भारतीय संस्कृति
हिंदी साहित्याकाश का दैदीप्यमान नक्षत्र है भारतीय संस्कृति। साहित्य भारतीय संस्कृति का प्रतीक पुरुष है। भारतीय साहित्य पर बात करते हुए उसे संस्कृतनिष्ठ और प्राचीन परंपराओं का वाहक भी कह सकते हैं। भारतीय साहित्य में राष्ट्रीयता का स्वर मुखर है। सांस्कृतिक मूल्यों और सिद्धांतों के प्रति अनुग्रह है। जहाँ प्रेमचंद ने भारतेंदु की गाँवों की ओर जाने वाली राह पकड़ी तो जयशंकर प्रसाद ने पुराणों और इतिहास में उतरने वाली सीढियां।
भारतीय साहित्य की एक सुदृढ़ सांस्कृतिक पृष्ठभूमि है जिसमें भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों- आध्यात्मिकता, समन्वयशीलता, विश्वबंधुत्व, कर्मण्यता, साहस, नैतिकता, संयम, त्याग, बलिदान, देशभक्ति और राष्ट्रीयता का समावेश है। इसने पश्चिमी जगत और भारत को भौतिकता और आध्यात्म, अनात्मवाद और आत्मवाद के संघर्षों में बांधकर भारत की अतीत ज्ञान-संपदा को विश्व की समस्त समस्याओं का निदान बताया।
भारतीय साहित्यकार आलोचनाओं से व्यथित हुए बिना भारतीयता और भारत भू की संस्कृति के गौरवगान में निर्लिप्त रहे हैं। संस्कृति के पुनर्गान और उसकी महत्ता को प्रसारित करने वाली पुण्यात्माओं के लिए भारतीय साहित्य संस्कृति के गौरवगान छलकता हुआ अमृत कुंभ है। इसमें से हर व्यक्ति अपनी पात्रता के अनुसार कुछ न कुछ ग्रहण कर जीवन को सार्थक बना सकता है। भारतीय साहित्य के विराट विस्तार की शीतल छांव जीवन की टूटती आस्थाओं में प्राणों का संचार करती है।
चाहे दिनकर हों, जयशंकर प्रसाद हों, सुभद्रा कुमारी चौहान हों या सूर्यकांत त्रिपाठी निराला या अज्ञेय, सबकी कविताओं में भारत की मूलभूत समस्याओं का समाधान झांकता है, प्राचीन गौरव झलकता है। भारतीयता का पुट दिखता है। वास्तव में भारतीय साहित्य उदीयमान भारतीयता का गायक है, राष्ट्रीयता के नायक है, संस्कृति का वाहक है, जिसके गर्भ में सांस्कृतिक जागरण की ध्वनि विद्यमान है।
आदिकाल से सात्विक रागात्मक रचनाधर्मिता वाली प्रज्ञा प्रदायी देवी भारती (सरस्वती) की प्रज्ञा से सम्पृक्त है भारत। भारत ‘भा’ और ‘ रत’ है अर्थात् ‘निरन्तर प्रकाश (ज्ञान) की खोज में सतत निरत’ रहने वाला प्रकाश-खोजी सात्त्विक रागात्मक रचनाधर्मिता का देश और यह स्थिति भारतीय साहित्य में पूर्णतः स्थापित होती है।
महाकवि कालिदास के अनुसार हर राष्ट्र की एक विशिष्ट प्रकृति, उसका एक विशिष्ट शील, उसकी एक विशेष ऋता होती है। इस विशिष्ट ऋता, विशिष्ट शील, विशेष प्रकृति का तत्त्वाभिनिवेशित अन्वेषण करें तो मानना होगा कि हिमालय से आसमुद्र, कामरूप से कच्छ, कन्याकुमारी से कश्मीर तक के भूक्षेत्र में परिव्याप्त हमारा भारत भूक्षेत्र, वनसम्पदा, नदी, पर्वत, खनिज, पशु-पक्षी आदि जैविक सम्पदा और जनसंख्या के सहयुजन वाला भू-क्षेत्र तो मात्र ‘मृण्मय भारत’ या कि भारत का ‘अन्नमय कोश’ है। यहाँ की विशिष्ट ऋता, विशिष्ट संस्कार और यहाँ का भारतत्व ही भारत का ‘प्राणमय कोश’ है। और भारतीय साहित्य इस चिन्मय भारत का ‘मनोमय कोश’ है।
हजारों वर्षों से प्रकाश-निरत सम्बोधि चिन्तना और देवी भारती से सम्पृक्त भास्वद् चिन्मयता वाले भारतीय साहित्य के भास्वद् संस्कार आज भी भारतीय मनीषियों की विशिष्ट संचेतना हैं। भले ही वे आज सुषुप्तावस्था में या बीजीय स्वरूप में विद्यमान हों। प्राचीनकाल से अद्यतन विद्यमान भारतीय साहित्य की बीजरूपीय विद्यमानता और तद्गत शाश्वतता के सम्बल से कह सकते हैं कि ‘चिन्मय भारत’ और ‘मृण्मय भारत’ के साथ ही ‘शाश्वत भारत’ भी अस्तित्ववान् है यहाँ। मृण्मय भारत का भूगोल बदलता रह सकता है, बदलता रहा भी है लेकिन भारतत्व की और भारतीत्व की शाश्वत चिन्मयता जो भारतीय साहित्य की विशिष्ट निधि है वह उपेक्ष्य नहीं है।
भारतीय साहित्य की शैली, कथ्य, पृष्ठभूमि, बिंबविधान, काव्य रूप, संगीत तथा जीवन दर्शन सब मिलकर एक अभिन्न तत्व के रूप में भारतीय साहित्य की शाश्वत सांस्कृतिक चेतना को प्रकट करते हैं। भारतीय साहित्य मूलतः दो अर्थ में समझा जा सकता है।
पहला, संस्कृत साहित्य का विस्तृत कोश जिसकी विशाल परंपरा है और जो आधुनिक भारतीय साहित्य को प्रभावित करता है। दूसरा, विभिन्न भारतीय भाषाओं हिंदी, तमिल, तेलुगु, बंगला, मणिपुरी आदि में लिखा गया साहित्य जिसमें विषय और भावगत एकसूत्रता और चैतन्य एकरूपता देखने को मिलती है। भले ही भारत की 22 भाषाओं में अभिव्यक्तियाँ अलग-अलग हों तथापि इनमें मूलभूत वैचारिक एकरूपता देखी जा सकती है।
इस मूलभूत एकरूपता के क्या कारण हो सकते हैं? पहला यह, कि भारतीय साहित्य की समस्त विस्तृत कोशिकाएं एक ही स्रोत से प्रेरणा ग्रहण करती हैं। यह मूल स्रोत है: संस्कृत साहित्य, महाकाव्य, पुराण, जातक, लोकसाहित्य, दार्शनिक साहित्य, कला एवं संगीत, जो भारतीय सांस्कृतिक चेतना के परिचायक और विजयध्वज हैं। दूसरा कारण यह है कि लगभग एक ही प्रकार की अनुभूतियों से प्रेरित साहित्य का निर्माण होना। इसी के कारण हमारी साहित्यिक परंपरा में अटूट एवं अटल सांस्कृतिक निरंतरता दिखाई देती है और आधुनिकता में भी प्राचीनता की प्राणशक्ति प्रकट होती है।
कृष्ण कृपलानी जी ने भारतीय साहित्य की इसी एकरूपता और एकसूत्रता को देखते हुए कहा है कि हमारा साहित्य मात्र एक दृश्य नहीं, एक पैनोरोमा है। आकाश से पृथ्वी और क्षितिज तक इसमें बहुत से परिदृश्य दिखाई देते हैं मगर इन विभिन्न परिदृश्यों के रहते हुए भी अर्थात अनेकता में भी एक सैद्धांतिक एवम् सांस्कृतिक एकता है जो विभिन्न विधाओं, रूपों या अभिव्यक्तियों में प्रतिफलित है।
विद्वानों ने यह परिलक्षित किया है कि हमारे साहित्य में मिथकों, बिंबों या प्रतीकों के प्रयोग में एक व्यावहारिक संश्लेषण मिलता है जो भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक चेतना को उजागर करता है। इस अक्षुण्ण सांस्कृतिक चेतना की पहचान भारत के पांच हजार वर्ष के साहित्य की धारा में अवगाहन करके ही की जा सकती है।
भारतीय साहित्य का सांस्कृतिक चेतना के प्रधान विचारों की प्राचल पर यदि परीक्षण करना हो, तो वे विचार होंगे, आध्यात्मिक दृष्टि, रहस्यात्मक बिंबवाद, अद्वैत, आदर्शवाद और मानवतावाद।
आध्यामिक दृष्टि के परिलक्ष्य में देखें तो, भारतीय साहित्य व्यष्टि से समष्टि की ओर जाने की साधना है, जो भारतीयों की मनोचेतना/जनमानस में गहरी जमी हुई है। ईशोपनिषद् में लिखा है “ईशावास्यमिदं सर्वम्”। इसी बात को रवींद्रनाथ ठाकुर ‘सीमार माझे असीम तुमि’ कहकर प्रतिपादित करते हैं तथा निराला लिखते हैं:
‘उस असीम में ले जाओ
मुझे न कुछ तुम दे जाओ।’
भारतीय साहित्य में यथार्थ के धरातल को को बौद्धिकता के सहारे नहीं, संवेदना और अनुभूति और चेतना के सहारे ग्रहण किया जाता है, इसीलिए इसमें रहस्यात्मक बिंबवाद की प्रवृत्ति दृश्य है। रहस्यात्मक बिंबवाद का अर्थ है रूपकों के प्रयोग द्वारा वस्तुपक्ष को जटिल बनाते हुए सत्य का अनुरूपण। उदाहरण के लिए संत कबीर का यह रहस्यात्मक बिंब द्रष्टव्य है:
‘लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल
लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल’
ऋग्वेद के नासदीय सूक्त से लेकर आधुनिक युग में रवींद्रनाथ ठाकुर और सुब्रह्मण्य भारती आदि अनेक कवियों और साहित्यकारों की रचनाओं में यह रहस्यात्मक बिंबवाद अनवरत दिखाई देता है।
वेदांत की अद्वैतवादी अवधारणा भारतीय साहित्य में निहित सांस्कृतिक चेतना का अटल आद्यरूप है। भारतीय साहित्य के एक अन्य आद्यप्रारूप के तौर पर आदर्शवाद की पहचान की गई है। भारतीय साहित्य में तनाव और संघर्ष है परंतु चरम विरोध नहीं है। यहाँ संघर्ष दो व्यक्तित्वों का टकराव नहीं, इच्छा और आदर्श का सघर्ष है जिसमें अंततः आदर्श की विजय होती है। ‘गोदान’ में एक ही मृत्यु होती है मगर सात ही सबका हृदय परिवर्तन होता है।
इस संदर्भ में हम अज्ञेय की निम्नलिखित पंक्तियों को याद कर सकते हैं:
“दुःख सबको माँजता है
और
चाहे स्वयं सब को मुक्ति देना वह न जाने, किंतु
जिनको माँजता है
उन्हें यह सीख देता है कि सब को मुक्त रखें.”
इसी प्रकार जब रवींद्रनाथ ठाकुर कहते हैं कि ‘कली के भीतर खुशबू अंधी होकर रो रही है’ तो इस कथन में हमें दुःख का चरम सुंदर रूप दिखाई पड़ता है। यही भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक अवधारणा से प्रेरित अस्तित्व का बोध है जहाँ दुःख और आनंद, बुद्धि और अबौद्धिकता, अस्तित्व और विचार एक दूसरे के पूरक हैं।
मानवतावाद की बात की जाए तो भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक पृष्टभूमि का चरमोत्कर्ष उसके भव्य और प्रखर मानवतावाद में दिखाई देता है। उपनिषदों की कल्पना है ‘अहम ब्रह्मास्मि’। चंडीदास हों या पंत, निराला हों या जयशंकर, व्यास हों या वाल्मीकि, शरत हों या प्रेमचंद: सभी मनुष्य को सर्वोपरि सत्य मानते हैं। यही कारण है कि हमारे साहित्य में नायक का धीर होना अनिवार्य माना गया है। धैर्य के द्वारा ही महाकाव्य का नायक हमारे लिए अनुकरणीय बनता है।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि हजारों वर्षों के ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विशिष्टताओं को अपने में समेटे रखने वाला हमारा साहित्य कतिपय विशिष्ट संस्कार और सांस्कृतिक संचेतना वाली विशिष्ट सभ्यता है और साहित्य इस सभ्यता का संवाहक। एक ‘सर्वभारतीय सांस्कृतिक चेतना’ भारतीय साहित्य के केंद्र में स्थित है। आधुनिक भारतीय साहित्य भले ही विभिन्न भाषाओं में लिखा जाता हो लेकिन उसमें भी यह संवेदना दिखाई पड़ती है जिसमें वे मूल्य निहित हैं जो भारतीय सांस्कृतिक इतिहास और अनुभव की उपलब्धियां हैं। परन्तु आज हमारे साहित्य की संदर्भगत विशिष्टताओं पर जो धूल कतिपय विदेशियों ने या कि प्रतिकूल समय ने प्रक्षिप्त की है, आवश्यकता उस धूल को साहित्य से साफ करने की है।
साहित्यिक क्षरण पर क्षोभ व्यक्त करते हुए श्रीकृष्ण सरल जी साहित्यकार को उसके महत दायित्व का स्मरण कराते हैं कि उसकी लेखनी सामाजिक असमानता, उच्छृंखलता व व अनीति को समूल उखाड़कर देशभक्ति और समरसता का शंखनाद करने में सक्षम है । कलम के सिपाही को लेखनी की सामर्थ्य याद दिलाते हुए सरलजी कहते हैं कि:
कलम के जादूगरों से कह रही युग-चेतना यह,
लेखनी की धार से, अंधेर का वे वक्ष फाड़ें ।
रक्त, मज्जा, हड्डियों के मूल्य पर जो बन रहा हो,
तोड़ दें उसके कंगूरे, उस महल को वे उजाड़ें ।
जब साहित्य से संस्कृति गूंजती है तो उसे पढ़कर आप स्थिर नहीं रहते। एक इतिहास-चेतना जिसका स्वर भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण की उषा में काकली की तरह सुनाई पड़ता है या एक ऐतिहासिक हलचल जिसमें आप धीरे धीरे डूबने लगते हैं। अब जरूरत है कि हमारी साहित्यिक विरासत से युवाओं का परिचय कराया जाए, साहित्य के योगदानों का मूल्यांकन हों, साहित्य की संस्कृति पृष्ठभूमि स्थापित हो। तब और तभी प्रकाश-निरतता, ज्ञाननिरतता, सत्त्व-निरतता, प्रज्ञाशील रागात्मक संचेतना वाली भारतीयता और ऐसे शाश्वत चिन्मय जनसंकुल का साहित्य, भारतीय जनमानस और विश्व में वस्तुनिष्ठ अर्थों में मूर्त्तमान हो सकेगा।
– दीक्षा त्यागी