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भारत का गौरव एवं समृद्धि: यूरोप से तुलनात्मक कालक्रमानुसार विवरण


प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
भाग 1 महाभारत काल: योगेश्वर कृष्ण का काल
(ईसा पूर्व ३१३८ अर्थात आज से लगभग 5200 वर्ष पहले)
यूरोपीय क्षेत्र में इस सम्पूर्ण अवधि में हिमयुग है। पूरा क्षेत्र मोटी बर्फीली परतों से ढँका।
भारतवर्ष का तत्कालीन विस्तार:
भीष्म पर्व के अन्तर्गत जम्बू खण्ड विनिर्माण पर्व में नवम अध्याय में श्लोक 38 से 70 तक में लगभग 250 जनपदों के विवरण हैं।
– इन राज्यांे के वैभव, भवन, प्रासाद, नगर, मार्ग, वीथी, सरोवर, शिल्प-वैभव, मन्दिर, चैत्य आदि का विशद वर्णन महाभारत में है।
– आदि पर्व में प्रथम अध्याय में ही कुलपति, सत्रों आदि का वर्णन।
– सूत कुल की गरिमा का आख्यान।
– वाणी, व्याकरण, शास्त्रांे के ज्ञान की विपुलता।
– प्राचीन काल से चले आ रहे इतिहास-वर्णन का प्रमाण (आदिपर्व, अध्याय 1, श्लोक 76)
– काल सम्बन्धी विराट ज्ञान।
– महान राजवंशों की विपुलता-कुरू, यदु, भरत, ययाति, इक्ष्वाकु आदि।
– देशांे, तीर्थों, नदियों, पर्वतों, वनों और समुद्र का वर्णन।
– नगर-निर्माण, दुर्ग-निर्माण।
– युद्धों की परम्परा, नियम, मर्यादा।
– सेना के विभाग – रथ, हाथी, अश्व, पैदल, पत्ति, सेनामुख, गुल्म, गण, वाहिनी, पृतना, चमू, अनीकिनी, अक्षौहिणी आदि।
टिप्पणी:- (1 अक्षौहिणी में 1,09,350 पदाति सैनिक, 65610 अश्व, 21870 हाथी, 21870 रथ)।
– महान सम्राटों एवं राजाओं का वर्णन।
– अश्वमेघ एवं राजसूय यज्ञों का वर्णन।
– पाण्डवों की दिग्विजय में चारों दिशाओं के राज्यों का वर्णन।
– पुरू वंश, भरत वंश, पाण्डु वंश का विस्तार।
– वारणावत, लाक्षाग्रह, सुरंग।
– नीतिशास्त्र
– वर्णाश्रम धर्म विवेचना। वित्त-नीति एवं वित्त-व्यवस्था।
– राजधर्म। राजनय। दंडनीति।
– रथी, महारथी, अतिरथी। (उद्योगपर्व, अध्याय 165-171)
– शस्त्रास्त्र, दिव्यशस्त्र आदि (भीष्म पर्व में)
– भौतिक ज्ञान, राजनैतिक ज्ञान, आध्यात्मिक ज्ञान।
– तप, स्वाध्याय, पुण्यकर्म, दान, यज्ञ, साधना का विस्तार।

भाग 2 चाणक्य – चन्द्रगुप्त – मौर्य युग
(ईसापूर्व 1535 से 1220 ईसापूर्व तक)
महाभारत 3138 ईसापूर्व में हुआ। कलि संवत 3102 ईसापूर्व।
2135 ईसापूर्व तक बृहद्रथ वंश का शासन।
सूर्यवंशी सम्राट बृहद्बल का महाभारत युग में अभिमन्यु ने संहार किया। उनके पुत्र बृहद्रण सम्राट हुये। इस वंश ने 1000 वर्षाें तक मगध से शासन किया। शुद्धोधन पुत्र सिद्धार्थ इसी वंश में हुये। सिद्धार्थ-राहुल-प्रसेनजित-सुरथ-सुमित्र के बाद सूर्यवंश का शासन समाप्त।
ईसापूर्व 19वीं शताब्दी में भगवान बुद्ध (सिद्धार्थ गौतम) हुण्। 1807 ईसापूर्व में उनका परिनिर्वाण हुआ। ईसापूर्व 2133 से ईसापूर्व 1995 तक 138 वर्ष प्रद्योतवंश का, तदुपरांत शिशुनाग वंश का प्रतापी शासन बिम्बसार के समय तक।
ईसापूर्व 1600 में महामति चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य को भारत सम्राट बनाया। उनके पुत्र-पौत्रांे ने 316 वर्ष शासन किया।
प्रद्योतवंश, शिशुनागवंश, नंदवंश, मौर्यवंश और शुंगवंश के शासन समस्त उत्तरी एवं उत्तर पूर्वी, पूर्वी तथा पश्चिमी भारत में रहे। मगध से ही काश्यप, मातंग और धर्मरक्ष चीन गए। वहाँ सनातन एवं बौद्धधर्म का व्यापक प्रसार हुआ। समस्त चीन बौद्ध बन गया। इस काल में विशाल प्रासाद, मन्दिर, नगर, दुर्ग आदि बने। विद्या एवं शिल्प का विपुल वैभव इतिहासग्रंथांे में विस्तार से उपलब्ध है। अफ्रीका एवं मैक्सिको तथा पेरू में भी सनानत धर्म का विस्तार।
सम्राट अशोक एक अन्य महाप्रतापी मौर्यवंशी सम्राट हुए, जिनका शासन चीन, खोतान, उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, अजरबेजान तक रहा। ईसापूर्व 1472 में अशोक का राज्याभिषेक हुआ। अशोक सनातनधर्मी सम्राट हैं।
(पूर्व में मगध सम्राट बिम्बसार-अजातशत्रु-उदयन-नन्दिवर्धन-महानन्दी)
महानन्दी को ईसापूर्व 1635 में महापùनन्द ने हटाया। नंद वंश का शासन 100 वर्ष चला।
ईसापूर्व 1535 में चन्द्रगुप्त मौर्य मगध सम्राट हुए। 1220 ईसापूर्व तक मौर्यवंश ने शासन किया।
यूरोप:- इस अवधि में यूरोप में आखेटजीवी घुमन्तू समूह ही विरल रूप में फैले थे। जिनका कोई भी विवरण सुरक्षित नहीं है। भाषा, लिपि, ग्रंथ, शिल्प आदि की तत्कालीन दशा वहाँ अज्ञात है।

भाग 3 सम्राट कनिष्क और सातवाहनों का काल
(ईसापूर्व 1230 से ईसापूर्व 327 तक)
सनातनधर्मी सम्राट कनिष्क की राजधानी पुरूषपुर (पेशावर) थी। उनके कुषाणवंश ने 900 वर्षों तक चीनी तुर्कमेनिस्तान, खोतान, पर्शिया, गांधार, बल्ख, बुखारा सहित समस्त उत्तरीभारत पर शासन किया। सभी कुषाण सम्राट परम भागवत थे और भगवान विष्णु के अवतार के रूप में भगवान बुद्ध के भी उपासना-ग्रह उन्होंने बनवाए। यवन, पारसीक आदि भी उनकी प्रजा थे।
सातवाहनों ने ईसापूर्व 833 से ईसापूर्व 327 तक शासन किया। आधुनिक यूरोपीय जन उन्हें ईसापूर्व प्रथम शती से पांचवी शती ईस्वी तक ही मानते हैं। इन्हें आन्ध्रवंशी भी कहा है। एफ.ई. पार्जिटर ने इनका समय ईसापूर्व 833 से ईसापूर्व 322 ही लिखा है। ( डायनेस्टीज ऑफ कलि ऐज, पेज 72, ऑक्सफोर्ड, लंदन से 1913 में प्रकाशित)
वायुपुराण, भागवत पुराण और विष्णु पुराण में 30 आन्ध्र सम्राटांे का वर्णन है। इनका इतिहास, इनका ऐश्वर्य, भाषा साहित्य, ज्ञान, विज्ञान विस्तार से उपलब्ध है।
यूरोप:- यूरोप में क्रमशः बस्तियाँ बसने लगीं। कहीं-कहीं खेती होने लगी। भारतीय शकांे ने रोम पर राज्य स्थापित किया। क्योंकि यह भारत से जुड़ा क्षेत्र रहा है। इसी प्रकार इस युग के अंतिम चरण में ऐल वंशी भारतीय यवनों ने ऐल गणराज्य यवन क्षेत्र में स्थापित किये। जिसे अंग्रेजी में ग्रीस कहा जाता है और उनकी अपनी भाषा में आज भी ‘ऐल रिपब्लिक’ कहा जाता है। इंडिका में मेगस्थनीज ने इसका वर्णन किया है और भारत से यवनों के आत्मीय तथा घनिष्ठ संबंधों का उल्लेख किया है। मेगस्थनीज ने महाभारत युग के बाद से ही यवन क्षेत्र के भारत से सम्बद्ध होने के तथ्य दिये हैं।
भाग 4 गुप्तों का महान स्वर्णयुग, चेदि साम्राज्य एवं
चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य तथा भोजवंश
(ईसापूर्व 326 से पांचवी शताब्दी ईस्वी तक)
सातवाहनों के समय ही चेदिवंश बहुत बड़े क्षेत्र में फैल गया था। उसके तत्काल बाद गुप्त वंश के प्रतापी सम्राट हुये। सम्राट घटोत्कच के पुत्र चन्द्रगुप्त प्रथम एवं द्वितीय, रामगुप्त, कुमारगुप्त, स्कन्दगुप्त, समुद्रगुप्त आदि अत्यंत प्रतापी सम्राट हुये। वस्तुतः अलेक्जेंडर के समय भारत में चन्द्रगुप्त प्रथम का ही शासन था। समुद्रगुप्त अत्यंत प्रतापी सम्राट हुये। इसी के साथ चेदिवंश का भी विशाल साम्राज्य कलिंग में हुआ। उस समय दक्षिण में सातवाहनों का ही राज्य था। महामेघवाहन नामक प्रतापी चेदिसम्राट हुये। उनके उपरांत महाराजा खारवेल प्रसिद्ध हुये जिनके अनेक अभिलेख उपलब्ध हैं। ईसापूर्व 101 में सम्राट विक्रमादित्य हुये जो अपने समय के महान सम्राट थे और जिनका शासन यवन क्षेत्र, रोम तथा अरब तक था।
यूरोप:- यूरोप में इस अवधि में रोम साम्राज्य था और यवन क्षेत्र पूरी तरह पराजित और विखंडित हो गया था। धीरे-धीरे कहीं-कहीं ईसाई पादरियों के समूह उभरने लगे। तब तक चर्च में शिक्षा की दशा अत्यंत अविकसित थी।
भाग 5 वाकाटक, पाण्ड्य, पल्लव, यादव,
आभीर, अहीर, शकों और पहलवों के राज्य, सम्राट हर्षवर्धन का उदय
(ईसापूर्व 101 से सातवीं शताब्दी ईस्वी तक)
कुषाणों के बाद से ही अनेक शक्तिशाली राज्य सम्पूर्ण भारत में फैलने लगे। जिनमें वाकाटक, पाण्ड्य, पल्लव, यादव, आभीर, अहीर, शकों और पहलवों के अनेक राज्य इतिहास में उपलब्ध हैं। उनके समय की भाषा, साहित्य, संस्कृति, राजनैतिक प्रशासन और मन्दिर, स्थापत्य तथा कला का विशाल इतिहास उपलब्ध है। इसी अवधि में भारतीय राजाओं ने सम्पूर्ण मध्य एशिया और चीन तक शासन किया तथा कम्पूचिया तथा चंपा तक हिन्दू शासन फैला। कृषि उद्योग एवं शिल्प के अभूतपूर्व विस्तार के अभिलेख मिलते हैं। चेर साम्राज्य भी केरल क्षेत्र में इसी अवधि में फैला। इनके सबके साहित्य एवं अभिलेख विराट मात्रा में उपलब्ध हैं।
यूरोप:- इस अवधि में यूरोप में सैकड़ों छोटी-छोटी जागीरंे थीं जिनमें आपस में निरन्तर कलह होती थी। एंगल्स सेक्शन, जूट, वायकिंग, मगयार, वंडाल, गाल, जर्मेन आदि जातियाँ जगह-जगह आपसी मारकाट में उलझी थीं और सम्पूर्ण क्षेत्र में अभाव तथा कंगाली की ही दशा व्यापक थी।
भाग 6 वर्धन वंश, चालुक्य, चोल, पाण्ड्य, कल्चुरि
एवं अन्य राजपूत राजाओं के साम्राज्य
(सातवीं शताब्दी ईस्वी से 16वीं शताब्दी ईस्वी तक)
महान सम्राट हर्षवर्धन के समय ही दक्षिण भारत में पाण्ड्य, पल्लव, चोल और चालुक्य वंश शक्तिशाली थे। मैत्रक वंश के राजपूतों ने सौराष्ट्र, मालवा और विंध्य क्षेत्र में 8वीं शताब्दी ईस्वी तक राज्य किया। उसके उपरांत मालवा क्षेत्र में महान परमार वंश का प्रतापी शासन हुआ। जिसमें महाराज सिन्धुराज, महाराज भोज आदि विश्वविख्यात सम्राट हुये। जिनके समय में यंत्रचालित पशुपक्षी एवं मनुष्य भी बनाये गये थे और अद्वितीय वास्तु एवं शिल्प तथा विद्या एवं कलाओं का उत्कर्ष हुआ था। महान राष्ट्रकूट साम्राज्य भी नासिक को राजधानी बनाकर दक्षिण भारत में फैला। इसके साथ ही चालुक्यों ने म्यांमार तक शासन किया। चालुकय वंश में 21 प्रतापी राजा हुये। इनमें से पुलकेशिन द्वितीय कावेरी से नर्मदा तक विस्तृत क्षेत्र में राज्य कर रहे थे। म्यांमार और अंडमान निकोबार में इस अवधि में चालुक्यों का ही शासन था। चोलों ने भी ईस्वी सन के आरंभ से 13वीं शताब्दी ईस्वी तक शासन किया। इसके साथ ही राष्ट्रकूटों, यादवों और पाण्ड्यों ने अपने साम्राज्य स्थापित किये। पाण्ड्यों ने 1800 वर्ष राज्य किया और विजयनगर साम्राज्य की स्थापना उन्होंने ही की। मंगोलिया, कोरिया, जापान, तिब्बत, खोतान, कम्पूचिया, म्यांमार, इंडोनेशिया, मलेशिया, थाइलैंड (स्याम) और जावा-सुमात्रा में भारतीय संस्कृति का प्रसारइस अवधि में हुआ। सिसोदिया, कल्चुरियों, चन्देलों, परिहारों, राठौरों, बघेलों तथा मराठों के वैभवशाली राज्य हुए। महाराणा संग्रामसिंह, उदयसिंह, महाराणा कुंभा, महाराणा प्रताप, महाराज छत्रसाल, छत्रपति शिवाजी महाराज, महान पेशवा साम्राज्य इसी अवधि में हुये। कतिपय मुहम्मदपंथी बने लोगों ने भी हिन्दुओं के सहयोग से राज्य चलाये।
यूरोप:- यूरोप में इस अवधि में चर्च का उदय हुआ जो स्वयं को ईसामसीह का अनुयायी बताता है परंतु जिसके सभी नियम और व्याख्यायें पादरियों के द्वारा रचित हैं। फ्रांस में चौथी शताब्दी में, आयरलैंड, स्काटलैंड और इंग्लैंड में छठी तथा सातवीं शताब्दी ईस्वी में, स्पेन में छठी शताब्दी में, जर्मनी में आठवीं शताब्दी में, सर्बिया और बल्गारिया में नौंवी शताब्दी में, पोलैंड और रूस में 10वीं शताब्दी में, हंगरी, नार्वे और डेनमार्क में 11वीं शताब्दी में, स्वीडन में 12वीं शताब्दी में और फिनलैंड, एस्ट्रोनिया तथा लिवोनिया मंे 13वीं शताब्दी में और लिथुवानिया में 14वीं शताब्दी ईस्वी में ईसाइयत क्रमशः फैली और स्थानीय स्वदेशी लोगों से पादरियों की भयंकर लड़ाई हुई। पादरियों के अनुयायियों ने भयंकर मारकाट और आगजनी की तथा बड़े पैमाने पर हत्यायें की। यूरोपीय लोगों के साथ भीषण अत्याचार किये गये। यूरोप के लिये यह अवधि अभाव, कंगाली और महामारी की है। अत्याचारों से घबराकर बहुत से साहसी लुटेरे और डकैत, मल्लाह रोजी-रोटी की तलाश में बाहर निकले। जब उन्हांेने मरते-खपते भारत और अमेरिका को खोज लिया। तब वहाँ से लूटे गये सोना-चांदी की यशोगाथा सुनकर 18वीं शताब्दी ईस्वी तक अन्य यूरोपीय समुदाय भी इन खोजे गये इलाकों में पहुचने लगे। यूरोप के लिये यह अवधि इतनी भयंकर थी और वहाँ इतनी पैशाचिकता तथा क्रूरता थी कि उसे ‘अंधकार युग घोषित कर दिया गया है और उसकी चर्चा से यूरोप के लोग बचते हैं।’
भाग 7 यूरोपीय समूहों के द्वारा विश्व में
अनेक देशों की लूट और फिर उनका सिकुड़ना
(17वीं शताब्दी ईस्वी से आज तक)
कोलंबस और वास्कोडिगामा के बाद का युग यूरोपीय लोगों के लिये नया सूर्योदय लेकर आया। वे भुक्खड़ों और कंगलों की तरह लगभग पागलपन के साथ जहाँ भी कुछ सम्पदा का सुराग मिलता, दौड़ने लगे और वहाँ जाकर स्थानीय लोगों के साथ छलकपट करके लूटपाट और डकैती करने लगे। समृद्ध देशों में इस तरह के व्यवहार की पहले तो कल्पना नहीं थी। जिसका लाभ यूरोपियों ने उठाया। परन्तु 100 वर्षों के भीतर ही भारत तथा अन्य देशों के लोग इनके बारे में सावधान हो गये और इन्हंे हर जगह से वापस लौटना पड़ा। केवल अमेरिका में जहाँ यूरोप के खूंखार अपराधियों को निर्वासन देकर भेजा गया था, भयंकर हत्याओं और क्रूरताओं के द्वारा स्थानीय आबादी का नरसंहार का वे एक बड़े क्षेत्र में कब्जा करने में सफल हुये और अब वहाँ एक सभ्य आधुनिक राज्य स्थापित करने में सफल हुये। ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप में वहाँ के लोगों का सम्पूर्ण जाति संहार कर डाला और अब वहाँ यूरोपीय मूल के लोगों का ही शासन है। कनाडा में भी यही स्थिति है।
भारत में 1858 से 1947 तक लगभग आधे भारत में ब्रिटिश शासन भारतीयों के सहयोग से चलाया गया और फिर उन्हें जाना पड़ा। शेष भारत में भव्य हिन्दू राज्य थे तथा कतिपय मुस्लिम जागीरें भी रहीं।
इस अवधि के अभिलेख और विवरण बहुत विस्तार से उपलब्ध हैं।
प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

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