गर्भावस्था के पश्चात जन्म लेने के बाद मानव विभिन्न अवस्थाएँ धारण करता है- यथा- शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था तथा अन्त में वृद्धावस्था। इन सभी अवस्थाओं में जीव विभिन्न रूपों से होता हुआ अनेक क्रियाकलापों में संलग्र रहता है और अन्त में वृद्धावस्था को प्राप्त होता है। अपने पूर्व जन्मांतरों में किए गए शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार फलों को भोगकर अन्त में परमधाम की यात्रा पर चला जाता है।
इन सभी अवस्थाओं में वृद्धावस्था जीवन का अन्तिम पड़ाव है। इस अवस्था में मानव परिपक्व हो जाता है। उसके पास अनुभवों का विशाल खजाना होता है। इस अवस्था में शारीरिक रूप से व्यक्ति कमजोर हो जाता है। बेटे-बहू, पोते-पोती, नाती-नातिन के मध्य वह अपने आपको सुरक्षित अनुभव करता है। भारतीय संस्कृति की यही विशेषता रही है। हर भारतीय इस सत्य से परिचित ही है।
पाश्चात्य संस्कृति ने जिन घरों में प्रवेश कर लिया है, वह तो न्यूक्लीयर परिवार हो गए हैं। एक या दो बच्चे और पति-पत्नी तक ही उनका परिवर सीमित हो गया है। घर के वृद्ध माता-पिता, ग्रामीण क्षेत्रों में या शहरों में निवास करते हैं। वे नौकर चाकर या परिवार के रिश्तेदारों के आश्रय में अपना जीवन व्यतीत करते हैं। न्यूक्लीयर परिवारों के बच्चों को भारतीय रिश्तों से कोई वास्ता नहीं है। विदेश में ही उन्हें अच्छा लगता है। दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची, बुआ-फूफाजी जैसे महत्वपूर्ण रिश्ते भी उनके लिए खास नहीं है। संयुक्त परिवार की विशेषता उन्होंने केवल पुस्तकों में पढ़ी है या डिजिटल डिवाइस में देखी है। वृद्ध व्यक्तियों की सेवा करना, उनके कार्यों में सहर्ष सहायता करना उन्हें भाता नहीं है। जिन बच्चों के माता-पिता भारतीय हैं वे अपने बच्चों में संस्कार का रोपण कुछ सीमा तक कर ही देते हैं।
वृद्धावस्था से भयभीत नहीं होना चाहिए। इसे मानव जीवन के उपहार के रूप में स्वीकार करना होगा। प्रौढ़ावस्था तक हमने जैसा जीवन यापन किया है वैसा इस अवस्था में संभव नहीं है। इस अवस्था में सरलता से जीवन जीने का प्रयत्न करना चाहिए। निरर्थक जिद नहीं करना चाहिए। पचहत्तर वर्ष की उम्र के पश्चात् व्यक्ति शारीरिक रूप से अशक्त हो जाता है और कुछ व्याधियों का सामना भी उसे करना पड़ता है। कई प्रकार की औषधियों का सेवन आवश्यक हो जाता है।
वृद्धावस्था में मानव का चिन्तन दार्शनिक होना चाहिए। अपनी सोच सकारात्मक होगी तो स्वभाव में चिड़चिड़ापन तथा दूसरों की प्रत्येक बात में मीन मेख निकालने की आदत में सुधार होगा। घर का वातावरण भी शान्त रहेगा। वृद्धजनों की आज्ञा का पालन भी होगा। वैज्ञानिकों का कथन है हमारे शरीर के सेल हमेशा टूटते रहते हैं और उनके स्थान पर नए सेल का निर्माण होता रहता है। इसलिए हम हमेशा नए बनते रहते हैं। वृद्ध जन अपने आपको वृद्ध न मानें। वृद्धावस्था में अधिक सामान का मोह नहीं होना चाहिए, क्योंकि यदि कोई सामान गुम हो जाता है तो उसका दु:ख असहनीय हो जाता है। घर के सदस्य सामान खोजने में सहायता करते हैं, उनका भी समय नष्ट हो जाता है। जहाँ तक हो सके अनावश्यक लोभ को त्यागने का प्रयत्न करना चाहिए।
वृद्धावस्था में नवीन पीढ़ी को कुछ देते रहना चाहिए। धन, दौलत, सम्पत्ति की चर्चा हम यहाँ नहीं कर रहे हैं वरन् उनमें अच्छे संस्कारों के रोपण की चर्चा कर रहे हैं। संध्याकाल के समय घर के बच्चों को श्लोक, भजन, प्रार्थना आदि सिखाएँ। उनको साथ लेकर गिनती पहाड़े बोलें। सामान्य ज्ञान के प्रश्नों के उत्तर पूछें। धार्मिक लघुकथा सुनाएँ। उनसे धार्मिक प्रश्न पूछे। समय-समय पर उन्हें पुरस्कृत करें। उन्हें आशीर्वाद दें। उन्हें आनन्द आएगा। वे आपको सहयोग करेंगे। भारतीय संस्कृति के प्रति उनका आकर्षण बढ़ेगा। वे सदैव आपको याद करेंगे और नवीन सामाजिक कार्यक्रमों में वे नया कीर्तिमान स्थापित करेंगे।
वृद्धावस्था में अपनी शारीरिक क्षमता के अनुसार छोटे-छोटे कार्य करते रहना चाहिए। स्वावलम्बन अति आवश्यक है। इससे हाथ पैर चलते रहते हैं। जकड़न नहीं होती है। यदि चल फिर सकते हैं तो अपनी दवा ले लें। अपने कपड़ों की तह करके यथा स्थान रख दें। दैनिक समाचार पत्र के समाचार पढ़ लें। भगवान के जप करें, यदि कुछ आवश्यक पाठ करते हों तो नियमित रूप से करें।
घर के सदस्यों के अच्छे मार्गदर्शक बने। हर समय उन्हें राय देने के बजाय जब आपसे पूछा जाए तभी अपने अनुभवों का लाभ उन्हें उचित सलाह देकर दें। जिद्दी बनकर अपना सन्ताप न बढ़ाएं। सबके साथ मिलकर रहें। जिन्दादिल बनें। इसमें ही जीवन सुखी है। घर के युवा सदस्य वृद्धों को बोझ न समझें। खान-पान में सात्विकता रखें। वाणी पर संयम रखें। हमेशा अपने पद की गरिमा का ध्यान रखें। यदि वृद्ध व्यक्ति अनासक्त रहेंगे तो वृद्धावस्था आनन्दमय हो सकती है। यह अवस्था वर्चस्व स्थापित करने की नहीं है। अनर्गल शब्द तथा चुभने वाली बात नहीं बोलना चाहिए। घर के सदस्यों की एक-दूसरे के सामने बुराई करना, मीन मेख निकालना आदि बुरी आदत है। इससे आपस में वैमनस्य बढ़ता है, उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती है। घर का वातावरण तनावपूर्ण हो जाता है और सब आपस में मुँह चढ़ाकर रहने लगते हैं। कई वृद्ध घर में पधारे हुए सदस्यों के सामने घर के सदस्यों को कटु शब्द बोलना, उन्हें डाँटना, अपमानित करना आदि ऐसी आदतें हैं, जिनसे कई पीढ़ी आहत होती है। नई पीढ़ी में सहनशीलता का अभाव दिखलाई देता है। इससे वे वृद्ध लोगों के वचनों से आहत हो जाते हैं। वे वृद्धजनों की अवहेलना करते हैं। ऐसी स्थिति में माता-पिता का कर्त्तव्य है कि वे बच्चों का पक्ष न लें और उन्हें समझा दें। उन्हें वृद्धों के प्रति उचित व्यवहार करना सिखलाएँ।
मानव जीवन एक पुष्प के समान है। एक कली जब पुष्प बनती है तो बड़ी सुन्दर आकर्षक लगती है। धीरे-धीरे समय के साथ मुरझाकर वह जमीन पर पँखुड़ियों के रूप में गिर जाती है। उसी प्रकार मनुष्य भी जन्म लेता है। दुनिया के रंगमंच पर विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाएँ करता है, सुख-दु:ख सभी का सामना करता है और अन्त में वृद्धावस्था को स्वीकार कर अपने परमपिता परमेश्वर के धाम चला जाता है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। नियति का क्रम है, जिससे कोई नहीं बच सकता है। जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है। विद्वान कवि भर्तृहरि अपनी संस्कृत साहित्य की प्रसिद्ध कृति ”शतक त्रयीÓÓ के वैराग्य शतक में लिखते हैं-
आदित्यस्य गतागतैरहरह: संक्षीयते जीवितम्,
व्यापारैर्बहुकार्यभारगुरुभि: कालो न विज्ञायते।
दृष्ट्वा जन्मजराविपत्तिमरणं त्रासश्च नोत्पद्यते,
पीत्वा मोहमयीं प्रमाद मदिरा मुन्मत्त भूतं जगत्।।७।।
(वैराग्य शतक)
अर्थात्- सूर्य के उदय और अस्त के साथ मनुष्यों की जिन्दगी रोज घटती जाती है। समय भागा जाता है, पर कारोबार में व्यस्त रहने के कारण वह भागता हुआ नहीं दीखता। लोगों को पैदा होते और मरते देख कर भी उनमें भय नहीं होता। इससे मालूम होता है कि मोहमाया, प्रमादरूपी मदिरा के नशे में संसार मतवाला हो रहा है।
प्रेषक
डॉ. शारदा मेहता