जिस रास्ते से मैं रोज कार्यालय जाया करता था, उस पर एक सरकारी थर्मल पावर हाउस था, जहां बिजली बनती थी और नगर को आपूर्ति होती थी। रोजाना पावर हाउस के गेट पर सैकड़ों मजदूर इकठ्ठा होते और मुर्दाबाद के नारों के साथ प्रदर्शन करते। मैं बाहर से आया था। सड़क से गुजरते यह नजारा रोज का था। एक दिन थोड़ा रुक कर इस नित्यकर्म को समझने का प्रयास किया। यहां एक यूनियन थी, जिसके अग्रणी नेता गैर-कामगार थे। बहरहाल यह काम महीनों और सालों चलता रहा। तभी बंद हुआ जब एक दिन पावर हाउस और बिजली उत्पादन बंद हो गया।
1969 में जब हमनें अपना कार्यकारी जीवन शुरू किया तो धीरे धीरे मुझे मानसिक तौर पर सुसज्जित कर दिया गया कि उद्यमीं होना या बड़े कारोबार करना आपराधिक काम है। उस समय टाटा, बिरला, डालमिया, गोयनका, सिंघानिया, बांगुर जैसे कुछ बड़े औद्योगिक घराने देश में थे। सब की पृष्ठिभूमि भारतीय थी। सब राष्ट्र को समर्पित थे। सबने आजादी की लड़ाई में साथ दिया। लेकिन लोग उनके मुर्दाबाद के नारे लगाते नहीं थकते थे। आजादी के बाद लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनीं सरकार देश-प्रदेश में थी, लेकिन लोगों से सरकार को पूंजीपतियों की सरकार कहलाया जाता था।
हमें आयातित वस्तुएं अच्छी बताई गई, लेकिन हममें कभी भारतीय उद्यमियों द्वारा बनाई गई वस्तुओं, उनके द्वारा दिए गये रोजगार, औद्योगिक विकास, पूंजी निर्माण, कर आदि को लेकर कभी सुक्रिया भाव नहीं जगाया गया। इनके प्रति एक घृणा भाव भरा गया। वही सबसे बड़ा क्रांतिकारी था, जो पूंजीपतियों को सबसे ज्यादा गाली देता था। वही सबसे बड़ा प्रगतिशील और कम्युनिस्ट था, जो मैनेजमेंट को गाली दे, हड़ताल कराए, काम का पहिया जाम करें और एक दिन ताला बंद करादे।
देश के बैंकिंग उद्योग को देखा जाए, तो इलाहाबाद बैंक और इंपीरियल बैंक को छोड़कर जितने अन्य बैंक थे, वे किसी न किसी भारतीय उद्यमीं ने ही स्थापित किए थे, जिसमें हम जैसे लाखों लोगों ने रोजगार पाया और आज भी वे राष्ट्रीय प्रतिष्ठान के रूप में देश के विकास में लगे हैं। हमारी यूनियनों ने संस्थापकों के खिलाफ भरपूर मुर्दाबाद के नारे लगवाए।
हमारी यूनियनों ने कभी संस्थापकों के प्रति आभार और कृतज्ञ भाव नहीं दर्शाया। बैंकों का स्थापना दिवस नहीं मनाया। जिन बैंकों में लाखों लोग नौकरी कर रहे थे, यूनियनों ने उन्हीं बैंककर्मियों को बैंक संस्थापकों और मैनेजमेंट के खिलाफ लामबंद कर दिया।
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद, निजी संस्थापक और प्रबंधन नेपथ्य में चले गये, लेकिन यूनियनों का रवैया नहीं बदला, ज्यादा आक्रामक और स्थापना विरोधी हो गया। चूंकि बैंकों का स्वामित्व सरकार के हांथ में था तो यूनियनों का विरोधी तेवर यूनियनों के राजनीतिक सन्निकटता से तय होने लगा।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के समक्ष हमारे उद्योगों को बौना बनाए रखा गया और जब मेक इन इंडिया का एलान हुआ तो भारत कि विरोधी राजनीतिक दलों ने इसका मजाक बनाया। हमारे औद्योगिक घरानें केस स्टडी के काबिल नहीं होते। भारतीय बैंकिंग पूरी तरह से भारतीय है, लेकिन इसकी सफलता को लेकर कभी कोई स्टडी नहीं हुई। भारतीय उत्पादों का मजाक, उद्योगपतियों का उपहास! बाबा रामदेव को गाली और जॉनसन एंड जॉनसन की प्रशंसा जिसके उत्पाद कैंसरस हैं । अब तो लोग सार्वजनिक बैंकों के योगदान पर भी उंगली उठाने लगे हैं और उन्हें बेच देनें की वकालत करने लगे हैं।
यह देश अपनी विरासतों के बल पर जीता रहा है। हम ऐसे लोगों के प्रति कृतज्ञ रहे हैं, जिन्होंने देश और समाज को कुछ दिया। हम अपने शिक्षकों की तुलना ब्रह्मा, विष्णु और महेश से करते रहे हैं। किसान को अन्नदाता मानते हैं। हम ऋषियों, मुनियों, मनीषियों को श्रद्धा से देखते रहे हैं। लेकिन, जो हमें रोजगार देता है, पारिश्रमिक देता है, देश के लिए अतिरिक्त पैदा करता है, उसे शोषक कहकर उससे घृणा करने को प्रेरित किया जाता है।
यह वही देश है जहां आज उद्योगपतियों को शोषक और देश द्रोही तक कहा जाता है, जबकि वे राष्ट्र के लिए हमेशा खड़े रहते हैं। जो लोग देश की आद्योगिक इकाइयों में काम करते हैं, वे अपने ही उद्योग और व्यवसाय के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। किसान ऐसा कोई काम नहीं करता जिसके उसके खेत की उर्वरा शक्ति नष्ट हो और फसल न हो। लेकिन देश में हजारों उद्योग तो इसलिए बंद हो गये कि उसे उसके कामगारों ने ही नहीं चलने दिया।
ट्रैड यूनियन में काम करते हुए हमने देखा कि हमें पूंजी की रचनात्मकता और इसके निर्माण का कोई ज्ञान ही नहीं है। हमने बड़े बड़े नेताओं को देखा, उनके लाखों सदस्यों को देखा, लेकिन सब मिल कर एक बैंक स्थापित नहीं कर सके। अगर ऐसा होता तो दुनिया को एक नई सोच मिलती की मजदूरों की एकता से औद्योगिक साम्राज्य खड़ा किया जा सकता है। यह दर्शाता है कि जो काम लाखों मजदूर मिल कर नहीं कर सकते वह एक उद्यमशील व्यक्ति कर सकता है।
कहने की जरूरत है कि हमने अपनों की सफलता का जश्न मनाना नहीं सीखा है। कोई भी उद्योपति या बड़ा कारोबारी लोग व्यक्तिगत उपयोग के लिए बिस्तर के नीचे पैसा जमा नहीं करते हैं, जैसा कि कुछ राजनेताओं, वृत्तचित्रों या समाचार पत्रों द्वारा पेश किया गया है। वे ऐसी संपत्ति बनाते हैं जो नागरिकों को लाभ देती हैं, बेरोजगारों को नौकरी देती हैं और सरकार को करों का भुगतान करती हैं।
हम खुद के प्रति तथा समाज व देश के प्रति ईमानदार कब होंगें? कड़ी मेहनत, जोखिम लेने वाली उद्यमशीलता का नमन कब करेंगे? बेहतर योगदान का जश्न कब मनाएंगे? यह अमृतलाल है और हमारे पास ईमानदार और परिवर्तनकारी नेतृत्व है। दुनिया हमें बड़ी उम्मीदों से देख रही है, लेकिन हम अपने देश के खिलाफ खड़े षड्यंत्रकारियों के साथ दिख रहे हैं।
क्यों हम हमेशा हीन महसूस करते हैं और उनकी स्वीकृति और मान्यता के लिए पश्चिम की ओर देखते हैं। क्यों पूरी व्यवस्था राजनेता, नौकरशाह या आम लोग व्यवसायियों के बारे में गलत तरीके से सोचते हैं, इसके बावजूद ये वही लोग हैं जो जोखिम उठाते हैं और कड़ी मेहनत करते हैं और रोजगार, राजस्व पैदा करते हैं और क्षेत्रों का विकास करते हैं।
यह सही होने के बारे में नहीं है.. यह गलत होने और गुलामी की मानसिकता के बारे में है.
(प्रयागवाणी, प्रयागराज)