचारक या पैगम्बर के पहले सभी गलत था। सनातन मत वाले ज्ञान या सभ्यता की निरन्तरता को समझते हैं।
(६) अमर-देवों को अमर कहा गया है। तत्त्व रूप में इनके विभिन्न रूप आकाश के विभिन्न भागों में सदा बने रहते हैं। किन्तु मनुष्य रूप में देव अमर नहीं थे। वे भी देव-असुर युद्धों में मरते थे-
निर्जीवं च यमं दृष्ट्वा ततः संत्यज्य दानवः (मत्स्य पुराण, १५०/४९)
ध्रुव ने भी देवयोनि के लाखों यक्षों का वध किया था जब उन्होंने उनके भाई की हत्या कर दी थी (भागवत पुराण, ४/१०/१८-२० आदि)
इन्द्र पद पर भारत के कई राजा रहे हैं, जैसे रजि, नहुष (भागवत पुराण, ९/१८, महाभारत, आदि, ७५/२९ आदि)
अमर होने का एक अर्थ तो यहीं स्पष्ट है कि एक इन्द्र के मरते ही नहुष आदि उनका स्थान लेने के लिए तैयार रहते थे। अमरता का मुख्य अर्थ है, व्यक्ति नष्ट होता है पर उसकी परम्परा चलती रहती है। हर व्यक्ति परम्परा की ३ धाराओं का अंश है जिनको ३ ऋण कहते हैं-देव, ऋषि, पितृ ऋण। मनुष्य अपने पूर्व जन्मों के काम को आगे बढ़ाता है, अपनी वंश परम्परा या काम को आगे बढ़ाता है (सन्तान = सम्यक् प्रकारेण तानयति), या समाज को आगे बढ़ाता है।
समाज रूप में देखें तो उत्पादन की यज्ञ संस्था, शिक्षा संस्था आदि चलती रहती हैं। शिक्षा, धन अर्जन, व्यक्तिगत तप स्वाधाय आदि भी यज्ञ के ही रूप हैं। गीता (४/२४-३२) में ऐसे १४ यज्ञों का वर्णन है। इन सनातन संस्थाओं से सभ्यता चलती रहती है, किसी पैगम्बर द्वारा सभी पूर्व चीजों का विनाश नहीं करते।
भारत रूपी कामधेनु की सेवा के कारण हिन्दू धर्म-गौ पृथ्वी में कामधेनु भारत-
पृथ्वी को उत्पादन स्रोत के रूप में गौ कहा गया है, जिसके ४ स्तन रूपी ४ समुद्र हैं-(१) जल मण्डल, (२) वायु मण्डल, (३) भूमण्डल (ठोस स्थल भाग), (४) जीव मण्डल। इनको अंग्रेजी में स्फियर (Sphere) कहते हैं-हाइड्रोस्फियर (Hydrosphere), एटमोस्फियर (Atmosphere), लिथोस्फियर (Lithiosphere), बायोस्फियर (Biosphere)। जब भी पृथ्वी पर अत्याचार होता था, गोरूपधारी पृथ्वी ब्रह्मा के साथ विष्णु भगवान् के पास जाती थी। ग्रीक में भी पृथ्वी को गैया (Gaia) कहते थे जिससे जिओ (Geo) शब्द बना है-Geography, Geology।
पयोधरी भूतचतुः समुद्रां जुगोप गोरूप धरामिवोर्वीम्। (रघुवंश, २/३)
अथैष गोसवः स्वाराजो यज्ञः। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, १९/१३/१)
इमे वै लोका गौः यद् हि किं अ गच्छति इमान् तत् लोकान् गच्छति। (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/२/३४)
इमे लोका गौः। (शतपथ ब्राह्मण, ६/५/२/१७)
धेनुरिव वाऽइयं (पृथिवी) मनुष्येभ्यः सर्वान् कामान् दुहे माता धेनु-र्मातेव वा ऽइयं (पृथिवी) मनुष्यान् बिभर्त्ति। (शतपथ ब्राह्मण, २/२/१/२१)
भूमिर्दृप्त नृपव्याज दैत्यानीक शतायुतैः।
आक्रान्ता भूरिभारेण ब्रह्माणं शरणं ययौ॥१७॥
गौर्भूत्वा-श्रुमुखी खिन्ना क्रन्दन्ती करुणं विभोः।
उपस्थितान्तिके तस्मै व्यसनं स्वमवोचत॥१८॥
ब्रह्मा तदुपधार्याथ सह देवैस्तया सह।
जगाम सत्रिनयनस्तीरं क्षीर पयोनिधेः॥१९॥
(भागवत पुराण, अध्याय १०/१)
राजा पृथु ने भी पृथ्वी से खनिजों, फल मूल, आहार आदि का दोहन करने के लिए उसे गौ कहा है।
तत उत्सारयामास शिला-जालानि सर्वशः।
धनुष्कोट्या ततो वैन्यस्तेन शैला विवर्द्धिताः॥१६७॥
मन्वन्तरेष्वतीतेषु विषमासीद् वसुन्धरा। स्वभावेना-भवं-स्तस्याः समानि विषमाणि च॥१६८॥
आहारः फलमूलं तु प्रजानाम-भवत् किल। वैन्यात् प्रभृति लोके ऽस्मिन् सर्वस्यैतस्य सम्भवः॥१७२॥
शैलैश्च स्तूयते दुग्धा पुनर्देवी वसुन्धरा। तत्रौषधी र्मूर्त्तिमती रत्नानि विविधानि च॥१८६॥
(वायुपुराण, उत्तरार्ध, अध्याय १)
तत उत्सारयामास शैलां शत सहस्त्रशः।
धनुःकोट्या तदा वैन्यस्ततः शैला विवर्ज्जिताः॥८१॥
स कल्पयित्वा वत्सं तु मनुं स्वायम्भुवं प्रभुः। स्वे पाणौ पृथिवीनाथो दुदोह पृथिवीं पृथुः॥८६॥
(विष्णु पुराण, अध्याय १/१३)
पृथ्वी पर भारत उत्पादन का सबसे बड़ा केन्द्र था। विश्व का भरण पोषण करने के कारण इसे भारत कहा गया। मेगास्थनीज आदि ने भी लिखा है कि भारत सदा से खनिज तथा अन्न में स्वावलम्बी था, अतः भारत ने १५,००० वर्षों में किसी पर आक्रमण नहीं किया। (इण्डिका, पारा ३६-बाद में मैक्रिण्डल ने इसे हटा दिया)। अतः भारत को कामधेनु गौ कहते है। इस कामधेनु के सीमावर्त्ती जातियों का उल्लेख वसिष्ठ तथा जमदग्नि के कामधेनु हरण प्रसंगों में है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण (३/२४/५९-६४)-
इत्युक्त्वा कामधेनुश्च सुषाव विविधानि च। शस्त्राण्यस्त्राणि सैन्यानि सूर्यतुल्य प्रभाणि च॥५९॥
निर्गताः कपिलावक्त्रा त्रिकोट्यः खड्गधारिणाम्। विनिस्सृता नासिकायाः शूलिनः पञ्चकोटयः॥६०॥
विनिस्सृता लोचनाभ्यां शतकोटि धनुर्द्धराः। कपालान्निस्सृता वीरास्त्रिकोट्यो दण्डधारिणाम्॥६१॥
वक्षस्स्थलान्निस्सृताश्च त्रिकोट्यश्शक्तिधारिणाम्॥ शतकोट्यो गदा हस्ताः पृष्ठदेशाद्विनिर्गताः॥६२॥
विनिस्सृताः पादतलाद्वाद्यभाण्डाः सहस्रशः। जंघादेशान्निस्सृताश्च त्रिकोट्यो राजपुत्रकाः॥६३॥
विनिर्गता गुह्यदेशास्त्रिकोटिम्लेच्छजातयः। दत्त्वासैन्यानि कपिला मुनये चाभयं ददौ॥६४॥
वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, सर्ग ५४-
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभिः सासृजत् तदा। तस्या हुंभारवोत्सृष्टाः पह्लवाः शतशो नृप॥१८॥
भूय एवासृजद् घोराञ्छकान् यवनमिश्रितान्। तैरासीत् संवृता भूमिः शकैर्यवनमिश्रितैः॥२१॥
ततोऽस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह। तैस्ते यवन काम्बोजा बर्बराश्चाकुलीकृताः॥२३॥
सर्ग ५५-तस्या हुंकारतो जाताः काम्बोजाः रविसंन्निभाः। ऊधसश्चाथ सम्भूता बर्बराः शस्त्रपाणयः॥२॥
योनिदेशाच्च यवनाः सकृद्देशाच्छकाः स्मृताः। रोमकूपेषु म्लेच्छाश्च हारीताः स किरातकाः॥३॥
ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/२९)-व्यथितातिकशापातैः क्रोधेन महतान्विता।
आकृष्य पाशान् सुदृढ़ान् कृत्वाऽत्मानममोचयत्॥१८॥
विमुक्त पाशबन्धा सा सर्वतोऽभिवृता बलैः। हुंहा रवं प्रकुर्वाणा सर्वतो ह्यपतद्रुषा॥१९॥
विषाण खुर पुच्छाग्रैरभिहत्य समन्ततः। राजमन्त्रिबलं सर्वं व्यवद्रावयदर्पिता॥२०॥
विद्राव्य किंकरान्सर्वांस्तरसैव पयस्विनी। पश्यतां सर्वभूतानां गगनं प्रत्यपद्यत॥२१॥
स्कन्द पुराण (६/६६)-अथ सा काल्यमाना च धेनुः कोपसमन्विता॥ जमदग्निं हतं दृष्ट्वा ररम्भ करुणं मुहुः॥५२॥
तस्याः संरम्भमाणाया वक्त्रमार्गेण निर्गताः॥ पुलिन्दा दारुणा मेदाः शतशोऽथ सहस्रशः॥५३॥
कामधेनु से उत्पन्न जातियां-(१) पह्लव-पारस, काञ्ची के पल्लव। पल्लव का अर्थ पत्ता है। व्यायाम करने से पत्ते के रेशों की तरह मांसपेशी दीखती है। अतः पह्लव का अर्थ मल्ल (पहलवान) है। (२) कम्बुज हुंकार से उत्पन्न हुए। कम्बुज के २ अर्थ हैं। कम्बु = शंख से कम्बुज या कम्बोडिया। कामभोज = स्वेच्छाचारी से पारस के पश्चिमोत्तर भाग के निवासी। खण्ड राज्य को भोज कहते थे, जैसे काशिराज दिवोदास को भोज राज कहा है (ऐतरेय ब्राह्मण, ३७/२, ऋक्, ३/५३/७, १०/१०७/८ आदि)। अतः कामभोज का अनुवाद स्मर-खण्ड (स्मर = काम) या समरकन्द हो सकता है। (३) शक-मध्य एशिया तथा पूर्व यूरोप की बिखरी जातियां, कामधेनु के सकृद् भाग से (सकृद् = १ बार उत्पन्न), (४) यवन-योनि भाग से -कुर्द के दक्षिण अरब के। (५) शक-यवन के मिश्रण, (६) बर्बर-असभ्य, ब्रह्माण्ड पुराण (१/२//१६/४९) इसे भारत ने पश्चिमोत्तर में कहता है-कामभोज, दरद (डार्डेनल, चण्डीपाठ ८/६ का दौर्हृद), के निकट। मत्स्य पुराण (१२१/४५) भी इसे उधर की चक्षु (आमू दरिया-Oxus) किनारे कहता है। (७) लोम से म्लेच्छ, हारीत, किरात (असम के पूर्व, दक्षिण चीन), (८) खुर से खुरद या खुर्द, कुर्द्द-तुर्की का दक्षिण भाग। (९) पुलिन्द (पश्चिम भारत-मार्कण्डेय पुराण, ५४/४७), मेद, दारुण-सभी मुख से। मेद नाम का कोई देश नहीं लिखा है। बल असुर के मेद से स्फटिक, मरकत की उत्पत्ति का उल्लेख है (पद्म पुराण, ६/६/२६, २९)। ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/७/९४) में पौरुषेय राक्षस के ५ पुत्रों में एक का नाम मेदाश है। एक मेडेस ईरान का पश्चिमोत्तर भाग था। सिन्धु के पूर्व भारत को भी बाइबिल में मेडेस कहा है (हिमालय-विन्ध्य के बीच मध्य देश, नेपाल में मधेस)। ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/७/११) में एक गन्धर्व का नाम दारुण है। यह गान्धार निकट हो सकता है।
कामधेनु अर्थ में वेद में इसे हिंकृण्वती (हिंकार करने वाली) वसुपत्नी (धन देने वाली-मुखिया पत्नी अर्थ में कन्नड़ में हेग्गड़ती), इस रूप में दुही गयी कहा है।
हिङ्कृण्वती वसुपत्नी वसूनाम् वत्समिच्छन्ति मनसाभ्यागात्।
दुहामश्विभ्यां पयो अघ्न्येयं सा वर्धतां महते सौभगाय॥
(ऋक्, १/१६४/२७, अथर्व, ७/७३/८, ९/१०/५, ऐतरेय ब्राह्मण, १/२२/२)
इसके बाद के २ ऋक् मन्त्र भी भारत की गोमाता रूप में वर्णन करते हैं। मन्त्र के दोनो पंक्तियों के प्रथम अक्षरों को मिलाने से हिन्दू शब्द बनता है, जिसका अर्थ हुआ भारतमाता का पुत्र।
अरुण कुमार उपाध्याय