यह अद्भुत देश जो प्रकाश के पुंज से घिरा हुआ है इसका नाम” भारत” है। ईश्वर की सृष्टि रचना की तरह यह देश विविधता में एकता का दुनिया में अकेला अनूठा संगम है। जहां हर पांच कोस पर पानी , भाषा और रहन सहन के तौर तरीके बदल जाते हैं। कुछ रह जाता है तो सबमें प्रेम , देश, समाज और प्राणी मात्र के प्रति। वर्तमान में काल परिवर्तन के कारण कुछ बदलाव आया ज़रूर है। ऐसे समाज को शब्दों और उनके अर्थ को लेकर तोड़ने का प्रयास करने वालों को आप क्या उपमा देंगे । सब व्यक्ति विशेष पर निर्भर करेगा। “जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी ” वाले तर्ज पर…लेकिन इसी बहाने..
…….आज कुछ चर्चा शब्दों और उनके अर्थों पर हो जाए। ताकि जो ऐसे लोग जो राजनीतिक और निज स्वार्थ की पूर्ति लिए समाज और राष्ट्र को विखंडित करना चाहते हैं, उनकी धूर्तता समझ में आ सके ….
1. राजस्थान में बेटी, बहू, महिला को बाई जी कहना सम्मान देना माना जाता है। जैसे नर्स बाई.. क्या उत्तर प्रदेश या देश के अन्य हिस्सों में किसी महिला के लिए इस शब्द का प्रयोग करने की हिम्मत है किसी में…।
2. हम बचपन में इलाहाबाद जो वर्तमान का प्रयागराज है में, बातचीत के दौरान किसी को ” लौंडा” कह कर बुला लेते थे क्या बिहार में किसी को इस शब्द से बुला सकते हैं।
3. आप देश के तमाम हिस्सों में छोले भटूरे खाते हैं। छोला मांग लेते हैं..पंजाब में छोले मांगने पड़ेंगे। यदि छोला कहा तो कहने वाले का “छोला” तोड़ दिया जाएगा।
4..उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में किसी महिला से खाने को “कढ़ी ” मत मांग लेना, मार मार कर गंजा कर दिया जायेगा। वहां झोली..भात ( हमारे क्षेत्र का कढ़ी चावल) कहा जाता है।
5.. कुमाऊं में किसी बच्चे को “छोरा” या “छोरी” कह दो पीट कर कर सुजा दिया जायेगा। जबकि राजस्थान में लड़कों को छोरा लड़कियों को छोरी कहना आम बात है।
6.” भेल पूरी ” महाराष्ट्र से निकल कर पूरे देश में छा गई है। कुमाऊं में भेल का अर्थ है “चूतड”..तो क्या खा रहे हैं आप सब बड़े शौक से
यह तो कुछ उदाहरण है, और बहुत से शब्द हैं जो अर्थ का अनर्थ कर देते हैं क्षेत्र विशेष के परिवर्तन पर…तो इस विविधता को बने रहने दें। मुगल आए , ब्रितानी आए, मंगोल आए, पुर्तगाली, जाने कितने अक्रांता आए, या तो सब चले गए या इसी समाज में मर खप गए लेकिन कोई भी इसकी विविधता को तोड़ नहीं पाया तो क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए मंत्री पद के अभिलाषी उनके आका और समर्थक क्या तोड़ पाएंगे। यह समाज और राष्ट्र आपको उसी स्थान पर पहुंचा देंगे जहां पहले तमाम ऐसा प्रयास करने वाले पहुंच चुके हैं, गुमनामी और अंधकार के गर्त में। इसी लिए यह आभा में रत भारत कहलाता है….
निशीथ जोशी
शिक्षा पर एक पोस्ट पर हुई चर्चा में मित्रवर अमरनाथ झा जी ने एक प्रश्न पूछा था कि यदि विद्या को हम कौशल मानें तो इससे विनय कैसे उत्पन्न होगा।
इस प्रश्न का मूल कारण विनय शब्द का आज प्रचलित अर्थ है। आज विनय का अर्थ माना जाता है नम्र होना। वास्तव में विनय शब्द में जो नय है, उसका अर्थ है नीति, नेता तथा मार्गदर्शन। इसलिए विनय शब्द का अर्थ जो “विद्या ददाति विनयं” में नीतिकार का अभिप्रेत है, वह नम्रता नहीं है, बल्कि विशेष नीति तथा मार्गदर्शन का जानकार होना है। विशेष नीति केवल सामाजिक ही नहीं होती, वह हरेक क्षेत्र में होती है। विशेष नीति से संपन्न व्यक्ति ही पात्र यानी योग्य माना जाता है। यह विनय और उससे जन्य पात्रता कौशल यानी विद्या से ही मिल सकती है।
विनय शब्द के इस अर्थ की ओर मेरा ध्यान सर्वप्रथम गुरुवर रामेश्वर मिश्र पंकज जी ने दिलाया था। अमरनाथ जी ने जब यह प्रश्न पूछा तो इस पर मुझे और अध्ययन करने का अवसर मिला। इससे यह विषय और अधिक स्पष्ट हुआ कि शास्त्रों का अर्थ करने के लिए परंपरा का ज्ञान भी अत्यावश्यक है, आवश्यक नहीं कि शब्दों के जो अर्थ अभी प्रचलित हैं, वही शास्त्रकारों का भी मन्तव्य रहा हो, वह भिन्न हो सकता है, क्योंकि आज यूरोपीय प्रभाव में संस्कृत शब्दों के अंग्रेजी अर्थ ही प्रचलित हैं, उसके शास्त्रशुद्ध अर्थ नहीं।
परस्पर सुसंस्कृत संबोधनों की जगह भद्दे संबोधनों का लज्जास्पद चलन
यदि हम महाभारत तथा अन्य इतिहास ग्रंथों और श्रेष्ठ साहित्य एवं धर्मशास्त्र को पढ़ने लगें तो हमें इन दिनों हमारे घरों में पति और पत्नी के लिये प्रयुक्त भद्दे संबोधनों पर गहरी लज्जा अवश्य होगी।
अपनी प्रिया पत्नी के लिये हमारे समस्त वांग्मय में कितने सुन्दर संबोधन भरे पड़े हैं। मैं इन दिनों महाभारत पर बोल रही हूं और फिर से वह सब सामने आ रहा है। दुष्यंत और शकुन्तला का ही संवाद ही लें जो आदिपर्व में वर्णित है – दुष्यंत शकुन्तला को देवि, विशाल लोचने, कल्याणी, सुभगे आदि संबोधनों से ही संबोधित करते हैं। इसी प्रकार अन्यत्र भी वरारोहे, शुचिस्मिते, आर्ये आदि सुन्दर संबोधन हैं। पत्नी को कांता, कमललोचने, सहधर्मचारिणी, प्रिया, प्रियतमा, सुन्दरी आदि संबोधन संस्कृत साहित्य में भरे पड़े हैं।
परन्तु इन सुन्दर और श्रेष्ठ शब्दों के प्रयोग में वर्तमान शिक्षित हिन्दू ईसाइयों और म्लेच्छों के दबाव में शर्माते हैं और उसकी जगह इन भद्दे संबोधनों और शब्दों का प्रयोग करते हैं – ये मेरी वाइफ हैं, श्रीमती हैं, बीबी हैं, मिसेज हैं आदि-आदि। इन घटिया शब्दों का प्रयोग करने में किसी भी संस्कारी हिन्दू को लज्जा होनी चाहिये, परन्तु नहीं होती।
-प्रो. कुसुमलता केडिया
(जम्बू टॉक्स पर ‘अथ श्री महाभारत कथा के चौथे व्याख्यान का एक अंश’)
कुसुमलता केडिया
संस्कृत के ‘उपायन’ शब्द से आपका पाला नहीं पड़ा होगा, पर ‘उपायन’ से अवश्य पड़ा होगा,
उपायन यानी भेंट, उपहार …
यह उपायन शब्द हमारी भोजपुरी में ‘बायन’ होकर प्रजाजनों मने परजूनियों को बँटने लगा,
मैथिली में बेन, अवधी में बैना, और
कन्नौज-कानपुर से ब्रज होते हुए राजस्थान तक यह ‘बायना’ रूप में प्रसारित होता है,
और; उर्दू में जाकर अग्रिम, एडवांस के प्रतिरूप ‘बयाना’ में परिवर्तित हो गया
साभार
False friends (‘faux amis’) उन शब्दों को कहा जाता है जो एक से ज्यादा भाषाओँ में इस्तेमाल होते हैं लेकिन अलग अलग अर्थ में | जैसे मान लीजिये कि किसी उर्दू-फारसी जानने वाले से कहिये, “वो दस्त उठा कर दुआ मांग रहा था” तो चल जाएगा, उसके लिए ‘दस्त’ का मतलब हाथ है | कहीं जो दस्त का हिंदी वाला मतलब निकाल लिया, तो दिक्कत होगी | संस्कृत जानने वालों के लिए ‘पाद’ का जो मतलब है वो हिंदी वालों के लिए नहीं होता | अगर आप फ्रेंच सीखने बैठे हैं और librairie का मतलब library समझ लिया है तो गलती कर रहे हैं | फ्रेंच शब्द librairie का मतलब किताब की दुकान होता है |
साहित्य-इतिहास जैसे विषयों में थोड़ी भी रूचि रखने वालों को ये पता होता है | उनसे किसी शब्द का मतलब पूछेंगे, तो वो कूद कर आपको मतलब नहीं बताने लगते | पहले आपसे एक बार पूछ लेते हैं कि किस वाक्य में इस शब्द का इस्तेमाल देखा है ? कहाँ पढ़ा, या सुना है ये शब्द ? उसके आधार पर ही मतलब बताया जायेगा | शेक्सपियर की किताबें भी देखेंगे तो Naughty का मतलब अभी वाला नहीं होता, revolve अलग है, ecstasy अलग है |
आज के ज़माने में wink का मतलब आँख मारना होता है | आज के दौर में Wink करने वाला व्यक्ति या तो कुछ ऐसा जान रहा होता है जो छुपाये जाने योग्य हो, या कोई ऐसा मजाक कर रहा होता है जो असहज कर सके | ऐसा नहीं है कि शेक्सपियर इस अर्थ में wink शब्द का इस्तेमाल नहीं करते थे | ऐसे ही अर्थ में ये प्रयुक्त होता है (‘I will wink on her to consent’, says Burgundy to Henry, of Princess Katherine, in Henry V, V.ii.301) | लेकिन अगर आप देखेंगे कि यॉर्क अपने मित्रों को कह रहे हैं ‘wink at the Duke of Suffolk’s insolence’ (Henry VI Part 2, II.ii.70) तो वो कोई अपने दोस्तों को आँख मारने नहीं कह रहे होते | या फिर जब ऑथेलो अपनी डेस्देमोना का जिक्र करते हुए कहते हैं ‘Heaven stops the nose at it, and the moon winks’ (Othello, IV.ii.76) तो वो चाँद को आँख मारने नहीं कह रहे होते |
उस ज़माने में इसका मतलब आँख बंद करना होता था |
हाल में आवेदनों की भाषा में “I beg to state” जैसे वाक्यों का इस्तेमाल भी CBSE जैसी संस्थाओं ने हटाया है | उस ज़माने में जैसे beg to state किन्ही बड़े लोगों से बात करने का तरीका होता था, वैसे आज फिरंगी आका तो सर पे हैं नहीं इसलिए भाषा भी बदली | भगत सिंह के ज़माने में terrorism का वो गन्दा सा मतलब नहीं होता था जो आज होता है | तो वो जब terrorism लिखते हैं तो उसका वही मतलब नहीं होता जब कोई उपन्यासकार 1980-90 के दौर में terrorist लिखता है तब होगा | कुछ अंगूठा छाप लोग जो किन्ही उपन्यासकारों के बचाव में अपने अज्ञान का सार्वजनिक प्रदर्शन करने में जुटे हैं उन्हें शब्दों के अर्थ बदलने का ध्यान रखना चाहिए | अपनी विकृत मानसिकता के साथ बीच बाजार नंगा होने से कहीं बेहतर है कि गलती कबूल के सुधार लिया जाए |
बाकी दम हो तो कभी अपने आयातित परंपरा के खोल से बाहर, विदेशी फण्ड से मैनेज किये जा रहे AC कमरे से बाहर कह लीजियेगा भगत सिंह को टेररिस्ट | आर्म्ड अर्बन रिवोल्यूशन से भी सुधारा जा सकता है, हमें विशेष परहेज भी नहीं ऐसे तरीकों से |
व्यवहार में बदलाव लाना मुश्किल काम माना जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि व्यवहार में परिवर्तन के लिए कुछ सीखना पड़ता है और सीखना हर बार आसान नहीं होता। ऐसा भी माना जाता है कि जैसे जैसे उम्र बढ़ती जाती है, सीखने की क्षमता कम होती जाती है। संभवतः इस वजह से कभी कभी लोगों ने पूछना चाहा कि लोगों को भगवद्गीता या दुर्गा सप्तशती जैसे ग्रन्थ पढ़ने की सलाह देने का क्या फायदा? सवाल के भेष में छुपी हुई इस सलाह के साथ समस्या ये थी कि ये कोई नयी बात तो थी नहीं! हमें पहले से ही ये पता था इसलिए हम इस सवाल को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देते।
हमारा निजी विचार है कि भगवान ने हमें दो कान दिए ही इसलिए हैं ताकि बकवास को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाला जा सके! इस सवाल उर्फ़ सलाह को न सुनने का दूसरा कारण था नॉबेल पुरस्कार विजेता रिचर्ड थेलर की किताब “नज”। रिचर्ड थेलर को व्यवहार और उसमें बदलाव लाने के अध्ययन के लिए 2017 में नॉबेल पुरस्कार मिला था। हिंदी में “नज” के लिए कोई बढ़िया शब्द नहीं सूझता। इसे हल्का सा उकसाना, या बार बार प्रेरित करना कहा जा सकता है। बिहार में इसके लिए स्थानीय शब्द “हुड़कुच्चा” होता है। यही जब ज्यादा हो जाए तो इसे हमलोग “धकिया के काम करवाना” भी कहते हैं। हिंदी पट्टी में इतने सारे सरकारी दफ्तर होने के बाद भी हिंदी में “हुड़कुच्चा” के लिए कोई शब्द क्यों नहीं है पता नहीं।
खैर तो रिचर्ड थेलर कैसे किस्म के “हुड़कुच्चे” की बात करते हैं, उसपर आते हैं। वो एक अमेरिकी हवाई अड्डे की सफाई की बात करते हैं। जैसे बस अड्डा काम करता है, हवाई अड्डा भी बिलकुल वैसा ही काम करता है। जैसे एक सरकारी बस स्टैंड बनता है और वहीँ से निजी और सरकारी दोनों बसें चलती हैं, वैसे ही हवाई अड्डे से भी हवाई जहाज चलते हैं। बस अड्डे पर स्टैंड की जगह के इस्तेमाल, अनाउंसमेंट और यात्री सुविधाओं के लिए बस चलाने वाली कंपनियां किराया देती हैं, हवाई अड्डे पर यही काम इंडिगो, स्पाइस जेट जैसी हवाई जहाज की कंपनियां करती हैं।
अमेरिका में हवाई यात्रा बस यात्रा जैसी ही आम है, खर्च में बहुत ज्यादा अंतर नहीं होता, तो अमेरिका में हवाई अड्डे भी बस अड्डों जैसे ही हैं। वहां जो समस्या थी वो थी शौचालयों की सफाई की समस्या। लोग शौचालय में बने यूरीनल के बदले इधर उधर पेशाब कर देते! इसकी वजह से बार बार सफाई करनी पड़ती और उसका भी कुछ ख़ास फायदा नहीं होता। यहाँ आने जाने वाले लोग भी सभी यात्री थे, किसी एक कंपनी या दफ्तर-फैक्ट्री में काम करने वाले भी नहीं थे कि सबको एक साथ सुझाव या ट्रेनिंग दी जा सके। बदबू और गंदगी शौचालयों से बाहर भी फैलती रहती।
इससे निपटने के लिए एक बड़ा मामूली सा नुस्खा इस्तेमाल किया गया। यूरीनल (आमतौर पर भी) सफ़ेद रंग का होता है। उसके अन्दर एक मक्खी का स्टीकर चिपकवा दिया गया। इस मक्खी के स्टीकर का फायदा ये हुआ कि लोग पेशाब करते वक्त उस स्टीकर पर निशाना लगा रहे होते! अब इधर उधर पेशाब फैला नहीं होता, यूरीनल में ही होता। बिना कुछ कहे, किसी को सुधारने या बदलने की कोशिश किये बदलाव आ गया। “नज” ऐसे ही बदलावों की कहानी सुनाती है। ऐसी किताबों को पढ़ना जरूरी क्यों होता है? इसकी वजहों पर हम इशारा पहले ही कर चुके हैं।
हम ऐसे दौर में हैं जब ये साफ़ समझ में आने लगा है कि पूरी पूरी संस्थाएं अपने आकूत आर्थिक स्रोतों के साथ धर्म पर हमले कर रही होती है। ये लोग मजहब या रिलिजन के मामले में चुप्पी साध लेते हैं, मगर हिन्दुओं के धर्म को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ते। पिछले पचास साल का दौर देखें तो हिन्दुओं ने ऐसे हमलों का कोई ख़ास जवाब नहीं दिया था। सोशल मीडिया के बढ़ने के साथ ही हिन्दुओं के व्यवहार में पहला परिवर्तन ये आया कि उन्होंने हमलावरों पर भी उतने ही तीखे हमले शुरू कर दिए। अब आत्मरक्षा और हमलों के तौर तरीकों में भी बदलाव की जरुरत है।
उदाहरण के तौर पर हाल के ही त्रिपुरा हाई कोर्ट के त्रिपुरसुंदरी मंदिर में बलि रोकने के फैसले को देखिये। इस फैसले के आते ही इसका विरोध हुआ जो कि पूरी तरह उचित था। शुरूआती दौर में ये कहा गया कि अगर बकरीद में ऐसी पाबंदियां नहीं लगती तो हमपर ही क्यों? ये सही भी है कि जल्लीकट्टू, सबरीमाला, दही-हांडी जैसे मामलों में अपनी टांग घुसेड़ने पर आमादा लोग सिर्फ हमपर ही निशाना साधते हैं। जैसे आरे की जमीन जब तक चर्च को कब्रिस्तान बनाने के लिए मिली हुई थी, या फिल्मसिटी ने उसपर अवैध कब्जा जमाया, तबतक कोई विरोध नहीं हुआ। जैसे ही जमीन चर्च से ले ली गयी, फ़ौरन जंगल प्रेमियों का पर्यावरण प्रेम जाग उठा!
इस एक तरीके के अलावा हमें थोड़ा सा बदलकर ये भी बताना होगा कि हम सही क्यों हैं। संविधान हिन्दुओं को किसी दूसरे-तीसरे या दसवें दर्जे का नागरिक तो नहीं मानता? हमें भी अपनी पूजा पद्दतियों और परम्पराओं के पालन का अधिकार है! हम ये बता सकें कि हमारी परम्पराओं में क्या है इसलिए किताबें पढ़ना जरूरी हो जाता है। हम भगवद्गीता या दुर्गा सप्तशती जैसे ग्रन्थ पढ़ने के लिए “नज” कर रहे होते हैं, “हुड़कुच्चा” दे रहे होते हैं। दुर्गा सप्तशती पढ़ने वाले आराम से बता देंगे कि बारहवें अध्याय में बलि का जिक्र आता है, इसलिए वो हमारी धार्मिक परंपरा है, इसलिए अदालतों को हमें अपनी पूजा पद्दति के पालन का संवैधानिक अधिकार देना चाहिए।
बाकी “नज” इसलिए पढ़नी चाहिए क्योंकि हिन्दुओं के साथ होने वाले सौतेले व्यवहार में बदलाव लाना तो सीखना होगा, और “नज” व्यवहार में बदलाव लाने पर ही लिखी गयी है।
आनन्द कुमार