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हृदयनारायण दीक्षित :संस्कृत और संस्कृति

भारत के लोगों की तमाम आदर्श साधनाओं का सर्वोत्तम संस्कृति है। संस्कृति समाजचेता, दार्शनिकों और ज्ञानीजनों का सर्वोत्तम है। में भारत एक प्राचीन सभ्यता और संस्कृति है। इस देश का इतिहास अतिप्राचीन है। प्राचीनता के तत्वों में जाने हुए की तुलना में अनजाना भाग भी कम नहीं है। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, ‘‘इस देश का सबसे पुराना उपलब्ध साहित्य आर्यों का है। इन्हीं आर्यों के धर्म विश्वास नाना अनुकूल, प्रतिकूल परिस्थितियों में बनते बदलते अब तक इस देश की अधिकाँश जनता के निजी धर्म और विश्वास बने हुए हैं।‘‘ डॉ० द्विवेदी की यह स्थापना सही है। लेकिन आगे कहते हैं, ‘‘परन्तु आर्यों का साहित्य कितना भी पुराना और विशाल क्यों न हो भारतवर्ष के समूचे जनसमूह के विकास के अध्ययन के लिए न तो वह पर्याप्त ही है और न अविसंवादी ही है। इस देश में बहुत सी आर्येतर जातियां अत्यंत सभ्य और संस्कृत जीवन व्यतीत करती थीं। बहुत सी ऐसी भी थीं जिनके आचार विचार में जंगलपन का प्राधान्य था। संघर्ष में पड़कर आर्यों को दोनों प्रकार की जातियों से प्रभावित होना पड़ा। उनके साहित्य शिल्प और आचार विचार में ये प्रभाव स्पष्ट है। आर्यों के पश्चात भी अनेक जातियां यहाँ आईं।‘‘ डॉ० द्विवेदी मानते थे कि पहले यहाँ आर्य आए। उसके बाद भी यहाँ अन्य जातियां आईं। वे आर्यों को यहाँ का मूल निवासी नहीं मानते। लिखते हैं, ‘‘आर्यों सहित बाहर से आईं तमाम जातियों का मिलनक्षेत्र यह भारतवर्ष है।‘‘
डॉ० द्विवेदी की सारी बातें उचित हैं लेकिन आर्यों को बाहर का आया हुआ बताना गलत है। आर्य बाहर से नहीं आए। उन्होंने आर्यों और द्रविड़ों की सभ्यताओं का संघर्ष भी बताया और बाद में समन्वय भी। मध्यकाल में यहाँ इस्लाम आया। इसके पहले अनेक पंथ विश्वास यहाँ फल फूल रहे थे। विचार विविधता थी। लेकिन जीवन का दृष्टिकोण लगभग एक था। यह एकरूपता अभी भी जस की तस है। डॉ० द्विवेदी ने बताया है, ‘‘इस एकरूपता के कारण ही नाना मतों के मानने वाले, नाना स्तरों पर खड़े हुए नाना मर्यादाओं में बंधे हुए अनेक जनवर्ग एक सामान्य नाम से पुकारे जाने लगे। यह नाम था हिन्दू। हिन्दू अर्थात भारतीय।‘‘ हिन्दू और भारतीय समानार्थी हैं। हिन्दुत्व और प्राचीन संस्कृति एक हैं। यहाँ रीति रिवाज आस्था विश्वास और उपासना भिन्न भिन्न रहे हैं। कुछ समूह आस्तिक थे तो कुछ अल्प समूह नास्तिक भी थे। आस्था और आस्तिकता पर तर्क भी थे। संशय थे। लेकिन पूरे देश व दुनिया को आनंद मगन करने के लक्ष्य समान थे। इस्लाम के आने के बाद यहाँ स्पष्ट रूप में समाज दो खण्डों में विभाजित हो गया। इस्लाम का उद्देश्य परस्पर समन्वय प्रेम और आत्मीयता बढ़ाना नहीं था। वे संपूर्ण भारत को इस्लाम अनुयायी बनाने के लक्ष्य पर काम कर रहे थे। इस कारण भारत में भारी संघर्ष भी चला। जोर जबरदस्ती भय व प्रलोभन के आधार पर धर्मांतरण होते रहे। हिन्दुओं का उत्पीड़न हुआ। कहीं कहीं व्यापक संहार भी हुए। इस्लाम में तर्क और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए कोई स्थान न था न है। इसलिए भारत में बाहर से आए तमाम जनसमूहों की तरह इस्लाम अनुयायियों का विलीनीकरण भारतीयकरण नहीं हुआ।
कुछ विद्वानों ने यहाँ आर्य और अनार्य के बीच कपोलकल्पित संघर्षों को भी इतिहास का अंग बताया है। जबकि ऐसे समूहों के बीच कोई युद्ध नहीं हुआ। छुटपुट स्थानीय लड़ाइयों की बात दीगर है। आर्य वैदिककाल के प्रमुख जनसमूह हैं। उनकी संस्कृति सर्वसमावेशी रही है। बाहर से भारत आए जनसमूहों को भी प्राचीन आर्यों ने सम्मान दिया। मुसलमानों के आने के पहले यहाँ एक तार्किक समाज था और आज भी है। आर्य परंपरा ने ही कर्मफल का सिद्धांत विकसित किया। कर्मफल के सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्म का परिणाम मिलता है। कभी कभी कठोर कर्मतप का परिणाम भी मिलता नहीं दिखाई पड़ता। लेकिन इसके साथ ही पुनर्जन्म के सिद्धांत ने ऐसे कर्मों के परिणाम को पुनर्जन्म से जोड़ा। प्रत्यक्ष जीवन के शुभ और अशुभ परिणाम पुनर्जन्म के कर्मों का परिणाम भी हो सकते हैं। ऐसा कर्मफल का सिद्धांत दुनिया की किसी भी सभ्यता में नहीं मिलता। निस्संदेह पुनर्जन्म का सिद्धांत बौद्धों में भी रहा है। प्रख्यात यूनानी दार्शनिक पाइथागोरस (ईसापूर्व पांचवीं शताब्दी) ने भी पुनर्जन्म के सिद्धांत को माना। बहुत संभव है कि पाइथागोरस ने पुनर्जन्म का सिद्धांत भारत से पाया हो। प्रख्यात विद्वान विलियम जोंस, कोल ब्रुक, हॉपकिंस आदि ने कहा है कि यह सिद्धांत पाइथागोरस ने भारत से ही पाया था। कुछ विद्वानों ने इसके उलट भी मत व्यक्त किया है कि हिन्दुओं ने यह सिद्धांत पाइथागोरस से पाया था। यह सच नहीं है। पुनर्जन्म का सिद्धांत भारत ने पाइथागोरस से नहीं सीखा। पाइथागोरस ईसापूर्व पांचवीं शताब्दी के विद्वान थे। तब यहाँ बौद्ध धर्म बहुप्रचारित था और बौद्ध पुनर्जन्म मानते थे। बौद्ध धर्म के भी पहले यहाँ उपनिषद दर्शन था। कठोपनिषद, ईशावास्योपनिषद जैसी अनेक उपनिषदें बौद्ध पंथ के पहले की है और उपनिषदों में पुनर्जन्म की धारणा है।
यूनानी दर्शन की तमाम मान्यताएं भारतीय उपनिषद दर्शन से मिलती हैं। थेल्स (ईसापूर्व छठवीं शताब्दी) ने जल क¨ सृष्टि का आदितत्व माना था। यह धारणा ऋग्वेद में बहुत पहले से है। ऋग्वेद में कहते हैं कि ”जल माताएं ही इस संसार को जन्म देने वाली हैं।” इसी तरह यूनानी दार्शनिक अनक्सिमेनस ने वायु को सृष्टि का आदितत्व माना था। वायु को आदितत्व और प्रत्यक्ष ब्रह्म मानने की धारणा ऋग्वेद में है। उपनिषदों में भी है। हिराक्लिटस ने ताप से सृष्टि के उदभव की व्याख्या की। ऋग्वेद में भी यह धारणा पहले से है। भारतीय संस्कृति का सतत् विकास हुआ है। प्राचीन काल में इस विकास का नेतृत्व दर्शन ने किया है। अब विज्ञान वही काम कर सकता है।
दर्शन भारतीय संस्कृति की मूल भूमि है। इसमें भी उपनिषद और भारतीय दर्शन की 8 धाराएं सांस्कृतिक विकास की मूल भूमिका हैं। जैसे माननीय न्यायालयों ने निर्वचन में संविधान का एक मूल ढांचा बताया है। वैसे ही भारतीय संस्कृति का मूल ढांचा प्राचीन दर्शन है। प्राचीन दर्शन से अलग हट कर भारतीय संस्कृति का सही विवेचन नहीं हो सकता। भारतीय दर्शन का बड़ा भाग संस्कृत भाषा में प्रकट हुआ है। संस्कृत में ही यहाँ के दार्शनिकों ने स्वयं को अभिव्यक्त किया है। उच्चतम न्यायालय ने संविधान के मूल कर्तव्यों में उल्लिखित ‘सामासिक संस्कृति‘ की व्याख्या की है। संतोष बनाम मानव संसाधन मंत्रालय 1994 वाद में उच्चतम न्यायालय ने बताया है कि इस सामासिक संस्कृति का आधार संस्कृत भाषा और साहित्य है जो इस महान देश के भिन्न भिन्न जनों को एक रखने वाला सूत्र है। हमारी विरासत के संरक्षण के लिए शिक्षा प्रणाली में संस्कृत को चुना जाना चाहिए।‘‘ न्यायालय ने कहा है कि, ‘‘यद्यपि इस देश के लोगों में अनेक भिन्नताएं हैं। वे इस बात पर गर्व करते हैं कि वे एक सामान्य विरासत के सहभागी हैं और वह विरासत और कोई नहीं संस्कृत की विरासत है। संस्कृति को मजबूत करने की दृष्टि से संस्कृत का अध्ययन प्रसार और संवर्द्धन अनिवार्य है। राजभाषा हिंदी भी इसी सांस्कृतिक विकास का महत्वपूर्ण उपकरण है।

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