मोदी के हिंदी में बोलने का मतलब
आर.के.सिन्हा
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का स्विटजरलैंड के शहर डावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के 48वें सम्मेलन में हिन्दी में भाषण देना अपने आप में महत्वपूर्ण रहा। वे पूर्व में संयुक्त राष्ट्र की आम सभा को भी हिन्दी में संबोधित कर चुके हैं। इसके पूर्व जब विदेश मंत्री की हैसियत से 1977 में अटल बिहारी बाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में अपना भाषण दिया था तब वह भी खासा चर्चित रहा थाI एक तरह से मोदी ने हिंदी प्रेमियों के जेहन में बाजपेयी को वाक् पटुता, धाराप्रवाह भाषण और हिंदी प्रेम की याद ताज़ी कर दीI उनके डावोस में दिए भाषण के बाद कुछ चिर निराशावादी कहने लगे थे कि चूंकि भाषण हिन्दी में दिया गया है, इसलिए इसे विश्व प्रेस में जगह नहीं मिलेगी। लेकिन, हुआ इसके ठीक विपरीत। सारी दुनिया के महत्वपूर्ण मीडिया ने मोदी जी के भाषण को पर्याप्त कवरेज दी। दरअसल अब भारत का प्रधानमंत्री अगर किसी बड़े मंच से बोलता है, तो उसे सुना जाता है। मीडिया उसे नजरअंदाज नहीं कर सकती। यह भारत की बढ़ती हुई आर्थिक शक्ति को भी दर्शाता है। बहरहाल, मोदी जी की बात उन सभी निवेशकों तक चली ही गई जिन्हें वो पहुंचाना चाहते थे। यद्पि कांग्रेस के नेता शशि थरूर कह रहे हैं कि हिन्दी में भाषण देने का कोई औचित्य नहीं था। शशि को कुछ उल्टा-पुल्टा बोलने में मजा आता हैI उन्हें तो मीन-मेख निकालने की आदत है। हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाए जाने के सरकारी प्रयासों पर संसद में विगत दिनों हो रही चर्चा में भाग लेते हुए शशि थरूर ने यहाँ तक कह डाला था कि ‘हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं राजभाषा है। हिंदी सिर्फ एक ही देश भारत में बोली जाती है। इसलिए इसको संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा नहीं बनाया जा सकता। यह शशि की निअशावादी मनोवृति को दर्शाता हैI आज प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री सभी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर हिंदी बोलते हैं। भविष्य में कोई तमिलनाडु या पश्चिम बंगाल से प्रधानमंत्री भी बन सकता है, हमें उन्हें संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में बोलने के लिए मजबूर क्यों करना चाहिए?’ मतलब साफ है कि वे प्रेम और मैत्री कीभाषा हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने का समर्थन नहीं करते। ऐसे बकवास विश्व बहर के हिंदी प्रेमी कबतक बर्दाश्त करते रहेंगेंI
करारा जवाब दिया थरूर को
हालांकि शशि थरूर को करारा जवाब देकर सुषमा स्वराज ने चुप करवा दिया था। थरूर की गैर-जरूरी टिप्पणी के बाद उन्होंने कहा- “हिंदी केवल भारत में बोली जाती है, यह सिवाय आपकी अज्ञानता के और कुछ नहीं है। हिंदी भारत के अलावा फिजी में बोली जाती है। जितने भी गिरमिटिया देश हैं, चाहे मॉरीशस हो, त्रिनिदाद- टोबैगो, सूरीनाम हो, कीनिया, युगांडा, लंडों और अमेरिका में भी लोग हिंदी बोलते हैं। अमेरिका में तमाम अप्रवासी भारतीय हिंदी बोलते हैं।–चाहे वे बंगाल के हों या केरल केI
साथ मारीशस और फीजी का
अगर बात शशि थरूर और कांग्रेस से हटकर हो तो स्पष्ट है कि भारत हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनवाने को लेकर गंभीरता से प्रयासरत है। वो इस पहल में अपने साथ मारीशस और फीजी को भी जोड़ता है। एक बात को समझ ही लेना होगा कि किसी भाषा को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा देने के लिए वोटिंग होती है। इसके लिए किसी देश की ओर से लाए जाने वाले प्रस्ताव पर मतदान में हिस्सा लेने के लिए संयुक्त राष्ट्र के सभी 193 देशों को राशि देनी पड़ती है, लेकिन गरीब मुल्क मतदान में हिस्सा लेने के बदले यह खर्च उठाने में सक्षम नहीं है। यह भी जान लेना चाहिए कि सिर्फ पैसों के बल पर हिन्दी को यह दर्जा हासिल नहीं हो सकती। धन खर्च करने को तो भारत सरकार तैयार है। लेकिन, इसके लिए संयुक्त राष्ट्र के 129 सदस्य देशों का समर्थन जुटाने की भी तो जरूरत होगी।
अभी तक संयुक्त राष्ट्र में चीनी, अंग्रेजी, अरबी, फ्रेंच, रूसी और स्पेनिश को ही आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त है। अरबी को 1986 में इस तर्क पर आधिकारिक भाषा की मान्यता दी गई कि इसे 22 देशों में लगभग 20 करोड़ लोग बोलते हैं। संख्या को अगर आधार मानें तो भारत में 100करोड़ से अधिक लोग हिन्दी में संवाद करते हैं। बीस करोड़ से ज्यादा लोग तो भारत के बाहर हिंदी बोलते हैंI यह उनकी भाषा है। पर हिन्दी को उन भाषाओं में जगह नहीं मिल रही है, जिनका संयुक्त राष्ट्र में खास स्थान है। 1945 में संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाएँ केवल चार थीं। अँग्रेज़ी, रूसी, फ्रांसीसी और चीनी। उनमें 1973 में दो भाषाएँ स्पेनिश और अरबी जुड़ीं। इन भाषाओं में वहां पर दिए जाने वालों भाषणों का अन्य भाषाओं में अनुवाद होता है। आपको याद होगा कि जनता पार्टी की सरकार के विदेश मंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी ने 1977 में संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन में सर्वप्रथम हिन्दी में भाषण दिया था। उनसे पहले किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री या विदेश मंत्री ने हिन्दी का प्रयोग इस मंच पर नहीं किया था। अटल जी के उस भाषण के बाद पूरे देश में एक उम्मीद बंधी कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा मिलने ही वाला है।
हिन्दी जोड़ती भारत से
अब हिन्दी विरोधियों को कौन बताए कि भारत की पुरातन संस्कृति, इतिहास और बौद्ध धर्म से संबंध एक अरसे से भाषाविदों को बारास्ता हिन्दी भारत से जोड़ते हैं। टोक्यो यूनिर्विसिटी में 1908 में हिन्दी के उच्च अध्ययन का श्रीगणेश हो गया था। चंदेक बरस पहले इस विभाग ने अपनी स्थापना के 100 साल पूरे किए थे। जापान में भारत को लेकर जिज्ञासा के बहुत से कारण रहे। गुरुदेव रविन्द्रनाथ टेगोर चार बार वहां की यात्रा पर गए। बौद्ध से भारत से संबंध तो एक बड़ी वजह सारे बौध मतावलंबी देशों में रहे ही है। अब तो जापानी मूल के लोग ही वहां पर मुख्य रूप से हिन्दी पढ़ा रहे हैं। वहां पर हर बरस करीब 20 विद्यार्थी हिन्दी के अध्ययन के लिए दाखिला लेते हैं। पूर्व सोवियत संघ और उसके सहयोगी देशों जैसे पोलैंड, हंगरी,बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया वगैरह में भी हिन्दी के अध्ययन की लंबी परम्परा रही है। झारखण्ड में रांची विश्वविद्यालय के फादर कामिल बुल्के का नाम यहाँ लेना चाहूँगाI वे रामचरितमानस के विद्वान मने जाते थेI उनकी अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोष एक बहुमूल्य कृति हैI 1967-1970 के दौर में तुलसी जयंती पर फादर कामिल बुल्के के व्याख्यान सुनने देशभर के मानस प्रेमी रांची में जुटते थेI फादर बुल्के के बारे में यह मशहूर था कि जब भी कोई नया व्यक्ति फादर बुल्के से अंग्रेजी में बातचीत की शुरुआत करता था तब वे विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर कहते थे, “यदिआपको हिंदी आती हो तो मैं हिंदी में ही वार्तालाप करना पसंद करूगां’’ एक दौर में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के बहुत से देशों और भारत की नैतिकताएं लगभग समान थीं। वहां पर कम्युनिस्ट व्यवस्था थी,जबकि भारत में नेहरुवियनसोशलिज्म का प्रभाव था। दुनिया के बहुत से नामवर विश्वविद्लायों में हिन्दी चेयर इंडियन काउंसिल आफ कल्चरल रिलेशंस (आईसीसीआर) के प्रयासों से स्थापित हुईं। इनमें साउथ कोरिया के बुसान और सियोल विश्वविद्लायों के अलावा पेइचिंग, त्रिनिडाड, इटली, बेल्जियम, स्पेन, तुर्की,रूस वगैरह के विश्वविद्लाय शामिल हैं। अमेरिका के भी येले,न्यूयार्क,विनकांसन वगैरह विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। छात्रों की तादाद भी बढ़ती जा रही है। इधर भी अमेरिकी या भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक ही हिन्दी पढ़ा रहे हैं।
ताकत हिन्दी की
सिंगापुर में एक प्रमुख इलाके का नाम है ‘लिटिल इंडिया’। इस घनी आवादी के इलाके में बड़ी संख्या में भारतवंशी रहते हैं। अधिकतर तमिल मूल के हैं। अब बड़ी संख्या में उत्तर भारतीय भी बस गये हैंI इन्हीं की इधर दूकानें और रेस्तरां भी हैं। यहां पर घूमते हुए आपको एक इमारत पर टंगा बोर्ड अपनी तरफ खींचता है। इस पर हिन्दी-अंग्रेजी में लिखा है ‘डीएवी हिन्दी स्कूल’। डीएवी हिन्दी स्कूल में प्रवेश करते हैं, तो वहां पर हिन्दी की कक्षाएं चल रही हैं। हिन्दी सीखने वाले सिंगापुर में कई पीढ़ी पहले बसे भारतीयों के अलावा चीनी और मलय मूल के लोग भी हैं। सिंगापुर में बसे भारतवंशियों के बच्चों को भी यही स्कूल हिन्दी सिखाता-पढ़ाता है। यहां का सारा वातावरण देखकर लगा कि आप भारत के किसी स्कूल में हों। बीते 50 वर्षों से यहां पर हिन्दी पढ़ाई जा रही है। हालांकि सिंगापुर में आर्य समाज की स्थापना को पिछले वर्ष 100पूरे हुए हैं। लिटिल इंडिया इलाके के कई शो-रूम में आपको बोर्ड हिन्दी में दिखाई देते हैं। कुछ इसी तरह का माहौल आपको मिलेगा दुबई,लंदन और बैंकॉक, पताया के मुख्य बाजारों में। आपको इन सब जगहों के मॉल्स, यूनिवर्सिटी कैंपस, एफएम रेडियो और दूसरे सार्वजनिक स्थानों पर लोग-बाग हिन्दी में बातचीत करते हुये मिलेंगे। यानी कि हिन्दी ने एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में अपना स्थान बना लिया है। इसकी दो-तीन बड़ी वजहें समझ आ रही हैं। पहली, पूरी दुनिया में करोड़ों प्रवासी भारतीय या भारतवंशी बसे हुए हैं। ये आपको संसार के हर बड़े-छोटे शहरों में मिल ही जायेंगे। ये भारतीय अपने साथ हिन्दी भी लेकर बाहर गए हैं। भले ही तमिलनाडू का कोई शख्स भारत में तमिल में ना बतियाता हो, पर देश से बाहर वो किसी अन्य भारतीय के साथ हिन्दी ही बोलता है। उससे भी मिस्र, मलेशिया, थाईलैंड, खाड़ी और अफ्रीकी देशों में एयरपोर्ट पर मिलने वाले टूरिस्ट गाइड से लेकर होटलों का स्टाफ तक भी, भले ही टूटी- फूटी हिन्दी में ही सही, संवाद स्थापित करने कि कोशिश करते हैं। दरअसल, जैसे ही हम भारतीय किसी अन्य देश के एयरपोर्ट से बाहर निकलते हैं हमें भारतीय के रूप में पहचाना जाने लगता है। आपका ‘क्या हालचाल है?’ ‘भारतीय हो?’ ‘कैसे हो?’ “नमस्ते” “प्रणाम” जैसे छोटे वाक्य और शब्द सुनने को मिलने लगते हैं। दूसरा, अब भारतीय भी दुनियाभर में पर्यटकों के तौर पर घूम रहे हैं। पैसे खर्च कर रहे हैंI इनकी आर्थिक स्थिति में तेजी से सुधार हो रही है। ये दुबई से लेकर डरबन तक हवाई से ऑस्ट्रेलिया तक जा रहे हैं, दुनिया देखने के लिए, मौज-मस्ती करने के लिए। इसलिए इन हिन्दुस्तानियों को प्रभावित करने के लिए तमाम देशों के पर्यटन उद्योग से जुड़े लोग कुछ हिन्दी सीख रहे हैं। मुझे आज से 34 वर्ष पूर्व 1984 की एक घटना याद आती हैI मैं मारीशस में भारतवंशियों के 150 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में आयोजित जलसे में भाग लेने राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में गया थाI मारीशस की राजधानी पोर्ट लुईस के बाज़ार में घूम रहा थाI उस इलाके को चाईना टाउन कहा जाता थाI सारी दूकानों पर चाईनीज मूल के लोग ही बैठे थेI एकआवाजआई“आओ, आओसिला-सिलायासूटसिर्फ 500 रूपयेमेंI फिटिंगमुफ्तI’’मैंचौंका, घूमकरदेखातोएकबुढाचाईनीजमुस्करारहाथाI मैंनेपूछाकिआपहिंदीबोलतेहो? उसनेजबाबदिया”मारीशसमेंदूकानेचलानीहै तो हिंदी तो बोलनी ही पड़ेगीI”
फिर वापस चलते हैं दावोस में हुए वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में।
यहां सवाल यह है कि जब चीन,जर्मन, फ्रांस वगैरह के राष्ट्राध्यक्ष इस मंच में अपनी-अपनी भाषाओं में भाषण दे सकते हैं,तो हमें इतने सालों तक क्यों इंतजार करना पड़ा। क्या हीन भावना सता रही थी? इसके साथ ही एक बात यह भी कि अब यह शक की गुंजाइश ही नहीं है कि हिन्दी अंतरराष्ट्रीय दर्जा ग्रहणकर चुकी है, इसलिए इसे अब संयुक्त राष्ट्र की भाषा भी बनानी ही चाहिए।
(लेखक राज्य सभा सदस्य हैं)