Shadow

राहुल को बोलने की सद्बुद्धि दे भगवान!-ललित गर्ग

युगीन भारतीय राजनीतिक मनोरचना में शालीनता एवं शिष्टता के स्थान पर स्वच्छन्दता, अशालीन एवं अभद्र भाषा के व्यवहार का अधिक सक्रियता से प्रचलन चिन्ताजनक है। ऐसी स्थिति में शीर्ष राजनेता राजनीतिक शिष्टता एवं लोकतांत्रिक मर्यादा में अपना योगदान कैसे दे सकते हैं? यह प्रश्न समूचे विपक्ष के साथ कांग्रेस के राहुल गांधी को लेकर व्यापक चर्चा में हैं। किसी को कुछ भी कह देना और यहां तक अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करना गैर जिम्मेदाराना हरकत ही नहीं स्वयं को अति विशिष्ट समझने की अहंकारी मानसिकता भी है, जो एक बड़ी राजनीतिक विसंगति बनती जा रही है। सार्वजनिक जीवन में ऐसी सामंती मानसिकता के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। इसीलिये सूरत की एक अदालत की ओर से आपराधिक मानहानि के एक मामले में राहुल गांधी को दो साल की सजा सुनाए जाने के बाद उनकी संसद सदस्यता भी चली गयी है। यह एक बड़ी राजनीतिक घटना है, इस तरह की सजा सुनाया जाना राजनीति के अहंकार को पाले लोगों के लिये एक सबक है, एक सन्देश है। यह विचित्र है कि कांग्रेसजन राहुल गांधी का बचाव करते हुए न्यायिक प्रक्रिया पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं। इससे कुछ हासिल होने वाला नहीं है।
भारतीय राजनीति में सभी स्तरों पर आदर्शहीनता, मूल्यहीनता व अभद्र वचनों की वाचाल आंधी चल रही है, जो नई कोपलों के साथ पुराने वट-वृक्षों को भी उखाड़ रही है। मूल्यों के बिखराव के इस चक्रवाती दौर मंे भारतीय राजनीति में उथल-पुथल मची हुई है। अब नायक नहीं बनते, खलनायक सम्मोहन पैदा कर रहे हैं। पर्दे के पीछे शतरंजी चाल चलने वाले मंच का संचालन कर रहे हैं। कइयों ने तो यह नीति अपना रखी है कि गलत करो और गलत कहो, तो हमें सब सुनेंगे। हम खबरों में रहेंगे। बदनाम हुए तो क्या हुआ, नाम तो हुआ। अब शब्दों की लीपा-पोती एवं गलत बयानबाजी की होशियारी से सर्वानुमति बनाने का प्रयास नहीं होना चाहिए, क्योंकि मात्र शब्दों एवं बयानों की सर्वानुमति किसी एक गलत शब्द के प्रयोग से ही पृष्ठभूमि में चली जाती है। यह रोज सुनते हैं और राहुल गांधी प्रकरण में समूचा राष्ट्र इसे देख रहा है। अपनी सजा पर राहुल गांधी के यह कहने का कोई मतलब नहीं कि सत्य मेरा भगवान है। महात्मा गांधी के इस कथन का उल्लेख करना इसलिए व्यर्थ है, क्योंकि उन्हें जिस बयान के लिए मानहानि का दोषी पाया गया, उसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर निशाना साधने के लिए ललित मोदी, नीरव मोदी का उल्लेख करते हुए यह जो कहा था कि सारे मोदी चोर क्यों होते हैं, वह हर दृष्टि से एक अपमानजनक और अभद्र बयान था, जिससे एक जाति-विशेष के लोगों का आहत होना स्वाभाविक है।
निश्चित ही राहुल गांधी का पूर्वाग्रह, आग्रह एवं दुराग्रह से ग्रस्त, राजनीतिक स्वार्थ से प्रेरित पिछले लोकसभा चुनाव के अवसर पर उनकी ओर से दिया गया यह बयान एक जाति विशेष के लोगों के प्रति उनकी दुर्भावना का परिचायक था। यही कारण रहा कि उन्हें मानहानि का दोषी पाया गया। राहुल गांधी को यह आभास होना चाहिए था कि वह अपने बयान से एक जाति के लोगों को लांछित एवं अपमानित कर रहे थे। किसी राजनीतिक दल का सर्वेसर्वा होने का अर्थ यह कदापि नहीं कि वे किसी को भी कुछ भी कह दे। भले ही वह कांग्रेस के बड़े नेता हैं लेकिन इसका यह भी अर्थ नहीं हो सकता कि संभलकर बोलना छोड़ दें और जो मन में आए, बोल दें। समस्या यह है कि वह ऐसा ही करते रहते हैं और इसी कारण रह-रहकर आलोचना और विवाद का केंद्र बनते रहते हैं।
राहुल गांधी जैसे राजनेताओं के कारण पूरी भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में अनुशासन, शालीनता, शिष्टता एवं मर्यादा की आदर्श पृष्ठभूमि बन ही नहीं रही है। ऐसे में नई पीढ़ी के बारे में, जो नये विश्व का आधार है, कोई आदर्श सोच पनप नहीं पा रही है, उनके लिये कोई आदर्श पदचिन्ह स्थापित नहीं कर पा रहे हैं अगर कोई प्रयास कर भी रहा है तो वह गर्म तवे पर हथेली रखकर ठण्डा करने के प्रयास जैसा है। जिस पर राजनीति की रोटी तो सिक सकती है पर निर्माण की हथेली जले बिना नहीं रहती। यही विचित्र कारण है कि कांग्रेसजन गलत का साथ देते हुए न्यायिक प्रक्रिया पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं। किसी को राजनीति करने के नाम पर कुछ भी कहने की छूट कैसे दी जा सकती है? राहुल गांधी तो इससे और अच्छे से परिचित होंगे, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी को गलत तरीके से उल्लेख करते हुए जब उन्होंने यह कह दिया था कि अब तो शीर्ष अदालत भी कह रही है कि चौकीदार चोर है, तो उन्हें माफी मांगनी पड़ी थी।
चोरी ऊपर से सीना जोरी वाली स्थिति देखने को मिल रही है, अपमानजक बयान के लिए क्षमा याचना मांगने की बजाय वे और उनके हितैषी उसे सही ठहराने में जुटे हैं। भले ही राहुल गांधी अपने अपमानजक बयान के लिए राजनीतिक कारणों से माफी मांगने से इन्कार कर रहे हो, लेकिन परिणाम यह है कि अब उनकी राजनीति पर ही बन आई है। वह जिस कठिनाई में फंसे हैं, उसके लिए अपने अतिरिक्त अन्य किसी को दोष नहीं दे सकते। राहुल गांधी राजनीतिक दृष्टि से अपरिपक्व इंसान है, इस बात को उन्होंने बार-बार साबित किया है। उनके बचकाने बयानों को लेकर पहले से ही राजनीति गरमाई हुई है, अब सूरत अदालत का फैसला राजनीति में उबाल का एक और बिंदु जरूर बन गया है। यह फैसला ऐसे समय आया है, जब लंदन में दिए गए राहुल गांधी के बयान संसद में गतिरोध का कारण बने हुए हैं। सत्तारूढ़ बीजेपी विदेशी धरती पर दिए गए उन बयानों को देश का अपमान बताते हुए राहुल से माफी की मांग पर अड़ी हुई है। इस फैसले ने बीजेपी के तरकश में एक शक्तिशाली बाण तो डाल ही दिया है। बीजेपी नेता और कार्यकर्ता अब इस फैसले के हवाले से यह दावा कर सकते हैं कि राहुल गांधी के बयान अदालत की कसौटी पर भी खरे नहीं उतरते, आम जनता की अदालत में कैसे खरे उतरेंगे? निश्चित ही राहुल गांधी राजनीतिक हमले करते हुए कुछ ज्यादा पर्सनल हो जाते हैं। आजादी के अमृतकाल में भारतीय राजनीति के लिये बेहतर होगा हमारे नेता अपने बयानों के प्रति संवेदनशीलता बनाए रखें, शालीनत एवं शिष्ट भाषा एवं बयान का उपयोग करें। सवाल यह उठता है कि राजनैतिक पार्टियों और उनके नेताओं को ऐसी राष्ट्रीय ऊंचाई तक कैसे उठाया जाये? महात्मा गांधी के प्रिय भजन की वह पंक्ति- ‘सबको सन्मति दे भगवान’ में फिलहाल थोड़ा परिवर्तन हो- ‘केवल आकाओं को सन्मति दे भगवान’ एवं ‘बोलने वालों को सद्बुद्धि दे भगवान्।’ प्रेषकः

(ललित गर्ग)
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *