-विनीत नारायण
भारतीय लोकतंत्र की परंपरा काफ़ी सराहनीय रही है। लोक सभा भारत की जनता की सर्वोच्च प्रतिनिधि सभा है जहां
देश के कोने-कोने से आम जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि अपने क्षेत्र, प्रांत व राष्ट्र के हित में समस्याओं पर विमर्श करते
हैं। लोकतंत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच लगातार नोक-झोंक का चलना बहुत सामान्य व स्वाभाविक बात है।
सत्तापक्ष अपनी छवि बढ़ा-चढ़ा कर पेश करता है तो विपक्ष उसे आईना दिखाने का काम करता है। इससे मुद्दों पर
वस्तु स्थिति स्पष्ट होती है। इस नोक-झोंक का कोई बुरा नहीं मानता। क्योंकि आज जो सत्ता में हैं, कल तक वो विपक्ष
में थे और तब वे भी यही करते थे जो आज विपक्ष कर रहा है। जो आज सत्ता में हैं कल वो विपक्ष में होंगे और फिर वे
भी वही करेंगे। लेकिन इस नोक-झोंक की सार्थकता तभी है जब वक्ताओं द्वारा मर्यादा में रह कर अपनी बात रखी
जाए।
जब तक संसदीय कार्यवाही का टीवी पर प्रसारण नहीं होता था, तब तक देश की जनता को यह पता ही नहीं चलता
था कि उनके चुने हुए प्रतिनिधि संसद में कैसा व्यवहार कर रहे हैं? उन्हें यह भी नहीं पता चलता था कि वे संसद में
किन मुद्दों को उठा रहे हैं? अक्सर ऐसे मामले भी सामने आए हैं जब सांसदों ने आर्थिक लाभ की एवज़ में बड़े
औद्योगिक घरानों के हित में सवाल पूछे। वरिष्ठ पत्रकार ए सूर्यप्रकाश ने तीस वर्ष पहले ऐसे लेखों की श्रृंखला छापी थी
जिसमें सांसदों के ऐसे आचरण का खुलासा हुआ और देश ने पहली बार जाना कि ‘संसद में सवाल बिकते हैं’। पर जब
से टीवी पर संसदीय कार्यवाही का प्रसारण होने लगा तब से आम देशवासियों को भी ये देखने को मिला कि हमारे
सांसद सदन में कैसा व्यवहार करते हैं। बिना अतिशयोक्ति के ये कहा जा सकता है कि प्रायः कुछ सांसद जिस भाषा का
प्रयोग आजकल करने लगे हैं उसने शालीनता की सारी सीमाएँ लांघ दी है। शोर-शराबा तो अब आम बात हो गई है।
ऐसा नहीं है कि संसद में ये हुड़दंग केवल भारत में ही देखने को मिलता है। यूरोप सहित दुनिया के अनेक देशों से ऐसे
वीडियो आते रहते हैं, जिनमें सांसद हाथापाई करने और एक दूसरे पर कुर्सियाँ और माइक फेंकने तक में संकोच नहीं
करते। सोचिए इसका देश के बच्चों और युवा पीढ़ी पर क्या प्रभाव पड़ता होगा?
सोचने वाली बात ये भी है कि संसद की कार्यवाही पर इस देश की ग़रीब जनता का अरबों रुपया ख़र्च होता है। एक
आँकलन के अनुसार संसद चलने का प्रति मिनट खर्च ढाई लाख रुपये से थोड़ा अधिक आता है। इसका सदुपयोग तब
हो जब गंभीर चर्चा करके जनता की समस्याओं के हल निकाले जाएँ। जिस तरह एक विद्यालय में शिक्षक कक्षा के
सक्षम और योग्य छात्र को क्लास का मॉनिटर बना देते हैं, जिससे वो कक्षा में अनुशासन रख सके। उसी तरह लोक
सभा के सांसद भी अपना मॉनिटर चुनते हैं जो लोक सभा की कार्यवाही का संचालन करता है। आजतक हमारी लोक
सभा का यह इतिहास रहा है कि लोक सभा के अध्यक्षों ने यथा संभव निष्पक्षता से सदन की कार्यवाही का संचालन
किया। उल्लेखनीय है कि 15वीं लोक सभा के तत्कालीन अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने अपने ही दल के विरुद्ध निर्णय
दिये थे जिसका ख़ामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा । उन्हें दल से निष्कासित कर दिया गया। पर उन्होंने अपने पद की
मर्यादा से समझौता नहीं किया। लेकिन पिछले दस वर्षों से लोक सभा के वर्तमान अध्यक्ष ओम बिरला जी लगातार
विवादों में रहे हैं। उन पर सत्तापक्ष के प्रति अनुचित झुकाव रखने का आरोप विपक्ष लगातार लगाता रहा है। 17वीं
लोक सभा में तो हद ही हो गई जब सत्तापक्ष के एक सांसद ने विपक्ष के सांसद को सदन की कार्यवाही के बीच बहुत
ही अपमानजनक गालियाँ दी। अध्यक्ष ने उनसे वैसा कड़ा व्यवहार नहीं किया जैसा वो लगातार विपक्ष के सांसदों के
साथ करते आ रहे थे। तब तो और भी हद हो गई जब उन्होंने विपक्ष के 141 सांसदों को सदन से निष्कासित कर
दिया। ऐसा आज़ाद भारत के इतिहास में पहली बार हुआ।
हाल ही में एक टीवी चर्चा में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री व समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव से
बातचीत करते हुए देश के नामी वकील, सांसद और पूर्व क़ानून मंत्री कपिल सिब्बल ने बताया कि, “देश के संविधान
के अनुच्छेद 105, संसद के सदस्यों को संसद में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होगी। परंतु क्या सांसदों को ऐसा करने दिया
जाता है? जबकि इसी अनुच्छेद में या पूरे संविधान में यह कहीं नहीं लिखा है कि किसी भी सांसद का, संसद सदन में,
अपनी बारी पर बोलते समय, माइक बंद किया जा सकता है। यह भी कहीं नहीं लिखा है कि किसी सांसद को बोलते
समय, यदि वह नियम व मर्यादा के अनुसार बोल रहा हो तो उसे टोका जा सकता। इतना ही नहीं ये बात भी नहीं
लिखी है कि यदि विपक्ष किसी मुद्दे पर सत्तापक्ष का विरोध करे तो उसे टीवी पर नहीं दिखा सकते। परंतु आजकल
ऐसा होता है और यदि लोक सभा अध्यक्ष इस बात को नकार देते हैं कि वे किसी का माइक बंद नहीं करते तो फिर
कोई तो है जो माइक को बंद करता है। यदि ऐसा है तो इसकी जाँच होनी चाहिए कि ऐसा कौन कर रहा है और
किसके निर्देश पर कर रहा है?”
इसके साथ ही एक और भी अजीब घटना हुई, अब तक परंपरा यह थी कि लोक सभा का अध्यक्ष सत्तापक्ष से चुना
जाता था और उपाध्यक्ष विपक्ष से चुना जाते थे। इससे सदन में संतुलन बना रहता था। पर पिछली लोक सभा में इस
परंपरा को तोड़ दिया गया और बिना उपाध्यक्ष के ही पिछली लोक सभा का कार्यकाल पूरा हो गया।
18वीं लोक सभा की शुरुआत ही ऐसी हुई है कि नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी से लेकर अखिलेश यादव और अभिषेक
बनर्जी तक अनेक दलों के सांसदों ने लोक सभा के वर्तमान अध्यक्ष ओम बिरला जी के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैये का खुला
आरोप ही नहीं लगाया, बल्कि अपने आरोपों के समर्थन में प्रमाण भी प्रस्तुत किए हैं। ये न सिर्फ़ लोक सभा अध्यक्ष के
पद की गरिमा के प्रतिकूल है, बल्कि ओम बिरला जी के निजी सम्मान को भी कम करता है। ऐसे में आवश्यकता इस
बात की है कि ओम बिरला जी मुंशी प्रेमचंद की कालजयी रचना ‘पंच परमेश्वर’ को गंभीरता से पढ़ें जो शायद उन्होंने
अपने स्कूली शिक्षा के दौरान पढ़ी होगी। इस कहानी ये शिक्षा मिलती है कि न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को
अपने सगे-संबंधियों का भी लिहाज़ नहीं करना चाहिए।लोकसभा की सार्थकता और अपने पद की गरिमा के अनुरूप
ओम बिरला जी को किसी सांसद को ये कहने का मौक़ा नहीं देना चाहिये कि उनका व्यवहार पक्षपातपूर्ण है।