9 अक्टूबर 1952 को भारत में ईसाइयों की एक प्रमुख प्रतिनिधि राजकुमारी अमृत कोर (कपूरथला के राजा के भाई, All India Conference of Indian Christians के पहले अध्यक्ष हरनाम सिंह KCIE/ Knight Commander of the Most Eminent Order of the Indian Empire/की बेटी और केन्द्रीय मंत्रिमंडल में स्वास्थ्य मंत्री) ने नेहरू जी को बिहार और मध्यप्रदेश में भारतीय और विदेशी ईसाई मिशनों और मिशनरियों के प्रति भेदभाव बरतने की शिकायत की।
(राजकुमारी जी को Dame of Grace of the Order of St John of Jerusalem की उपाधि प्राप्त थी)।इस पर नेहरू जी ने मुख्यमंत्रियों को आदेश और ज्ञान देने के लिए लगभग पाक्षिक तौर पर लिखे जाने पत्रों में से एक, 17 अक्टूबर 1952 को लिखे पत्र में आदेश दिया। इसका मूल अँग्रेजी और उसका (इस पोस्ट के लेखक द्वारा किया गया) हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है।
“I have sometimes recieved complaints from Christian Missions and Missionaries, both foreign and Indian, about the differential treatment accorded to them in some states. It is said that there is some kind of harrasement also occasionally. Some instances of this kind have come to my notice. I hope that your Government will take particular care that there is no such discrimination, much less harrassment. I know that there is a hangover still of the old prejudice against Christian missions and missionaries. In the old days, many of them, except in the far South, where they were indegenous, represented the foreign power and sometimes even acted more or less as it’s agents. I know also that some of them in the north-east encouraged seperatist and disruptive movements. That phase is over. If any person, foreign or Indian, behaves in that way still, certainly we should take suitable action. But we must remember that Christianity is a religion of large numbers of people in India and that it came to the South of India nearly 2000 years ago. It is as part of the Indian scene as any other religion. Our policy of religious neutrality and protection of minorities must not be affected and sullied by discriminatory treatment or harassament. While Christian missionaries have sometimes behaved objectionably from the political point of view, they have unboubtedly done great service to India in the social fields and they continue to give that service. In the tribal areas, many of them have often devoted their lives to the tribes there. I wish that there were Indians who were willing to serve the tribal folk in this way. I know that there are some Indians now who are doing this but I would like more to do so. It must be remembered that the Christian community, by and large, is poor and is sometimes economically on the level of the backward or depressed classes.
“We permit, by our constitution, not only freedom of conscience and belief but even proselytism. Personally I do not like proselytism and it is rather opposed to the old Indian outlook which is, in this matter, one of live and let live. But I do not wish to come in the people’s ways provided they are not objectionable in any other sense. In particular, I would welcome any form of real social service by anyone, missionary or not. A question arises, however, how far we should encourage foreigners to come here for purely evengelical work. Often these foreign missionaries raise funds in foreign countries on the plea of converting the savage hethen. I do not want anyone to come here who looks upon me as a savage heathen, not that I mind being called a heathen or a pagan by anybody. But I do not want any foreigners to come who look down upon us or who speak about us in their own countries in terms of contempt. But if any foreigner wants to come here for social service, I would welcome him.”
“मुझे विदेशी और भारतीय, दोनों ईसाई मिशनों और मिशनरियों से उनके प्रति कुछ राज्यों से भेदभाव पूर्ण व्यावहार की शिकायत मिली है। यह सुनने में आया है कि यदाकदा उनके प्रति कई तरह का उत्पीड़न भी किया जाता है।मुझे उम्मीद है कि अपकी सरकार इस तरह का भेदभाव और उत्पीड़न नहीं हो इस पर विशेष ध्यान देगी। मुझे मालूम है कि अभीतक ईसाई मिशनों और मिशनरियों के विरुद्ध अतीत के पूर्वाग्रह का दुष्प्रभाव अवशेष है। अतीत में, उनमें सुदूर से कई, दक्षिण को छोड़कर, जहाँ वे मूल निवासी थे, विदेशी ताकत का प्रतिनिधित्व करते थे और कभी-कभी कमोबेश उसके एजेंट की तरह भी काम करते थे। मुझे मालूम है कि उनमें से कुछ ने उत्तर-पूर्व में अलगाववादी और विघटनकारी आंदोलनों को प्रोत्साहित किया था।वह चरण समाप्त हो गया है। यदि अभी भी कोई विदेशी या भारतीय व्यक्ति उस तरह का बर्ताव करता है तो निश्चित ही हमें उसके खिलाफ़ माकूल कदम उठाना चाहिए। किन्तु हमें
स्मरण रखना चाहिए भारत में बड़ी संख्या में ईसाईयत के अनुयाई हैं और दक्षिण भारत में 2000 वर्ष पूर्व ईसाइयों का आगमन हुआ था।
यह अन्य मतों (religions) की तरह ही भारतीय परिदृश्य का अंग है।हमारी धार्मिक निष्पक्षता और अल्पसंख्यकों के संरक्षण की नीति भेदभावपूर्ण व्यवहार और उत्पीड़न से प्रभावित या दूषित नहीं होनी चाहिए। यद्यपि कभी-कभी ईसाई मिशनरियों ने राजनैतिक दृष्टि से आपत्तिजनक तरीके का व्यावहार किया है, उन्होंने निस्संदेह सामाजिक क्षेत्र में भारत की बड़ी सेवा की है और अभी भी कर रहे हैं। अक्सर उनमें से अनेकों ने जनजाति इलाकों में वहां के लोगों के लिए अपना जीवन समर्पित किया है। मेरी लालसा है कि ऐसे भारतीय हों जो जनजातीय समुदाय की इस तरह सेवा करने के इच्छुक हों। मुझे पता है कि ऐसे कुछ भारतीय हैं जो अब ऐसा काम कर रहे हैं किन्तु मेरी इच्छा है कि अधिक लोग इस तरह का काम करें।
यह ध्यान देने की बात है कि ईसाई समुदाय अधिकांशतः गरीब है और आर्थिक रूप से कहीं कहीं पिछड़े और दलित वर्गों के समकक्ष है।
“हम अपने संविधान के द्वारा न केवल अपना religion मानने की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं बल्कि सबको अपने religion के प्रचार की भी छूट देते हैं। व्यक्तिगत रूप से में मतांतरण किए जाने को उचित नहीं मानता हूं और यह भारत के इस मामले में जियो और जीने दो के दृष्टीकोण से मेल नहीं खाता। किन्तु में दूसरे लोगों के आड़े नहीं आना चाहता यदि उनका मतांतरण का काम अन्यथा आपत्तिजनक नहीं है। विशेषकर में किसी के भी द्वारा, चाहे वह मिशनरी हो या कोई ओर, ऐसी किसी भी यथार्थ में की गई किसी भी प्रकार के समाज सेवा के काम का स्वागत करूंगा। एक प्रश्न उठता है कि हमें किस सीमा तक केवल ईसाईयत के प्रचार के लिए आने वाले विदेशियों को बढावा देना चाहिए। अक्सर ये विदेशी मिशनरी विदेशों में असभ्य बुतपरस्त लोगों के मतांतरण के निमित्त धन जुटाते हैं। में नहीं चाहता कि ऐसा कोई यहां आए जो मुझे असभ्य बुतपरस्त के रूप में देखता हो। इसका यह अर्थ भी नहीं है कि मुझे किसी के द्वारा बुतपरस्त या pagan कहे जाने पर आपत्ति है।
किंतु में किसी ऐसे विदेशी का आना पसंद नहीं करूंगा जो हमें तिरस्कार की नजर से देखता हो या जो अपने देश में हमारे बारे में अप-प्रचार करता हो। किन्तु यदि कोई विदेशी यहाँ समाज सेवा के लिए आना चाहता हो तो में उसका स्वागत करूंगा।”
ध्यान से पढ़ने पर हमें नेहरू जी का तानाशाही तरीके से अपना विचार थोपना स्पष्ट समझ आएगा। पाठक आंकलन करें कि पत्र की भाषा सुस्पष्ट है या गोलमाल?