आख़िर कड़ी मशक़्क़त के बाद कांग्रेस कर्नाटक में सत्तारूढ़ हो गई। भारी बहुमत से जीत के बावजूद मुख्यमंत्री तय करने को लेकर जो गतिरोध कांग्रेस पार्टी में चल रहा था, आखिरकार उसका पटाक्षेप आर हो ही गया। राजयोग सिद्धारमैया के हिस्से में आया डी के शिवकुमार के हिस्से में तपस्या। जहां कुर्सी काँटों का ताज़ा होती है तो तपस्या फ़ौरन फलीभूत होने के उद्देश्य से की जाती है। औपचारिकताओं के निर्वहन के बाद ताजपोशी हो गई। कांग्रेस के नेता कहते रहे हैं कि लोकतांत्रिक पार्टी होने के कारण सहमति पर मंथन जारी रहा ,लेकिन आम विमर्श में यह मुद्दा हावी रहा कि विधानसभा चुनाव में 135 सीटें जीतने के बावजूद दल का नेता चुनने में इतनी देरी क्यों हुई? सब कुछ ठीक नहीं है।
कर्नाटक में पार्टी की जीत का नेतृत्व करने वाले डीके शिवकुमार कहते रहे हैं कि ‘उन्होंने पांच साल पार्टी के लिये संघर्ष किया, जेल भी गये। वे वफादार कांग्रेसी हैं। मुझे इस लॉयल्टी की रॉयल्टी मिलनी चाहिए।’ लेकिन बेंगलुरू से लेकर दिल्ली तक लगातार चले मंथन के बाद किस्मत सिद्धारमैया की खुली। मामले में सोनिया गांधी के अलावा राहुल गांधी व कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को रास्ता निकालने में जुटना पड़ा। सोनिया गांधी के हस्तक्षेप के बाद शिवकुमार ने मुख्यमंत्री पद की दावेदारी वापस ली। निस्संदेह, दो मजबूत दावेदारों के चलते कांग्रेस पार्टी धर्मसंकट में फंसती सबने देखी।सियासी गलियारों में घटनाक्रम को लेकर तरह-तरह के कयास लगे और लग रहे हैं।
निस्संदेह, शिवकुमार ने भाजपा के खिलाफ पार्टी को मजबूत करने के लिये अथक प्रयास भी किये। उनकी अद्भुत संगठन क्षमता और वित्तीय संसाधन जुटाने की क्षमता की तारीफ पार्टी भी करती रही, वहीं दूसरी ओर सिद्धारमैया भी जनता के बीच खासे लोकप्रिय बताये जाते हैं। वर्ष 2013 से 2018 तक उन्होंने कांग्रेस सरकार को पूरे पांच साल तक कुशलता से चलाया। उनके सरकार चलाने के हुनर की तारीफ भी होती है। साथ ही एक बड़ा वोट बैंक उनके साथ रहा है। वे कर्नाटक में उस कुरूबा जाति के वे सर्वस्वीकार्य नेता हैं जिसकी उपस्थिति राज्य में आठ फीसदी के करीब है। वहीं दूसरी ओर उन्होंने दलितों, मुस्लिमों व पिछड़े वर्गों में खासी पैठ बनायी है।
दरअसल, सिद्धारमैया को मुख्यमंत्री चुने जाने के पीछे कांग्रेस नेतृत्व की दूरगामी सोच रही है। उसकी चिंता अगले साल होने वाले आम चुनावों को लेकर भी है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को राज्य में एक ही सीट हासिल हुई थी। इस विधानसभा चुनाव में सिद्धारमैया ने जिस तरह अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि के साथ अहिंदा समूह यानी अल्पसंख्यक, अन्य पिछड़ा वर्ग और दलित मतदाताओं को कांग्रेस के साथ जोड़ा, उससे पार्टी की उम्मीदों को ऊर्जा मिली है। भाजपा द्वारा आरक्षण नीति में बदलाव के चलते छिटके मुस्लिम मतदाता भी कांग्रेस की ओर लौटे। इसके बावजूद शिवकुमार में पार्टी को संकट से निकालने की अद्भुत क्षमता है। उनका अपने समुदाय वोक्कालिगा में खासा प्रभाव रहा है। जिससे भाजपा व जेडीएस का वोट बंटा है। उनकी आर्थिक संसाधन जुटाने की अद्भुत क्षमता के चलते भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की ओर से कहा जाता रहा है कि कांग्रेस कर्नाटक को पार्टी का एटीएम बना देगी। दरअसल, कांग्रेस के डीके शिवकुमार को लेकर संकोच के पीछे एक वजह यह भी थी कि वे काफी समय तक वित्तीय मामलों में केंद्रीय जांच एजेंसियों के राडार पर रहे हैं। ऐसे में पार्टी को चिंता थी कि केंद्र सरकार के इशारे पर उनके खिलाफ मुख्यमंत्री बनते ही कार्रवाई तेज हो सकती है। जिससे पार्टी की छवि को आंच आ सकती है।
वैसे आसन्न लोकसभा चुनाव के समीकरणों का लाभ उठाने के मकसद से सिद्धारमैया को कर्नाटक की बागडोर सौंपी गई है। मुख्यमंत्री पद की रेस और नेतृत्व का प्रश्न भले ही सुलझ गया हो, लेकिन पार्टी के सामने आगे की चुनौतियां अभी भी कम नहीं हैं। इस शानदार जीत को संभालना भी आसान नहीं होगा। शिवकुमारके पास उप मुख्यमंत्री बनने के साथ पार्टी संगठन का दायित्व भी है । यह महत्वपूर्ण है कि दोनों नेता अपने मनभेद-मतभेद को सार्वजनिक नहीं होने देंगे ।