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पांच राज्यों के चुनाव को कैसे देखें


अवधेश कुमार
चुनाव आयोग ने भले पांच राज्यों के विधानसभाओं की औपचारिक घोषणा अब की है, देश पहले से ही चुनावी मोड में है। काफी समय से पूरी राजनीति की रणनीति 2024 लोकसभा चुनाव के इर्द-गिर्द बनाई जा रही है। लोकसभा चुनावों के पूर्व यही विधानसभा चुनाव हैं और इसके परिणाम कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण होंगे। कुल 16 करोड़ 14 लाख मतदाताओं, 679 विधानसभा सीटों तथा 83 लोकसभा स्थानों का महत्व समझना कठिन नहीं है। इन चुनावों के पूर्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार ने संसद का विशेष सत्र बुलाकर महिलाओं को लोकसभा एवं विधानसभाओं में आरक्षण के लिए नारी सम्मान वंदन कानून बना दिया है। इन चुनाव में करीब 7 करोड़ 80 लाख महिला मतदाता हैं। यह पता चलेगा कि महिलाओं को आरक्षण देने से ये कितना प्रभावित हैं। यह चुनाव भाजपा, कांग्रेस तथा क्षेत्रीय स्तर पर बीआरएस यानी भारत राष्ट्र समिति के लिए एक हद तक करो या मरो जैसा है। कांग्रेस के लिए इनमें प्रदर्शन से आईएनडीआईए में राष्ट्रीय राजनीति यानी लोकसभा चुनाव की दृष्टि से उसकी हैसियत तय होगी। उसने अच्छा प्रदर्शन किया तो आईएनडीआईए का नेतृत्व हाथों आ सकता है। अच्छा नहीं रहा तो आईएनडीआईए में नेतृत्व की दावेदारी तथा सीटों के तालमेल में कमजोर पायदान पर खड़ी रहेगी। भाजपा के लिए भी यह महत्वपूर्ण है क्योंकि हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक की दो विधानसभा चुनावों में लगातार हार के बाद वह अगले पराजय का जोखिम नहीं ले सकती।
यद्यपि 2018 में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान विधानसभा चुनावों में पराजय के बावजूद 2019 लोकसभा चुनाव में भाजपा ने इन राज्यों में एकपक्षीय जीत दर्ज की थी किंतु लगातार पराजयों से पार्टी समर्थकों और कार्यकर्ताओं में निराशा पैदा होगी तथा विपक्ष मनोवैज्ञानिक लाभ उठा सकता है। प्रश्न है कि क्या इन चुनाव में पार्टियां अपनी अपेक्षाओं के अनुरूप परिणाम लाने में सफल होगी? चुनाव परिणाम की भविष्यवाणी हमेशा जोखिम भरी होती हैं इसलिए इससे बचना चाहिए। हालांकि पिछले चुनावों के प्रदर्शनों ,वर्तमान स्थिति, उम्मीदवार तथा मुद्दों के आधार पर कुछ आकलन कर सकते हैं। मध्यप्रदेश में 2018 चुनाव के बाद कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी थी जो 15 महीने बाद ही ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ 22 विधायकों के विद्रोह से खत्म हो गई। किंतु कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला था। उसे 114 और भाजपा को 109 स्थान मिले थे। भाजपा को कांग्रेस से 47हजार 827 मत भी ज्यादा मिले थे। भाजपा को 41.02% तो कांग्रेस को 40.9% मत मिले थे। यह विचार करने वाली बात है कि 15 सालों के सत्ता विरोधी रुझान, पार्टी के अंदर शिवराज सिंह चौहान के प्रति थोड़ा बहुत असंतोष तथा अनेक विरोधी मुद्दों के बावजूद अगर भाजपा बुरी तरह पराजित नहीं हुई तो क्या 2023 में स्थिति उससे ज्यादा खराब है ? राजस्थान में भी कांग्रेस बहुमत से पीछे 99 पर अटक गई थी तथा भाजपा को 73 सीटें मिली थीं। कांग्रेस 39.30 प्रतिशत तो बीजेपी 38.08% मत पायी थी। दोनों के बीच केवल 1लाख 77हजार 699 मतों का ही अंतर था। हां, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने भाजपा को बुरी तरह पराजित किया था। 90 विधानसभा सीटों में कांग्रेस को 68 तथा भाजपा को 15 सीटें मिली थी। कांग्रेस के 43.04 प्रतिशत वोटो के मुकाबले भाजपा को 33% आए थे। यानी 13 प्रतिशत से ज्यादा का अंतर था। तेलंगाना के 119 सीटों में तत्कालीन टीआरएस और वर्तमान बीआरएस ने 88, कांग्रेस ने 19 और भाजपा ने एक तथा एआइएमआइएम ने 7 सीटें प्राप्त की थी। जाहिर है भाजपा की स्थिति यहां काफी बुरी थी। मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट ने 26, कांग्रेस ने पांच, भाजपा ने एक तथा अन्य ने 8 सीटें जीती थी।
किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के पहले जरा चार महीने बाद हुए लोकसभा चुनाव परिणामों को भी देख लीजिए। मध्यप्रदेश के 29 में से भाजपा ने 28 तो कांग्रेस ने एक तो राजस्थान के 25 में से भाजपा ने 24 सीटें जीती और कांग्रेस एक स्थान भी जीत नहीं पाई, एक सीट आरएलपी को गया। छत्तीसगढ़ के 11 में से भाजपा ने 9, कांग्रेस ने दो सीटें जीतीं। जिस तेलंगाना में भाजपा का केवल एक विधायक जीता वहां लोकसभा में उसके चार सांसद जीते, कांग्रेस तीन और बीआरएस के 9, एमआईएम के एक सांसद जीते। मिजोरम की एक सीट एम एन एफ के खाते गई। मतों के अनुसार देखें तो राजस्थान में भाजपा को 58.47 प्रतिशत जबकि कांग्रेस को 34.24% मत है। यानी 24 प्रतिशत मतों की खाई। मध्यप्रदेश में भाजपा को 58% और कांग्रेस को 32.50% मत आया। यानी 26 प्रतिशत का अंतर है । छत्तीसगढ़ में भी भाजपा को 50.7 प्रतिशत एवं कांग्रेस को 40.90 प्रतिशत मत मिले। लगभग 10% से बीजेपी आगे है। तेलंगाना में लोकसभा चुनाव में बीआरएस ने 41.2%, कांग्रेस ने 29.4 8% तो भाजपा ने 19.45% वोट पाए।
यानी विधानसभा चुनाव के परिणाम मिजोरम को छोड़ चार राज्यों में उसी अनुरूप लोकसभा में नहीं रहे।
यह सच है कि इस समय भाजपा के समर्थकों और कार्यकर्ताओं में अपने राज्य सरकारों और वहां के नेतृत्व के विरुद्ध असंतोष एवं गुस्सा है क्योंकि शासन में उनकी व्यापक अनदेखी हुई है। हजारों की संख्या में इनके निष्ठावान कार्यकर्ता और समर्थक अपने जीवन में आज भी उसी तरह संघर्ष कर रहे हैं जैसे सत्ता में आने के पहले और बड़ी संख्या में वैसे लोग सत्ता का लाभ उठाया जो या तो विरोधी थे या जिनकी निष्ठा संदिग्ध थी। हिंदुत्व, राष्ट्रवाद या विचारधारा निश्चित रूप से भाजपा के अंदर असंतोष और गुस्सा होते हुए भी कार्यकर्ताओं -समर्थकों को विद्रोही होने से बचाता है लेकिन एक समय के बाद लोगों का धैर्य टूटता है। जनता के अंदर किसी राज्य में भाजपा के विरुद्ध व्यापक गुस्स नहीं है। किंतु कार्यकर्ता और समर्थक पार्टी के लिए काम नहीं करेंगे या विरोध में चले जाएंगे तो विजय मुश्किल होता है। हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक इसका उदाहरण है। 2022 के उत्तर प्रदेश चुनाव में माहौल बना कि अगर योगी आदित्यनाथ सरकार वापस नहीं आई तो मुस्लिमों और अपराधियों का बोलबाला हो जाएगा जिस कारण असंतोष और नाराजगी रहते हुए लोगों ने मतदान किया। यह हिमाचल और कर्नाटक में नहीं हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बनी हुई है, उनके प्रति कार्यकर्ताओं -समर्थकों का विश्वास भी है। किंतु वे जताना चाहते हैं कि राज्यों के नेता उनके विचारों और नीतियों के अनुरूप संगठन और सरकार का संचालन नहीं करते।
इस दृष्टि से देखे तो कांग्रेस के पास विजय का अवसर है। किंतु 2018 में केंद्र सरकार द्वारा अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण कानून में उच्चतम न्यायालय द्वारा किए गए व्यावहारिक संशोधन को पलट दिए जाने के कारण पिछड़ों व सवर्णो में गुस्सा था। केंद्र सरकार भी हिंदुत्व के मुद्दे पर शांत थी और सरसंघचालक मोहन भागवत को विजयादशमी में कहना पड़ा था कि हमारी सरकार है तो लोग पूछ रहे हैं कि अब राम मंदिर क्यों नहीं बन रहा है। यानी विचारधारा के स्तर पर असंतोष था। बावजूद कांग्रेस भाजपा भारी बहुमत पाने में सफल नहीं हुई तो इस समय ऐसा क्या है जिससे वह भारी जीत की उम्मीद कर सकती है? इस समय भाजपा की केंद्र व प्रदेश सरकारें विचारधारा पर मुखर होकर काम कर रही है। इसकी काट के लिए कांग्रेस की दो सरकारों तथा मप्र के नेताओं ने हिंदुत्व पर कई महीनो में भाजपा से ज्यादा मुखर वक्तव्य दिए हैं। बावजूद क्या आम मतदाता स्वीकार कर लेगा कि कांग्रेस भाजपा की तरह या उससे आगे हिंदुत्व के मुद्दे पर काम करेगी? नरेंद्र मोदी इन चुनावों में भी एक प्रमुख कारक होंगे और अपने समर्थकों व कार्यकर्ताओं के असंतोष को कम करने की भूमिका निभाएंगे। कांग्रेस का राज्य नेतृत्व भले हिंदुत्व पर मुखर है, केंद्रीय नेतृत्व नहीं। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद राहुल गांधी ने सर्वप्रमुख घोषणा यही कि हम जातीय सर्वेक्षण करेंगे। यानी जाति आधारित गणना कांग्रेस का सर्वप्रमुख एजेंडा है। क्या वर्तमान भारत 1990 के मंडल के दौर में लौटाने को तैयार है? बिहार में नीतीश सरकार ने जाति आधारित गणना कराई । वहां पिछड़ी जातियों में ही अनेक जातियां मानती हैं कि उनके आंकड़े कम दिखाए गए और यादवों के ज्यादा। प्रश्न यह भी उठेगा कि कर्नाटक सरकार ने 2014 में जाति गणना कराया, यूपीए सरकार ने 2011 में जनगणना के समानांतर जातियों की गणना कराई, राजस्थान में हुआ तो जारी क्यों नहीं किया गया? जाति गणना विपक्ष का मुद्दा होगा किंतु मतदाता पर मतदान करेंगे और शेष मुद्दे विकास, विदेश नीति, रक्षा, धर्म -संस्कृति, हिंदुत्व , सुरक्षा, प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत ईमानदारी, भारत को विश्व में प्रतिष्ठा दिलाने वाली उनकी छवि आदि की अनदेखी करेगा ऐसा मानने का कारण अभी तक नहीं दिखता है।

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