दिल्ली में रहते हुए और लगभग तीन दशकों तक कभी कभार ही इधर उधर की यात्रा करते हुए मैं इस भूमि से लगभग कटा रहा। किन्तु भारत के बड़े शहर इस भूमि को समझने का माध्यम-स्थल हो सकते हैं। दृष्टि होनी चाहिए। यहां के महानगर न्यूयॉर्क जैसे महानगर नहीं हैं। न्यूयॉर्क में अमीरी गरीबी की खाई है किन्तु सांस्कृतिक फांक नहीं है। यहां एक बड़ी सांस्कृतिक फांक है। सहजता से दृश्य भी। यहां सभ्यता और संस्कृति ग्राम्य जीवन के साथ प्रवहमान है। वह बड़े महानगरों में भी ग्राम्य चरित्र के साथ भासित होती है। मैंने इस महानगर में अतिसाधारण मनुष्यों के बीच होते हुए यह अनुभव किया है कि आधुनिकता ने हमें लीला नहीं है। बल्कि भारतीयता यहां भाषा में अनुस्वार और अन्य वर्णों की तरह अनिवार्यत: उपस्थित है।
किसी बुझते हुए घूरे को देखकर हम मान लेते हैं कि यह ठंडा पड़ चुका है।किन्तु जरा सा कुरेदने पर राख के नीचे से लहकती काष्ठाग्नि दीख पड़ती है। उसे प्रज्वलित करने के लिए कुछ हलके फुलके फूस की जरूरत होती है। जिसे हम देश के अर्थ में परिस्थिति कह सकते हैं। हां, परिस्थितियां भारत में महत्वपूर्ण पक्ष हैं। यहां काल कोई टूटा हुआ उल्कापिंड नहीं जो चमक कर नष्ट हो जाय। वह आकाशगंगा की तरह एक सातत्य में रहता है। संघर्ष उसके शाश्वत हैं। काल एक रेखा में बहता हुआ अनेकानेक आन्तरिक संघर्ष से तपता रहता है। उसे ड्राइव करने वाली कोई एकमुखी सत्ता नहीं होती। वह अनेकमुखी शक्तियों को साथ लिए चलता है।
आप भारत में घूमने जाइये। आपको कोई यूनिफॉर्म कल्चर–विशेषकर वेस्टर्न शिष्टता के अर्थों में नहीं दिखाई देती। आप दस मिनट में बीस भिन्न लोगों से मिल सकते हैं। उनमें से कुछ अत्यंत आत्मीय–आपके भाई बंधु जैसे, आपके आत्मारूप और कुछ आपके स्वभाव से सर्वथा भिन्न हो सकते हैं। आपको दूसरी प्रकृति के लोग खिन्न कर सकते हैं। लेकिन पहली प्रकृति ही प्रभुत्वशाली है। किसी महादरिद्र, अतिसाधारण में आप महादानी, करुणा-विगलित मनुष्य को पा सकते हैं। आप देखते हैं कि कोई महाअशिष्ट है। अगला अतिशिष्ट। इतना शिष्ट कि आपके कल्चर्ड होने का आत्माभिमान तक चूर हो जाता है। उसमें आप से अधिक सदाशयता होती है।
मैंने इस देश में घूमते फिरते हुए यही अनुभव किया है कि यह एक विशिष्ट भूमि है। दुर्भाग्य से जिसका आत्मविश्वास तोड़ दिया गया। पिछली कई शतियों के संघर्ष, प्रहार, ध्वंस बर्बरता ने इसका बहुत कुछ छीन लिया। फिर जब कथित स्वतंत्रता मिली भी तो शतियों से संघर्षरत देश को संस्थागत, तथ्यात्मक-ऐतिहासिक झूठ( जो कि सबसे घातक सिद्ध हुआ), गंगाजमनी तहजीब के लेमचूस खिला कर, उसका हर विश्वास छीन कर, उसे भयाक्रांत कर, घूसखोरी, भ्रष्टाचार को सहज कर नष्ट कर दिया गया। वह एक ठगा हुआ देश के रूप में खड़ा हो गया। जिसकी अपनी कोई दृष्टि ही नहीं रही। जिसके लिए अकबर भी महान था। राणा प्रताप भी महान ही थे! नेहरू-गांधी जैसे लोग तो खैर महानतम ही रहे। इतने महान कि यह देश राम का न होकर गांधी का होकर रह गया। आश्चर्य!! यह गांधी का देश है!!! आश्चर्य है कि आज भी भारत की एक विशाल जनसंख्या नहीं जानती कि उसके प्राचीन मंदिर कैसे टूटे। तीन दिन पहले जिस गुर्जर अमर सिंह ने मेरा रास्ता गहा। मुझे नरेश्वर मंदिर तक ले गए, वह स्थानीय होकर भी सर्वथा अनभिज्ञ थे कि ये महान मंदिर भग्न कैसे हुए। मैं उनकी बातों से चकित रह गया था। परन्तु यही भारत है। वह मूलतः आत्म के उन्नयन पर विचार करता है।
पिछले सत्तर वर्षों की देन यह है कि भारत एक भ्रमित देश के रूप में पनपने लगा। समय के साथ इसकी बसावट बदली। ग्रामीण संरचना नष्ट होने लगी। शहरी सभ्यता के रूप में यह एक विचित्र भेड़िया धसान में ढलने लगा। जिसके सामने अंग्रेज भी थे। चोटी वाले पंडित जी भी। साइकिल वाले, मर्सिडीज वाले भी।अंग्रेजी भी, अवधी मैथिली, बांग्ला, ओड़िया, भोजपुरी, तमिल, तेलुगु भी। सभी अलग अलग थे। इतने अलग कि एक स्वयं को दूसरे से सर्वथा अलग पाता था।फिर उसने एक विकराल अंधरात्रि के बाद स्वप्न में आंखें खोलीं कि जो पोंगल है, वही संक्रांति है। जो दुग्गा है, वही असुरभयाविनी है। वही मातारानी भी है। वही देवी ललिताम्बिका है। वही चण्डी है। जो राम हैं, वही वेंकटाचलपति हैं। जो कृष्ण हैं, वही अयप्पा।ऐसे ही अनेकानेक देवी देवता, लोकसंस्कृति के अनेकानेक ध्वजवाहक। बस नाम और रूप भिन्न हो गए। यह सब कैसे हुआ। कब से हुआ, कहना आवश्यक नहीं। लोग समझ सकते हैं।
यह जो भिन्न होकर भी कंपोजिट था– कुछ शतियों तक अज्ञात रहा। जब राम और गांधी एक हो गए। अकबर महान हो गया। औरंगजेब त्यागी हुआ। टीपू स्वतंत्रता सेनानी बना। अलाउद्दीन खिलजी अर्थव्यवस्था का सुधारक तो फिर शेष क्या रहा? वह भला किस पर गर्व करे? जब ग़ालिब और मीर सौ पचास ग़ज़लें नज़्म लिखकर वाल्मीकि, व्यास, कालिदास और भवभूति, श्रीहर्ष जैसे अगणित महाकवियों के समक्ष खड़े हो गए तो सब बराबरी पर आ गए। इस समानता के महापातक सिद्धांत ने भारत की महान ज्ञान संपदा और वैचारिक चिंतन परंपरा को यूं धूमिल किया कि कुछ विशिष्ट– भिन्न न रहा। भला कोई यह कहने का साहस कैसे करे कि व्यास, वाल्मीकि, कालिदास, तुलसी की तो छोड़ो, जयशंकर प्रसाद, निराला, अज्ञेय और कई अन्य भी अपनी काव्य कला से लेकर वैविध्य, चिंतन और दृष्टि में तुम्हारे शायर ए आज़म से बहुत ऊपर हैं।
व्यास, वाल्मीकि, कालिदास केवल महान कवि नाटककार ही नहीं। लेखनकला और विद्वत्ता के प्रतीक ही नहीं। शास्त्रज्ञ ही नहीं। केवल बौद्धिक विमर्श के उज्ज्वल पक्ष ही नहीं, बल्कि ये सब ऐसे नक्षत्र थे, जिन्होंने भारत के लोक को अनेकानेक सम्राटों, नायकों की कथा से जीवंत रखा–और ये आदर्श बने। आवश्यक नहीं कि आने वाली सदियों में सभी संस्कृत में ही लिखने रचने वाले रहे हों। वे किसी भी भाषा में लिखते रहे। कहीं भी सत्ता संभालते रहे। शतियों से एकसूत्रीय आदर्श से जुड़े रहे। महाराणा कुंभा, महाराणा प्रताप,शिवाजी महाराज, बाजीराव जैसे पचासों उदाहरण सामने हैं।यह परम्परा स्वाधीनता संग्राम तक चलती रही। अगणित नायक हुए। किन्तु आजादी के बाद जैसे भारत का कंठ मोक दिया गया। ऐसे झूठ लिखे, पढ़े और रचे गए कि सत्तर अस्सी वर्षों में भारत की रीढ़ टूट गई।
एक तो उसके पूर्वजों का मान छीना। दूसरे, उसका जीने का रंगढंग घोल दिया गया। आम जीवन दुष्कर हो गया। संस्थानिक भ्रष्टाचार पनपा। छोटे से छोटा काम भी पहाड़ हो गया। घूसखोरी, असुरक्षा, सांस्कृतिक क्षय, घासलेटी कल्चर ने उसका रहा सहा विश्वास भी छीन लिया। राजनीति ने अपनी महत्ता खोई। सबकुछ गड्डमड्ड हो गया। कुछ भी अक्षुण्ण पवित्र शेष न रहा। बस, एक ही वस्तु रह गई जो शतियों की इस भीषण मुठभेड़, ठगी और आत्मघात के बाद भी समाप्त न हो सकी। वह वस्तु फिर क्या है? वह कुछ और नहीं, धर्म है। वह घायल हुआ मर न सका। भारत के हृदय में धर्म आज भी जीवित है। इसका मैंने साक्षात किया है।
भारत अभी उठ रहा है। यह परिवर्तन का समय है। एक पीढ़ी अपनी संस्कृति की ओर लौट चुकी है। एक पीढ़ी संघर्ष कर रही। एक जो अभी नया नया अंग्रेजी सीख रही–उड़ रही। यह संघर्ष महानगर से लेकर देहात तक चल रहा। कई परतों में युद्ध लड़ा जा रहा। मानों एक विशाल नदी ऊपर नीचे, मध्य सभी जगहों पर शत शत घूर्णावत तरंगों के साथ बह रही हो। कविवर निराला के शब्दों में कहूं तो–होगा फिर से दुर्धर्ष समर, जड़ से चेतन का निशिवासर! समर तो छिड़ चुका है। मेरा विश्वास है कि एक दिन हम विजयी होंगे। हां, अभी भयंकर मुठभेड़ का समय है।
*देवांशु झा जी*
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