वैसे तो इस घटना पर सभी चैनलों द्वारा व्यापक विमर्श रखा जा रहा है, वही दूसरी ओर राष्ट्रवादी विद्वानों में समूचे नार्थ-ईस्ट में एकमात्र असम के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी अगर छोड़ दी जाए तो सभी अन्य छः स्टेट के भौगोलिक, राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक सहित धार्मिक ज्ञान से शून्य ही देखा जाता है।
भारतीय संघीय ढाँचे में मणिपुर आजादी के दो वर्ष पश्चात ही एक रियासत के रूप में शामिल हुआ था। परन्तु इसे पूर्ण राज्य का दर्जा एक विशेष राज्य अधिनियम के तहत 1972 में किया गया था।
कुछ लोग इसी कारण को मणिपुर या कहें, नॉर्थ-ईस्ट त्रासदी का कारण बताते हैं।
जबकि जहाँ तक मेरा अध्ययन रहा है इस नॉर्थ ईस्ट के बारे में, “आजादी के साथ से यहाँ तेहरा शाशन प्रणाली” लागू रहा है।
अभी तक इतिहास में एकमात्र बंगाल क्षेत्र में ही दोहरा शाशन प्रणाली का उल्लेख मिलता है, परन्तु हमारे भारत का यह विशिष्ट जॉन अपने “तेहरे शासन पद्धति” के लिए प्रसिद्ध रहा है।
यहाँ दो प्रकार की स्पष्ट नियामक शक्तियों को देखा जाता है, जिसमें एक #सरकार_शक्ति और दूसरा #विद्रोही_शक्ति ।और इन दोनों ही शक्तियों में समुचित सामन्जस्य स्थापित करने वाली एक अन्य शक्ति भी देखी जाती है, वह है #भारतीय_विशिष्ट_सुरक्षा_प्रणाली(गुप्तचर विभाग)। इस प्रकार एक बहुत ही छोटे परन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण परिक्षेत्र की यह त्रिपल शासन व्यवस्था “अपने सौंदर्य के साथ ही अत्यन्त भयानक हो जाती है”। क्योंकि लोक श्रुति है, “जहाँ दो राजा हों, वहाँ प्रजा का विनाश हो जाता है”। और ऐसे स्थान को विद्वान जन तुरन्त त्याग देते हैं।
अब विचार करें, दोहरे के स्थान पर त्रिपल शासन व्यवस्था के बाद भी अगर नॉर्थ ईस्ट अपने सांस्कृतिक और नैतिक चरित्र को बचाने के लिए निरन्तर प्रयास कर रहा है तो उस विशिष्ट परिक्षेत्र का #भौगोलिक_चरित्र क्या होगा?
(ध्यातव्य हो, इतिहास अध्ययन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू ही किसी परिक्षेत्र का भौगोलिक चरित्र होता है, बिना भौगौलिक चरित्र के इतिहास का ज्ञान मात्र मिथक समझा जाता है।)
अब मैं बात करती हूँ नॉर्थ ईस्ट के भौगोलिक चरित्र की,
“महर्षि पतञ्जलि” के महाभाष्य में वेद शाखाओं का जो वृहद वृत्तांत बताया गया है, उसके अनुसार और महर्षि पाणिनि के अष्टाध्यायी के अध्ययन से ज्ञात होता है कि भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में सबसे अधिक वेद शाखाओं का चलन देखा जाता है।” जिसकी पुष्टि के लिए जब मैं वेद शाखाओं की प्रकृति के बारे में अध्ययन की तो ज्ञात हुआ कि,
एक वेद-शाखा सांगठनिक रूप से स्वायत्त जानी जाती है। सभी शाखाओं से सम्बद्ध उनके अलग-अलग प्रतिपादक विषयों का चलन स्पष्ट जाना जाता है। किसी शाखा से सम्बद्ध सूत्र, श्रुति, स्मृति, ब्राह्मण ग्रंथ, उपवेद और चिकित्सा पद्धति सम्बंधी आयुर्वेद की विशिष्ट शाखाओं का समुच्चय भी एकसाथ देखा जाता है।
अगर दूसरे शब्दों में कहूँ तो,
एक विशिष्ट परिक्षेत्र की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और भौगोलिक परिस्थितियों का नियंता या अधिशाषी शाखा कोई एक विशिष्ट वेद शाखा हुआ करती थी।
जब मैं भारत की “अनेकता में एकता” की बात करती हूँ, तब मुझे यहाँ की प्रादेशिक अभिव्यंजना नहीं, बल्कि वैदिकीय अभिव्यंजना की याद आती है। जिसे स्थापित करने के लिए भी एक “विशिष्ट समायोजन पद्धति” हमारे आदिम ऋषियों ने बना रखी थी।
वह थी,
“किसी भी एक शाखा का व्यक्ति, किसी भी अन्य शाखा से अध्ययन नहीं कर सकता। तब तक, जब तक वह व्यक्ति अपनी वेदशाखा का सम्यक अध्ययन न कर लिया हो।”
इसके बाद अन्य शाखा के अध्ययन का जहाँ पूर्ण अधिकार प्राप्त हो जाता था, वही एक अनिवार्य शर्त भी रखी जाती थी, कि, आध्यार्थी अपनी मूल शाखा के नियम अनुसार ही “मनुष्य के तीन मूल कर्तव्यों का निर्वाह करेगा।(वे तीन मूल कर्त्तव्य, श्रवण, मनन और निदिध्यासन हैं)
जो किसी भी शाखा की स्वायत्तता और अखण्डता के लिए अनिवार्य था।
वही सम्पूर्णता की प्राप्ति के लिए विद्वानों को एकाधिक शाखाओं(वेद) में अध्ययन अनिवार्य हो जाता था।
जहाँ हमारी शिक्षाव्यवस्था ही हमारे मध्य की ऐक्यता को सुनिश्चित करती थी, ठीक इसी प्रकार आर्थिक सुरक्षा भी हमारी ऐक्यता और अखण्डता को अनेकता के बावजूद भी सुनिश्चित करती थी।
कालान्तर में म्लेच्छों के प्रभाव के कारण हमारी वेद शाखाओं का नित्य विनाश जारी रहा, और यह विनाश कुछ इस हद तक हुआ कि, सप्तद्वीपों में से सिमटकर एकमात्र सिंधु प्रदेश ही अपनी अखण्डता को सुरक्षित रखने में सफल रहा।
परन्तु यह अखण्डता भी म्लेच्छ(इश्लमियों) के कारण क्षीण होती चली गयी।
जैसे-जैसे वेद शाखाओं का विनाश हुआ, वैसे-वैसे भारतीय संस्कृति सिमटती चली गयी।
वर्त्तमान में भारत में कुछेक शाखाओं का ही चलन अत्यल्प रूप से पाया जाता है, जिन्हें हमारे #शंकर_परम्परा द्वारा सुरक्षित रखने का नित्य प्रयास सतत जारी है।
अंग्रेजों के साथ ही ईसाइयों का नॉर्थ ईस्ट की ओर गमन होता है, ये वही ईसाई थे, जो न केवल अमेरिकी, अफ्रीकी, और यूरोपियन सभ्यताओं को जमीदोंज कर चुके थे, बल्कि इश्लाम के प्रभाव को भी पश्चिम की ओर बढ़ने से रोक दिए थे।
एक नए जोश और उत्साह के साथ उनका प्रवेश होता है नॉर्थ ईस्ट के बीहड़ प्रदेशों में।
ये सब वही प्रदेश थे, जो अपनी संस्कृति के रक्षार्थ #बीहड़ों को अपना शरणस्थली बना चुके थे। सार्वभौमिकता का अत्यंत अभाव होने के बावजूद भी अपनी संस्कृति और सभ्यता की रक्षा के लिए बीहड़ों की ख़ाक छान रहे थे।
परन्तु क़िस्मत यहाँ भी उन्हें सुरक्षित रहने नहीं दी।
और आरम्भ हुआ एक भीषण नरसंहार का।
ये वही नरसंहार था, जो कभी अफ्रीका के जंगलों में रचा गया, कभी उत्तरी अमेरिका और दक्षिणी अमेरिका के बीहड़ों में रचा गया था।
जिसका आज तक कोई नामोनिशान नहीं मिलता।
यह अलग बात है कि तत्कालीन कुछ लेखकों के #पत्र और #डायरियों में वहाँ की तत्कालीन “सभ्यता और परिचारिकी” का उल्लेख होने से उस नृशंस हत्याओं का जिक्र जेहन में आ ही जाता है। जिनका वर्त्तमान में कोई नामोनिशां नहीं।
प्रबलतम प्रतिरोध और भीषण नरसंहार के कारण धीरे-धीरे समूचा “नार्थ ईस्ट” समाज के चतुर्थ पंक्ति(जनजाति) में शामिल हो गया। उन्हें भारतीय मूल धारा से पूरी तरह से काट दिया गया। अंग्रेजों से आजादी प्राप्त होने तक वे अपने को ठीक उसी प्रकार कातर और दीन हीन मान चुके थे, जिस प्रकार वर्त्तमान #हिन्दू म्लेच्छों के सामने अपने को कमतर और दीन पाता है।
जिसका सहज ज्ञान मणिपुर हाईकोर्ट में दिए गए मैती समुदाय द्वारा उस स्टेटमेंट से लगाया जा सकता है, “जिसमें स्पष्ट जिक्र मिलता है कि उन्हें भारत में विलय से पहले #जनजाति में समायोजित किया गया था।”
आशा है, अपने इस वास्तविक इतिहास से परिचित होकर,
तमाम न्यूज चैनल्स की बातों पर पुनः समीक्षा में आसानी होगी।
जय श्री कृष्ण
साभार भारद्वाज नमिता जी ।
मणिपुर हिंसा का पूरा सच.!!!
हर भारतीय सच्चाई जानिए.. क्या कहानी है!
खासकर सभी दलित भाई और आदिवासियों को पढ़ना चाहिए
म्यांमार से जुड़ा अवैध प्रवासी मणिपुर के कुकी और नागा जनजाति से ताल्लुक रखते हैं, कहा जा रहा है कि सरकार इन्हें सरकारी ज़मीन पर अफ़ीम की खेती करने से रोक रही है, पहला हिंसक विरोध प्रदर्शन 10 मार्च को हुआ था, जब कुकी गाँव से अवैध प्रवासियों को निकाला गया था!
पहाड़ी जिलों में नागा और कुकी जनजातियों का वर्चस्व है, हालिया हिंसा चुराचांदपुर पहाड़ी जिलों में ज्यादा देखी गई, यहां पर रहने वाले लोग कुकी और नागा ईसाई धर्म से हैं, बता दें कि चार पहाड़ी जिलों में कुकी जाति का प्रभुत्व है!
मणिपुर में 16 जिले हैं, राज्य की जमीन इंफाल घाटी और पहाड़ी जिलों के तौर पर बंटी हुई है. इंफाल घाटी मैतेई बहुल हैं, मैतई जाति के लोग हिंदू समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, मैतेई (हिंदू आदिवासी) समुदाय को अनुसूचित जाति दर्जा दिए जाने की मांग के विरोध में निकाले गए मार्च में हिंसा भड़क गई थी!
मणिपुर की आबादी लगभग 28 लाख है, इसमें मैतेई (हिंदू दलित) समुदाय के लोग लगभग 53 फीसद हैं, मणिपुर के भूमि क्षेत्र का लगभग 10% हिस्सा इन्हीं लोगों के कब्जे में हैं, ये लोग मुख्य रूप से इंफाल घाटी में बसे हुए हैं, कुकी (ईसाई) जातीय समुह मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का विरोध कर रही है!
कुकी (ईसाई) जनजाति मैतेई (हिंदू आदिवासी) समुदाय को आरक्षण देने का विरोध करती आई है, इन जनजातियों का कहना है कि अगर मैती समुदाय को आरक्षण मिल जाता है तो वे सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले से वंचित हो जाएंगे, कुकी जनजातियों का ऐसा मानना है कि आरक्षण मिलते ही मैतेई लोग अधिकांश आरक्षण को हथिया लेंगे!
पिछले 10 सालों से मैतेई समुदाय के लोग जो कि हिंदू आदिवासी धर्म को मानते हैं यह आरक्षण की मांग कर रहे थे लेकिन किसी भी सरकार ने ध्यान नहीं दिया लेकिन तत्कालीन भाजपा सरकार की पहल से और केंद्र सरकार ने सिफारिश किया तब इन्हें आरक्षण का अधिकार मिला!
जिसका विरोध कुकी और नागा समुदाय (ईसाई) के लोग कर रहे हैं और यही दो धर्मों के बीच हिंसा की मुख्य वजह है और भाजपा किसके साथ है यह सब कुछ समझ में होना चाहिए भाजपा ने कभी भी हिंदू का साथ नहीं छोड़ा है!
मैतेई जाति के लोगों का ये कहना है कि ST दर्जे का विरोध सिर्फ एक दिखावा है, कुकी आरक्षित वन क्षेत्रों में बस्तियां बना कर अवैध कब्जा कर रहे हैं, पहाड़ी और कस्बों के इलाके में कई जनजातियों द्वारा कब्जा की गई जमीनों को भी खाली कराया जा रहा है, जमीनों पर ज्यादातर कुकी समूह के लोग रहते हैं, यही वजह है कि चुराचंदपुर इलाके से हिंसा भड़की, यह कुकी बहुल है!
उत्तर भारत के ज्यादातर हिंदी भाषी लोगों को नॉर्थ ईस्ट के बारे में जानकारी नहीं है जिस वजह से कुछ राजनेताओं द्वारा लोगों को भड़काया जा रहा है और वह अपने ही हिंदू आदिवासी भाइयों को नहीं पहचान पा रहे हैं, यह जो मैंने पूरा लिखा है पूरा तथ्य के आधार पर है और यही कड़वी सच्चाई है तो कहीं से भी भाजपा को दोष देना उचित नहीं है, भाजपा आज भी अपने हिंदू दलित और आदिवासी भाइयों के साथ खड़ी है और खड़ी रहेगी!
आरक्षण जो आपको मिला है मणिपुर में उसका कोई भी हिंदू विरोध नहीं कर रहा है, वहां पर विरोध इसाई कर रहे हैं और आपको मार भी ईसाई रहे हैं, इसलिए अभी भी वक्त है अपनों को पहचानिए और अपनों के साथ रहे!
जयतु सनातन धर्म
#सासाभार