दिल है कि मानता नहीं
*रजनीश कपूर
जब भी कभी कोई महत्वपूर्ण निर्णय लेना हो तो अक्सर यह देखा गया है कि दिल का पलड़ा दिमाग़ पर
भारी पड़ता है। ऐसा ज़्यादातर मोह माया के लोभ के कारण होता है। शास्त्रों में भी कहा गया है कि लोभ
में फंसकर व्यक्ति नीति के विरूद्ध कार्य करता है। परंतु जिस भी व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में जब लोभ
एक अहम स्थान ग्रहण कर लेता है तो वो हर तरह के प्रयास से अपने मोह से जुड़े लक्ष्यों की पूर्ति में जुट
जाता है।
प्रायः यह देखा गया है कि जब भी कभी किसी उच्च पद पर तैनात सरकारी अफ़सर, सासंद, विधायक आदि
की सेवा निवृत्ति का समय आता है तो सरकारी बंगले और अन्य सुविधाओं का मोह उन्हें घेर लेता है।
इसके विपरीत ऐसे भी व्यक्ति देखे गए हैं जो अतिसंवेदनशील पदों पर रहने के बावजूद, अपना सेवाकाल
पूरा होते ही सरकारी बंगला छोड़ देते हैं। ऐसे लोग आप उँगलियों पर गिन सकते हैं जो रिटायर होने के
दूसरे दिन ही सरकारी बंगला छोड़ देते हैं। उनका मानना है कि जब वे इस बंगले में रहने के योग्य बने थे
तो उनकी यही इच्छा थी कि वे सरकारी बंगले में जल्द-से-जल्द शिफ़्ट हो जाएं। यदि उनसे पहले रहने
वाले व्यक्ति ने समय पर बंगला ख़ाली न किया होता तो उनकी ये इच्छा कैसे पूरी होती? ठीक उसी तरह
इनके बाद उसी पद पर आने वाले व्यक्ति की भी इसी इच्छा का सम्मान करते हुए उन्हें भी सरकारी बंगला
समय पर ख़ाली कर देना चाहिए।
कुछ हफ़्तों पहले ऐसा भी देखने को मिला जब एक राज्य सरकार में महत्वपूर्ण पद पर तैनात एक
अधिकारी ने अपनी सेवानिवृत की तारीख़ से पहले ही पूरे सरकारी तंत्र में ऐसा माहौल बनाना शुरू कर
दिया कि उसका एक्सटेंशन तय है। परंतु अटकलों का बाज़ार तब शांत हुआ जब उस अधिकारी की विदाई
की पार्टी के लिए तमाम इंतेजाम करने के आदेश जारी हुए। लेकिन आदत से मजबूर ये अधिकारी अपनी
रिटायरमेंट के बाद भी ज़िले के अधिकारियों पर अपनी धौंस दिखाता रहा और मौखिक फ़रमान जारी
करने लग गया। मीडिया में इस बात को लेकर काफ़ी चर्चा रही। ज़ाहिर सी बात है कि इन महाशय से
बंगले और नौकर गाड़ियों का मोह नहीं छूट रहा था। ऐसे अधिकारी किसी न किसी ढंग से अपनी सेवा
विस्तार करा ही लेते हैं। अगर सेवा विस्तार न हो पाए तो वे अपने लिए कोई एक ऐसा पद बनवा लेते हैं
जो उन्हें मुख्य मंत्री के क़रीब ही रखता है। मतलब ये कि रिटायरमेंट के बाद भी अपने पद पर बने रहने का
जुगाड़ कर लेते हैं।
ऐसा नहीं है कि ऐसा लालच केवल नौकरशाही में ही देखा जाता है। पिछले हफ़्ते खबर छपी कि राज्य
सभा के एक वरिष्ठ सदस्य महोदय से भी दिल्ली के लुटियन ज़ोन का बंगला ख़ाली नहीं हो रहा है। सासंद
महोदय ने सुरक्षा कारण बताते हुए बंगला ख़ाली न करने की गुहार दिल्ली उच्च न्यायालय में भी लगा दी।
माननीय उच्च न्यायालय ने उनकी दरखास्त को निरस्त करते हुए उन्हें 6 सप्ताह के भीतर अपना बंगला
ख़ाली करने के आदेश दे दिए। आपने ठीक पहचाना, इन सांसद महोदय का नाम डॉ॰ सुब्रमण्यम स्वामी है।
राज्य सभा के पूर्व सांसद डॉ सुब्रमण्यम स्वामी हमेशा विवादों में रहे हैं। लेकिन सत्ता के गलियारों में इस
बात की चर्चा आम है कि मोदी सरकार भी इनके झाँसे में आ गई और इन्हें राज्य सभा सांसद बना दिया।
चुनावी वादों की तरह डॉ॰ स्वामी ने भी भाजपा को एक ऐसा सपना दिखाया जिससे वो स्वामी के कहने
में आ गए। उधर स्वामी को जब कोई मंत्री पद नहीं मिला तो उन्होंने अपने वादे पूरा करना तो दूर, मोदी
सरकार की नीतियों पर ही सवाल उठा दिए। बस होना क्या था स्वामी भाजपा की सरकार की आँख की
किरकिरी बन गए। चूँकि राज्य सभा के सदस्य का निलम्बन कर भाजपा को विपक्ष के प्रहारों को सहना
पड़ता शायद इसीलिए मोदी सरकार ने डॉ स्वामी को नज़रंदाज़ करना शुरू कर दिया। मोदी सरकार के
मंत्री या भाजपा के वरिष्ठ नेता डॉ स्वामी के बयानों पर भी कोई टिप्पणी नहीं करते थे।
2022 में जब मोदी सरकार ने डॉ सुब्रमण्यम स्वामी राज्य सभा टिकट नहीं दी तो इस बात पर मुहर लग
गयी कि भाजपा स्वामी से कन्नी काट रही है। राजनैतिक पंडितों द्वारा ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि
जिस ‘जेड’ श्रेणी की सुरक्षा का हवाला देते हुए स्वामी अपने सरकारी बंगले को बरकरार रखना चाहते हैं,
शायद वो भी हटा ली जाएगी। यदि ऐसा होता है तो स्वामी के पास सरकारी बंगला रखने का बहाना भी
नहीं रहेगा। देखना यह है कि जनता के कर के पैसे पर सुरक्षा लेने वाले ऐसे कितने राजनेता हैं जो झूठे
वादों के भरोसे बड़े राजनैतिक दलों से जुड़ जाते हैं और बाद में उन्हीं के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी करते हैं। ऐसे
में यदि उन नेताओं को सरकार द्वार दी गई सुरक्षा और बंगले आदि की सुविधा वापिस ली जाती है तो इन
नेताओं का दिल उसे छोड़ने की इजाज़त नहीं देता।
देश हो या विदेश आपको ऐसे अनेकों उदाहरण मिल जाएँगे जहां महत्वपूर्ण सरकारी पद छोड़ते ही
अधिकारी या नेता अपने निजी आवास में चले जाते हैं। ये अलग बात है कि पुलिस का दरोग़ा हो या निम्न
स्तर का सरकारी कर्मचारी कभी-कभी उनके निजी मकान उनके आला अधिकारियों से कहीं ज़्यादा बड़े
और आलीशान होते हैं। जबकि ईमानदारी से कार्य करने वाले वरिष्ठ अधिकारी, जज, या नेता प्रायः
आपको छोटे से फ़्लैट या अपने पुश्तैनी मकान में ही पाए जाएँगे, किसी पॉश कालोनी के महल में नहीं।
इसलिए हमेशा दिल के आगे मजबूर होने से बेहतर है दिमाग़ कि भी सुनें और लोभ न करें।