आजकल देश के पर्वतीय क्षेत्रों में, उदाहरणार्थ उत्तराखंड के जोशीमठ एवं चमोली में, पर्यावरण प्रतिकूल परिस्थितियाँ बन रही हैं और पर्वतों के दरकने या धँसने से क्षतिग्रस्त मकानों से लोगों को निकालकर स्थानान्तरित किया जा रहा है। ये परिस्थितियाँ अनायास संयोगवश नहीं बनी हैं, अपितु पर्वतीय वनक्षेत्र की दीर्घकाल से अनदेखी का यह परिणाम है। भारतवर्ष वनजीवियों एवं पशुपालकों का देश है, उन्नीसवीं शताब्दी तक हमारे देश के संबंध में ऐसी वैश्विक मान्यता बनी रही। वनों की सघनता और जैव-वैविध्य (भाँति-भाँति के पशु-पक्षियों एवं वृक्षों-वनस्पतियों की उपस्थिति) के लिए भारत जाना जाता था। औषधीय जड़ी-बूटियों के संरक्षण की ललक और पर्यावरण या जीवमंडल के समग्र विकास में तादात्म्य या भाव प्रवणता मनुष्य मात्र में देखी जाती थी। प्राचीन युग में लोपामुद्रा- अगस्त्य, अरून्धती -वसिष्ठ, रेणुका -जमदाग्नि जैसे ऋषि-युगलों ने निरन्तर अपने स्वेदकण लुटाकर वसुन्धरा की हरियाली बनाये रखी, और भरपूर जैव-वैविध्य पूर्ण वन-गोचर क्षेत्र स्थापित किये; यह सुंदर वर्णन भारतीय वाङ्मय वेद, पुराण, उपनिषद् रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत आदि में हुआ है। विक्रमाब्द से दो शताब्दी पूर्व भारतीय नीतिविद चाणक्य ने अपनी कृति ’अर्थशास्त्र’ में प्राकृतिक संसाधनों एवं ऋत् (प्राकृतिक व्यवस्था) के प्रति मनुष्य के समर्पण भाव को नीति का वैसा ही प्रधान तत्त्व माना है, जैसा कि सामाजिक एवं पारिवारिक मूल्यों के प्रति दायित्व है। संभवतः 5 वें विक्रमाब्द के संस्कृत कवि एवं नाटककार कालिदास अपनी कृतियों रघुवंश, कुमारसंभव, मेघदूत, अभिज्ञान शाकुन्तलम् आदि में सघन वनों का मनोरम चित्रण करते हैं, हिमालय के प्राकृतिक सौंदर्य और उपवनों का चित्ताकर्षक चित्र उकेरते हैं, नदियों और तड़ागों का भी सुन्दर वर्णन करते हैं। प्राकृतिक सौंदर्य को चमत्कारिक भाषा प्रदान करने के कारण कवि कालिदास को संपूर्ण विश्व ’प्रकृति का कवि’ कहकर पुकारता है। किन्तु इन महाकाव्यों में वर्णित वनशोभा भारत में एक हजार वर्षों की परतंत्रता उपरान्त नहीं दिखाई देती। परतंत्रता काल में भारतभूमि में वन-गोचर विनाश का भयावह दृष्य उपस्थित हुआ, किंतु आश्चर्य कि 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत भी वन-गोचर विनाश-लीला निरन्तर चलती रही। उत्तराखंड में जोशीमठ और चमोली में भूमि का दरकना और धँसना वन-गोचर विनाश का ही परिणाम है।
मुगल- एवं ब्रिटिशकालीन दासता का कालखंड भारतीयों की विवशता का कालखंड रहा है। हम चाहकर भी अपनी सुजला सुफला मातृभूमि की हरियाली इस कालावधि में सँजोये नहीं रख सके। फिर भी उन्नीसवीं ईसवी शताब्दी तक हमारे देश में सघन वन-गोचर क्षेत्र हुआ करते थे। किंतु ब्रिटिश सरकार ने 1824 में पहली बार वैधानिक रूप से निर्माण कार्य के लिए वन-गोचर भूमि अधिगृहीत करना प्रारंभ किया। 1894 में भूमि अधिग्रहण अधिनियम बना, जिसके अंतर्गत सरकार द्वारा न केवल लोगों के साझा उपयोग की वन-गोचर भूमि, क्षतिपूर्ति राशि देकर गाँवों ढाणियों की कृषिभूमि भी निर्माण कार्य हेतु अधिगृहीत की जा सकती थी। मसूरी, देहरादून जैसे अनेक पर्वतीय नगर अंग्रेजों के सैरसपाटे और आवास के लिए बसाये गये तो भारी मात्रा में वन-गोचर भूमि का विनाश हुआ। देश की वन संपदा, वन्यजीव संपदा, गोचर संपदा और दुधारू पशु संपदा पर संकट गहराया तो इस पर आश्रित मानव संसाधन की वह आजीविका भी छिनती चली गई जो प्राचीन भारतीय समाज व्यवस्था में उन्हें सहज उपलब्ध थी। प्राचीन काल में भारत में पशुपालक गोचर भूमि का रखरखाव करते थे और उस भूमि में अपने पशु भी चराते थे।
इसी प्रकार वनजीवी वनों की हरियाली और औषधीय उपयोग की पत्तियाँ, छाल आदि बटोरते थे। परन्तु जब देश के वनजीवी एवं पशुपालक वर्ग की आँखों के सामने उसके साझा उपयोग की भूमि विनष्ट होती गई तो वह आक्रोशित होकर वन-गोचर उजाड़ने की सरकारी प्रक्रिया के विरोध में उतर आया। इस आक्रोश एवं विरोध की तीव्रता तब उभरकर आई जब लाल-बाल-पाल के नेतृत्व में जन-आंदोलन ने संगठित रूप ग्रहण किया। 1920 के दशक में जंगल सत्याग्रह चला जिसका उद्देश्य वन-गोचर भूमि की रक्षा करना और वनवासियों एवं पशुपालकों की आजीविका बचाना था। जंगल सत्याग्रह अलग-अलग स्थानों पर विभिन्न जननायकों की अगुवाई में चला। जनवरी 1922 में छतीसगढ़ के नगरी-सिहावा जंगल में जननायक श्यामलाल सोम के नेतृत्व में जंगल सत्याग्रह सुनियोजित रूप से प्रारंभ हुआ, जलावन की लकड़ी काटकर कथित जंगल कानून तोड़ा गया। इस सत्याग्रह में 33 सत्याग्रही गिरफ्तार किये गये। उल्लेखनीय है कि वन-विनाश के मुद्दे पर बस्तर (छत्तीसगढ) में अमर हुतात्मा गुंडा धुर धुरवा ने 1909-10 में प्रचंड जन आंदोलन चलाया था। जंगल सत्याग्रह की धमक मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र आदि देश के अन्य भागों तक भी पहुँची। 1925 में प.पू. डा. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा नागपुर में हिन्दू समाज के संगठन के उद्देश्य से स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में, वन-गोचर क्षेत्र बचाने की दृष्टि से जंगल सत्याग्रह में सक्रिय भागीदारी निभाई जाये, ऐसी चर्चाएँ चलने लगीं। 1930 के आते-आते महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ में जंगल सत्याग्रह ने प्रभावी रूप ग्रहण किया।
1930 में जंगल सत्याग्रह की गूंज संपूर्ण भारतवर्ष में सुनाई दी। यह सत्याग्रह वनवासियों के स्वाभिमान, वन-गोचर रक्षा और देश की स्वतंत्रता के लिए एक महत्त्वपूर्ण जन-आंदोलन था। छत्तीसगढ़ में गट्टा सिल्ली (धमतरी) में छोटेलाल श्रीवास्तव एवं नत्थुजी जगताप के नेतृत्व में, मोहबना पोंड़ी (दुर्ग) में नरसिंह अग्रवाल के नेतृत्व में, पोंड़ी ग्राम सीपत (बिलासपुर) में रामाधार दुबे के नेतृत्व में, तमोरा (महासमुन्द) में दयावती एवं शंकरलाल यतीयतानलाल के नेतृत्व में, लभरा (महासमुन्द) में अलिमर्दनदगिरी के नेतृत्व में, बाँधाखार (कोरबा) में मनोहरलाल शुक्ला के नेतृत्व में और सारंगढ (रायगढ़) में धनीराम एवं कुंवरभान के नेतृत्व में 1930 में जंगल सत्याग्रह हुए। 1930 में मध्य प्रदेश में भी प्रचंड जंगल सत्याग्रह चला, जिसका प्रारंभ तुरिया (सिवनी) में लोहार सेनापति के नेतृत्व में और घोड़ा डोंगरी (बैतूल) में बंजारी सिंह कोरकू एवं गुंजन सिंह कोरकू के नेतृत्व में हुआ। दुर्गाशंकर मेहता ने सिवनी जिला केन्द्र पर वनवासी बंधुओं का नेतृत्व करते हुए शासकीय चंदन उद्यान में घास काटकर ब्रिटिश शासन की वन-विनाश गतिविधि के विरूद्ध हुंकार भरी। इनके अतिरिक्त भी यह सत्याग्रह बंजारी, ढाल, ओरछा, धुनघुटी, छिंदवाड़ा और हरदा के जंगलों में भी हुआ।
महाराष्ट्र में जंगलों से लकड़ी और चारा काटने पर प्रतिबंध और कर लगने की स्थिति में पशुओं का चारा बहुत मँहगा और दुर्लभ हो गया था। इस अन्याय के विरोध में लोगों की शिकायतें ब्रिटिश सरकार द्वारा अनसुनी कर दी गई तो चारे की कटाई पर प्रतिबंध की अवज्ञा करने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं बचा था। इसलिए जंगल की घास बिना अनुमति काटने का निश्चय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा किया गया और यह निर्णय भी स्वयंसेवकों द्वारा लिया गया कि प.पू. डा. हेडगेवार जी के नेतृत्व में जंगल सत्याग्रह यवतमाल के पुसद वनक्षेत्र में किया जाये। डा. केशव बलिराम हेडगेवार जी ने अपना संरसंघचालक का दायित्व डा. लक्ष्मण वासुदेव परांजये को सौंपकर जंगल सत्याग्रह में पूरी तन्मयता से सहभागिता की। उन्होंने यवतमाल जाते समय पुसद नामक स्थान पर आयोजित जनसभा में भारतमाता को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त करने का संकल्प व्यक्त किया। उनके साथ दस हजार सत्याग्रही थे। डा. हेडगेवार जी के साथ सत्याग्रही जत्थे में अप्पा जी जोशी, दादाराव परमार्थ आदि अंग्रिम पंक्ति के 12 स्वयंसेवक थे। इन सभी को 9 मास सश्रम कारावास का दंड मिला। इसी क्रम में महाराष्ट्र में बिलाशी, अकोला, संगमनेर, कलवण, चिरनेर (रायगढ), लोहार (चंद्रपुर), सोलापुर आदि स्थानों पर भी जंगल सत्याग्रह हुए।
डा. हेडगेवार जी ने वन-गोचर विनाश रोकने और वनवासी-पशुपालक बंधुओं की आजीविका अबाध रूप से चलने देने का विचार सामने रखते हुए कहा कि भारत जब स्वतंत्र हो, ऐसी ही वननीति अपनाई जाये। काश प.पू.डाक्टर जी के निष्कर्ष सर्वमान्य रूप से स्वातंत्रयोत्तर भारत में लागू होते। परन्तु इससे उलट अंग्रेजों का बनाया हुआ भूमि अधिग्रहण अधिनियम ज्यों का त्यों चलता रहा। 1952 में वननीति में न्यूनतम 33.33 प्रतिशत भूमि पर सघन वन स्थापना का निर्णय अवश्य लिया गया। परन्तु वन सर्वेक्षण – 2021 के आँकड़ों के अनुरूप वननीति का पालन केवल 17 राज्यों एवं केन्द्र शासित क्षेत्रों में हो रहा है। दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता के अमृतकाल में भी देश का औसत वनक्षेत्र 24.62 प्रतिशत ही है। डाक्टर जी के स्वप्न पूर्ण हों, तभी पुसद में प्रस्तावित जंगल सत्याग्रह स्मारक बनाने का औचित्य सिद्ध होगा। इस दृष्टि से मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के शब्द उल्लेखनीय हैं- ’’1952 में बनाई गई वननीति को क्रियान्वित नहीं किया गया। इस दृष्टि से आवश्यक संशोधन भारतीय वन कानून में नहीं किये गये। जंगलों को अविवेकपूर्ण ढंग से काटा गया। पहाड़ अपनी नींव छोड़ रहे हैं। प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। वनस्पति सृष्टि तथा प्राणी सृष्टि का विनाश हो रहा है, और सबसे बड़ी बात यह हो रही है कि वनवासियों का आश्रय स्थान भी कम होता जा रहा है।’’ इस तथ्य के आलोक में भारतीय नेतृत्व को महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने की आवश्यकता है।
-रमेश कुमार शर्मा,