कितने परोपकारी हैं भारत के पूंजीपति
आर.के. सिन्हा
गौतम अडाणी ने सेहत, शिक्षा और कौशल विकास के लिए 60 हजार करोड़ रुपए देने का संकल्प लिया है। जाहिर है कि यह कोई-छोटी मोटी राशि तो नहीं है न?
देखिए , इससे सुखद कोई बात नहीं हो सकती कि देश में आप जो भी अपनी बुद्धि और मेहनत से दिन – रात एक करके पैसा कमाते हैं, उसे यदि वे उसी देश-समाज को वापस कर दें जिससे आपने कमाया है। बेशक, यह भारतीय कॉरपोरेट इतिहास के सबसे बड़े दानों में से एक है। पर इतना कहना ही होगा कि हमारे देश में अब भी गिनती के ही कारोबारी या पैसे वाले लोग हैं जो परोपकार के लिए अपना कमाया धन समाज के परोपकार में देते हैं। इस लिहाज से मोटा-मोटी अजीम प्रेमजी, शिव नाडार, मुकेश अंबानी, नंदन नीलकेणी, टाटा ग्रुप वगैरह का ही नाम मुख्य रूप से सबसे पहले जेहन में आता है। अजीम प्रेमजी के लिए कहा जाता है कि वे औसत रोज 22 करोड़ रुपए दान में देते हैं। अजीम प्रेमजी से पहले शिव नाडर परोपकारी कामों के लिए दान देने वालों में सबसे आगे थे। शिव नाडर ने वित्त वर्ष 2020 में 795 करोड़ रुपए दान किए। वहीं, इससे एक साल पहले भी उन्होंने 826 करोड़ रुपयों का दान किया था। अजीम प्रेमजी और शिव नाडार का जीवन तो सबके लिए एक मिसाल है। ये खुद तो सादगी पूर्ण जिंदगी गुजारते हैं। अजीम प्रेमजी ने अपने पुत्र का विवाह भी बहुत सादगी से ही किया था। उन्होंने सैकड़ों- हजारों लोगों को डिनर पर बुलाया भी नहीं था। शिव नाडार पिछड़ी जाति से संबंध रखने के बाद भी समाज में शीर्ष स्थान पर गए। शिव नाडार ने 1976 में दिल्ली के पटेल नगर के एक गैरेज से एचसीएल इंटरप्राइजेज की स्थापना की, तो 1991 में वे एचसीएल टेक्नोलॉजी के साथ बाजार में एक नए रूप में हाजिर हुए। तमिलनाडु में पहले नौकरी छोड़ना और बाद में दिल्ली में डीसीएम समूह की बढ़िया नौकरी को ठोकर मारने का साहस शिव नाडार जैसे दृढ सॅंकल्प के इॅंसान ही कर सकते थे। शिव नाडार ने गरीबी को नजदीक से देखा है। इसलिए वे गरीब परिवारों के बच्चों को शिक्षा उपलब्ध कराने को लेकर सदैव गंभीर रहते हैं। लेकिन, यह भी सच है कि हमारे यहां शिव नाडार जैसे परोपकार के लिए अपना पैसा देने वाले भी बहुत ही कम लोग सामने आते हैं। ये स्थिति कोई बहुत आदर्शतो नहीं ही मानी जा सकती।
अगर बात नए दौर के आंत्रप्योनर की करें तो फिलहाल उनके नाम सामने नहीं आते जो परोपकार के लिए आगे आ रहे हों। सचिन बंसल- बिन्नी बंसल ने फ्लिटकार्ट से अपनी हिस्सेदारी बेचकर हजारों करोड़ रुपए कमाए। क्या उन्होंने उसमें कुछ पैसा शिक्षा, सेहत या किसी अन्य सेक्टर के लिए दिया? इसी तरह से ओला के फाउंडर भविश अग्रवाल भी परोपकार के नाम पर कभी सुर्खियां नहीं बटोरते। क्या हमारे फिल्मी सितारे या क्रिकेटर नियमित रूप से परोपकार के काम कर रहे हैं? भगवान ही जानें?
ये कमाते तो सैकड़ों-हजारों करोड़ रुपए हैं। पर इनके परोपकार को लेकर जानकारी शायद ही किसी के पास हो। ये बस सांकेतिक रूप से दिखावे भर के लिये ही कुछ समाज सेवा भर कर देते हैं। याद नहीं आता जब हमारे क्रिकेटरों ने कभी कोई समाज सेवा का उल्लेखनीय काम किया हो। फुटबॉलर क्रिस्टियानो रोनाल्डो को सारी दुनिय जानती है। वे बेजोड़ खिलाड़ी हैं। वे चैरिटी की वजह से भी खबरों में बने रहते हैं। वे लगातार रक्तदान करते हैं। उन्होंने साल 2012 में गोल्डन बूट अवॉर्ड को नीलाम कर दिया था। उन्होंने उस नीलामी से मिले धन से गाजा में एक स्कूल बनवा दिया था। वे रोगियों का इलाज भी करवाते हैं।
आप सैकड़ों करोड़ के बंगलों में रहें या महंगी लक्जरी कारों में घूमें, इससे किसी को कोई एतराज नहीं है। पर क्या सिर्फ इनकम टैक्स देना पैसे वालों के लिये काफी है? दिक्कत तो यह है कि हमारे यहां तमाम लोग मोटा कमाने के बाद थोडा सा इनकम टैक्स देकर सोचते हैं कि उन्होंने बहुत महान काम कर दिया।
फेसबुक के फाउंडर और सीईओ मार्क जुकरबर्ग के नाम से सारा भारत भी वाकिफ है। उन्होंने और उनकी पत्नी प्रिंसिला ने फेसबुक के अपने 99 फीसदी शेयर चैरिटी में दान करने का फैसला किया है, जिसका मूल्य लगभग 45 अरब डॉलर (करीब 3 लाख करोड़ रुपए) है। इसके बाद भी जुकरबर्ग के पास फेसबुक में करीब 303 अरब डॉलर की हिस्सेदारी रहेगी।
अब संसार के सर्वाधिक धनी इंसान बिल गेट्स की बात करते हैं। वे माइक्रोसॉफ्ट के निदेशक मंडल से इस्तीफा देकर पूरी तरह से मानव सेवा में लग गए हैं। धन कुबेर तो हर काल में रहे हैं और नए-नए बनते भी रहेंगे। लेकिन, गेट्स सारी दुनिया के लिए उदाहरण पेश करते हैं। बिल गेट्स का फोकस स्वास्थ्य, विकास और शिक्षा जैसे सामाजिक और परोपकारी कार्यों पर रहता है। वे विश्व से गरीबी और निरक्षरता खत्म करने का ख्वाब देखते हैं। बिल गेट्स की संस्था बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन भारत में भी सक्रिय है। ये भारत में अरबों रुपए का निवेश कर चुकी है। बिल गेट्स या मार्क जुकरबर्ग का मकसद संसार को एक बेहतर जगह बनाना है।
भारत के धनी समाज को परोपकार के लिए अपने लाभ का एक हिस्सा लगातार देते रहना चाहिए। उन्हें नए अस्पतालों के निर्माण या पहले से चल रहे अस्पतालों के आधुनिकीकरण के लिए धन देने से पीछे नहीं रहना चाहिए। टाटा समूह ने शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र में शानदार योगदान दिया है।
अगर बात राजधानी दिल्ली की करें तो टाटा समूह के सहयोग से प्रख्यात दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स (डी स्कूल) में रतन टाटा लाइब्रेयरी स्थापित की गई थी। इसे अर्थशास्त्र और संबंधित विषयों में अध्ययन और अनुसंधान के लिए आदर्श लाइब्रेयरी माना जाता है। डी स्कूल की स्थापना में प्रफेसर वी.के. आर.वी.राव की निर्णायक भूमिका रही थी। उन्हीं की कोशिशों से टाटा समूह ने रतन टाटा लाइब्रेयरी की स्थापना का निर्णय लिया था। प्रोफेसर राव डी स्कूल के पहले निदेशक थे। इसी टाटा समूह ने बैंगलुरू के इंडियन साइंस इस्टीच्यूट की स्थापना करने में निर्णाय़क भूमिका निभाई थी। इसकी परिकल्पना एक शोध संस्थान या शोध विश्वविद्यालय के रूप में जमशेद जी टाटा ने उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में की थी। यह उन्होने मात्र स्वामी विवेकानन्द के एक पत्र में ऐसा अनुरोध पाने पर किया था। इसके लगभग तेरह वर्षों के अंतराल के पश्चात 27 मई 1909 को इस संस्थान का जन्म हुआ। होमी भाभा, सतीश धवन, जी. एन. रामचंद्रन, सर सी. वी. रमण, राजा रामन्ना, सी. एन. आर. राव, विक्रम साराभाई, मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया, ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जेसे महान विज्ञान से जुड़े व्यक्तित्व इस संस्थान के विद्यार्थी रहे या किसी न किसी रूप में इससे जुड़े रहे हैं। अगर टाटा समूह ने उदारता से इस संस्थान की स्थापना के लिए धन की व्यवस्था न की होती तो देश को यह संस्थान शायद न मिल पाता। तो लब्बो लुआब यह है कि भारत के धनी लोगों को राष्ट्र निर्माण में अब बढ़-चढ़कर भाग भी लेना होगा।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)