– प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
1784 ईस्वी आते-आते ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा भारत से कमाये जा रहे व्यापारिक मुनाफे और लूट के माल की चर्चा इंग्लैंड में फैलने लगी। क्योंकि बंगाल के केवल तीन जिलों की केवल लगान वसूली के बड़े हिस्से को राजा के खजाने में जमा न करके उसे लंदन ले जाने पर वहाँ के स्टॉक मार्केट में तूफान आ गया और भारत के सोने-चांदी तथा धन-दौलत की चर्चा होने लगी। इसलिये इंग्लैंड की संसद ने जो तब तक केवल राजपरिवार और जागीरदारों तथा बड़े पादरियों की महासभा थी, वयस्क मताधिकार से चुनी गई संसद नहीं थी (वह तो 20वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य तक ही बन पाई), इसलिये कंपनी के मुनाफे पर इंग्लैंड के राजन्य वर्ग की नजर रहने लगी। तब उसने भारतीय वीर समुदायों को अपने व्यापार के रक्षक दल के रूप में भर्ती करने की प्रेरणा दी। इस रक्षक दल का नाम रखा गया – रॉयल बेंगाल आर्मी, इसमें संपूर्ण वर्तमान उत्तरप्रदेश (मुख्यतः अवध प्रांत और पूर्वान्चल) संपूर्ण बिहार और बंगाल के ब्राह्मण और क्षत्रिय सैनिक थे। इनमें से तीन चौथाई से अधिक ब्राह्मण ही थे। मुख्यतः सरयूपारीण ब्राह्मण। वे सब के सब स्वपाकी थे अर्थात अपना भोजन स्वयं बनाते थे और पूर्णरूप से अन्नाहारी तथा दूध, घी खाने वाले थे। उनकी अद्भुत शक्ति और बल की प्रशंसा की स्वयं अंग्रेजों ने की है। उन दिनों तक प्रत्येक जाति अपना कर्तव्य भलीभांति करने में आत्मगौरव मानती थी और ब्राह्मण तथा क्षत्रिय भी इसमंे बेजोड़ थे। अतः वे स्वधर्म पालन के भाव से वीरतापूर्ण शौर्य प्रदर्शन तथा युद्ध सहज ही करते थे और उसका ही लाभ अंग्रेजों ने उठाया परंतु एक जाति के रूप में अर्थात समाज के रूप में अंग्रेज शासक और प्रशासक संसार के सबसे कृतघ्न समुदाय सिद्ध हुये हैं और स्वयं अंग्रेज प्रजा के साथ भी उन्हांेने कृतघ्नता की है।
भारत के वर्तमान अधिकांश नेताओं ने अपनी समर्थक प्रजा या मतदाताओं के प्रति कृतघ्नता का स्वभाव अंग्रेजों से ही सीखा है। भारत के परंपरागत राजन्यवर्ग इसके विपरीत कृतज्ञता को ही बहुत बड़ा गुण मानते थे।
जब अंग्रेजों की कुटिलता, कृतघ्नता, छलघात और विश्वासघात सामने आने लगे तो धर्मनिष्ठ क्षत्रिय एवं ब्राह्मण सैनिकों ने उसका विरोध किया और उन्हें मार भगाने का अभियान मंगलपाण्डे से लेकर महारानी लक्ष्मीबाई तथा नानाजी पेशवा आदि के नेतृत्व में चला। उसमें राज्यलोभी अनेक भारतीय राजाओं ने अपने लिये अवसर देखकर अंग्रेजों का साथ दिया। इसी प्रकार मराठों से प्रतिशोध का भाव रखने वाले सिखों आदि ने भी अंग्रेजों का साथ दिया। जिससे अंग्रेज सफल हुये और फिर उन्होंने ब्राह्मणों और क्षत्रियों के स्थान पर ऐसी जातियों को सेना में अधिक संख्या में भर्ती करने पर जोड़ दिया जिनमें स्वामिभक्ति विशेष है और धर्मनिष्ठा शिथिल है। श्री भीमराव अंबेडकर जी के पूज्य पिताजी भी ऐसे ही भर्ती हुये सैनिकों में से एक थे। मराठों के विरूद्ध अंग्रेजों ने मुंबई और मद्रास आर्मी गठित की और उसमें महारों तथा अन्य तमिल एवं महाराष्ट्रीय समुदायों को वरीयता दी। इसके बाद तेजी से भारतीय सैन्य बल और पुलिस बल का गठन व्यवस्थित किया गया और न्याय व्यवस्था के नाम से भीषण फीस वसूली वाली एक भयंकर संस्था खड़ी की गई जो आज तक चल रही है। परंतु अंग्रेजों का उद्देश्य इन सभी व्यवस्थाओं के द्वारा अधिकाधिक धनवसूली ही था।
फौजदारों की मुस्लिम सूबों वाली व्यवस्था तथा थाने की मराठा व्यवस्था का अनुसरण करके ब्रिटिश भारतीय पुलिस बल सशक्त किया गया और उत्पीड़न तथा अत्याचार के लिये एवं अपराधों को रोकने का बहाना करके भारी वसूली के लिये जगह-जगह 25 से 30 सिपाहियों के साथ दरोगा तैनात किये गये। उस समय धन तथा जीविका के लोभ से ही लोग पुलिस सिपाही और दरोगा आदि बनते थे।
भारत के आधे हिस्से में अपना शासन होना ब्रिटिश शासकों को अपना बहुत बड़ा सौभाग्य लगता था। उसके बल पर उन्होंने संसार में अपनी धाक जमानी शुरू की। जब नेपोलियन बोनापार्ट ने संपूर्ण यूरोप पर कब्जा करने का अभियान चलाया तो भारतीय धन-बल और संसाधन-बल से ही अंग्रेज किसी तरह बच पाये और अंत में संयोगवश विजयी भी हुये। उसके बाद से उन्होंने भारतीय प्रशासन और सैन्य बल को अपने हिस्से में बहुत विस्तार दिया। साथ ही, विशेषकर हिन्दुओं से घबराहट के कारण बंगाल को बांटकर मुस्लिम लीग की स्थापना तथा मजहबी उग्रवाद को बढ़ावा देने का काम किया जिसके विरोध में प्रचंड स्वदेशी आंदोलन चला तथा देशबन्धु चितरंजन दास, लोकमान्य तिलक, श्री विपिनचन्द्र पाल, श्री लालालाजपत राय, श्री अरविन्द, वीर सावरकर आदि ने एक राष्ट्रव्यापी चेतना का नया उन्मेष किया। उससे डरकर बंगाल का विभाजन रद्द हुआ परंतु मजहबी उग्रवाद का पोषण और तेज हो गया।
लोकमान्य तिलक तथा लाला लाजपतराय एवं विपिनचन्द्र पाल ने जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को पहली बार एक राष्ट्रीय संगठन बना दिया तब अंग्रेजों ने दक्षिण अफ्रीका में जांचे-परखे अपने परम मित्र मोहनदास करमचन्द्र गांधी को क्रांतिकारियों के विरूद्ध सरल भाषा में भारतीयों को प्रेरित करने के लिये उन्हें हिन्द स्वराज लिखने की प्रेरणा दी और साथ ही अचानक भारत आकर कांग्रेस में सक्रिय होने की भी प्रेरणा दी। गांधी जी अंग्रेजों के विश्वस्त मित्र भारतीयों में अन्यतम थे। वे सर्वाधिक प्रतिभाशाली थे। युवावस्था के आरंभ तक उन्होंने श्रीमद्भगवद गीता तक नहीं पढ़ी थी और भारतीय दर्शन से पूर्णतः अनजान थे परंतु कठोर परिश्रम करके उन्हांेने शास्त्र पढ़े, उनका पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया और भारतीय पदावली का भरपूर प्रयोग करके लोकमानस में असामान्य प्रतिष्ठा प्राप्त की। महात्मा का वेश भी बहुत सहायक बना। वे एक अत्यन्त समर्थ नेता थे और उनके घेरने पर अंग्रेज कई बार बुरी तरह घिर जाते थे तथा समर्पण को विवश हो जाते थे। परंतु किसी ऐसे कारण से, जिसका संबंध किसी निजी निर्बलता से हो सकता है, कई बार निर्णायक अवसरों पर वे अंग्रेजों के निर्देश का कुशलता से पालन करते हुये कांग्रेस को नियोजित कर देते थे।
प्रथम महायुद्ध में ही अंग्रेज भारतीय सेनाओं पर निर्भर हो गये थे और उन्होंने अपने हिस्से वाले ब्रिटिश भारत को क्रमशः स्वायत्तता देने की घोषणा की। मांटेग्यू एवं चेेम्सफोर्ड ने इस विषय में एक रिपोर्ट तैयार की जिसके आधार पर इंडिया एक्ट 1919 बनाया गया और राज्य सरकारों में भारतीय प्रतिनिधित्व बढ़ाया गया। उसके बाद से यह दिखने लगा कि आगे-पीछे अंग्रेजों को जाना होगा। इसलिये लंदन से पढ़ लिखकर आये राजनैतिक महत्वाकांक्षा वाले बहुत से लोग कांग्रेस में महत्वपूर्ण पद पाने के लिये कार्य करने लगे। अंग्रेजों ने कांग्रेस के इस नरमदलीय नेतृत्व को बढ़ाने के लिये और तेजस्वी धारा को दबाने के लिये जलियावालां बाग में भीषण नरसंहार किया और उनके इशारे पर कांग्रेस के नरमदलीय लोगों ने 1920 के नागपुर अधिवेशन में श्री विजय राघवाचार्य के नेतृत्व में अहिंसक आंदोलन तेज करने की घोषणा की।
इस बीच गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन में शामिल होने के लिये हिन्दुओं को मनाया। जबकि उन्हें अच्छी तरह पता था कि उनके मित्र अंग्रेजों ने तुर्की के खलीफा पद को समाप्त करने और वहाँ कमाल अतातुर्क को शासक बनाने की पूरी योजना बनाई है तथा जर्मनी का साथ देने के लिये तुर्की राज्य को नष्ट करने की नीति पर चल रहे हैं। अतः खिलाफत आंदोलन केवल राष्ट्रीय भावना को कमजोर करने के लिये ही चलाया गया। जैसे ही खलीफा की गद्दी स्वयं तुर्की ने समाप्त कर दी, उन्मत्त मजहबी उग्रवादियों ने अपना सारा जोश साथ देने वाले हिन्दुओं की हत्या में उतार दिया।
कुशल राजनेता के रूप में गांधीजी को यह सब आभास था और वे एक-एक कदम अपनी राजनैतिक योजना और अंग्रेजों के मैत्रीपूर्ण अनुरोध का समायोजन करते हुये चल रहे थे।
– प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज