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आईना नहीं, चेहरे बदलिए जनाब !

“बहिष्कार और असहयोग” हाल ही में यह दोनों पुराने शब्द भारत की राजनीति में फिर तेज़ी से उछले हैं। देश में बने नए राजनीतिक गठबंधन ‘इंडिया’ गठबंधन ने घोषणा की है कि वह मीडिया के कुछ एंकरों का बहिष्कार करेगा । उनका तर्क है कि कुछ समाचार चैनलों के एंकर यानी कार्यक्रम के प्रस्तोता सरकारी प्रचार के काम में इस तरह लगे हुए हैं कि निर्भयता और निष्पक्षता के पत्रकारीय दायित्व को छोड़ बैठे हैं। ऐसे मीडिया को उन्होंने ‘गोदी मीडिया’ नाम दिया है। 14 एंकरों के नाम लेकर कहा गया है कि वे निर्बाध रूप से भाजपा सरकार के पक्ष में हवा बनाने का काम कर रहे हैं।

वैसे यह आरोप अपने आप में नया नहीं है। अर्से से कुछ चैनलों पर ‘सरकारी’ होने की बात कही जाती रही है। इससे ऐसे चैनलों पर कुछ असर नहीं लग रहा। मीडिया की भूमिका सवालों के घेरे में यदा-कदा आती रही है। पत्रकारिता से हमेशा यह अपेक्षा रही है कि वह विवेकपूर्ण तरीके से काम करे और निष्पक्ष रहकर समाज को वास्तविकता से परिचित कराये। इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले एक अर्से से इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता ‘पक्षपातपूर्ण’ रवैया अपनाने का आरोप झेल रही है। यह स्थिति जनतांत्रिक परंपराओं के अनुरूप तो कतई नहीं है। जनतांत्रिक मूल्यों-परंपराओं का तकाज़ा है कि पत्रकारिता निर्भयतापूर्वक प्रहरी का काम करे, निष्पक्षता के साथ समस्याओं के समाधान की दिशा दिखाने की भूमिका निभाये। ‘इंडिया’ गठबंधन का कहना है कि हमारी टीवी पत्रकारिता का एक हिस्सा यह कार्य नहीं कर रहा, इसलिए इस गठबंधन के सदस्य राजनीतिक दल ऐसे एंकरों के कार्यक्रमों का बहिष्कार करेंगे। गठबंधन की इस कार्रवाई को लेकर जब कुछ आवाज़ उठने लगी तो इस ‘बहिष्कार’ को ‘असहयोग’ कहकर स्थिति संभालने की कोशिश की गयी। इस प्रकरण का हमारी राजनीति पर क्या असर होगा ? यह तो आने वाला समय बतायेगा। लेकिन इस क़वायद से पत्रकारिता के स्वास्थ्य को लेकर एक सुगबुगाहट ज़रूर शुरू हो गयी है।

कांग्रेस समेत गठबंधन के सदस्य दलों ने अपनी इस इस कार्रवाई को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को चेतावनी देने वाला बताया है तो दूसरी तरफ इस कार्रवाई को ग़लत बताने वाले इसे अप्रजातंत्रिक कह रहे हैं। मीडिया का यह ‘बहिष्कार’ मीडिया पर अनुचित दबाव डालने की कोशिश कही जा रही है। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माने जाने वाले मीडिया पर पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाने का आरोप लग रहा है।

अब प्रश्न एंकरों की भूमिका का है, तो उन्हें भी अधिकार है अपनी राजनीतिक राय और समझ रखने का, पर इस समझ उनकी निष्पक्षता पर हावी नहीं होनी चाहिए। ‘प्राइम टाइम’ में ‘डिबेट’ के कार्यक्रमों में उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने प्रश्नों और हस्तक्षेप से दर्शक-श्रोता को स्थिति को समझने में मदद देंगे।वैसे भी सवाल उठाना पत्रकारिता का धर्म है, पर यदि सवाल के पीछे की मंशा पर सवालिया निशान लगने लगे तो यह ज़रूरी हो जाता है कि टीवी पत्रकार और मीडिया-प्रबंधन अपने गिरेबान में झांके। दुर्भाग्य से ऐसा होता दिख नहीं रहा। ऐसा लग रहा है जैसे मीडिया का एक बड़ा हिस्सा किन्हीं दबावों में काम कर रहा है। प्रजातांत्रिक मूल्यों और परंपराओं की दृष्टि से यह स्थिति किसी भी तरह से अच्छी नहीं कही जा सकती। यह स्थिति बदलनी ही चाहिए। पर क्या ‘बहिष्कार’ या ‘असहयोग’ से यह स्थिति बदल जाएगी?होना तो यह चाहिए कि इस स्थिति को बदलने की मांग करने वाले राजनीतिक दल प्राप्त सुविधा का अधिकतम लाभ लेने की कोशिश करें।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कुछ एंकरों का बहिष्कार करने वालों को यह सोचना चाहिए कि कथित गोदी मीडिया वालों को विफल बनाने का एक तरीका यह भी है कि उनके प्रयासों की धार कुंठित की जाये। राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं को ठोस तैयारी के साथ ऐसे कार्यक्रमों में जाकर विरोध के प्रयासों को सफल बनाने की कोशिश करनी चाहिए। जरूरी है कि पक्षपातपूर्ण एंकरों का चेहरा बेनकाब हो, और यह काम ऐसे टीवी पत्रकारों को चुनौती देकर अधिक सफलतापूर्वक किया जा सकता है। मीडिया का बहिष्कार नहीं, मीडिया को सार्थक बनाने की कोशिश होनी चाहिए। यह सही है कि आज हमारा मीडिया अपनी उचित और समुचित भूमिका निभाने में विफल होता दिख रहा है, पर बहिष्कार से तो मीडिया के ग़लत तत्वों को और खुला मैदान ही मिलेगा।

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