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अब चुनाव तो बस, आर्थिक सरोकार का लेन-देन है

आगामी विधानसभाओँ और लोकसभा चुनाव के पहले ही यह प्रश्न उपस्थित हो गया है कि प्रधानमंत्री मोदी ‘अजेय’ हैं? भाजपा जिस मोदी नाम केवलम के सहारे चुनावी वैतरणी पार कर दिल्ली के सिंहासन पर निष्कंटक राज्य का दिवास्वप्न देख रही थी उसे यह समझ आ जाना चाहिए कि उसके नेतृत्व के धुआंधार प्रचार के बावजूद भाजपा को चुनावी पराजय दी जा सकती है। जो कर्नाटक के जनादेश से साबित हो गया है।

यह तर्क ऐसा भी नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी के नौ साल के अनवरत कार्यकाल के कारण उनकी छवि में ठहराव आया है अथवा उनके प्रति मोहभंग होने लगा है। कर्नाटक में भाजपा के पक्ष में 36 प्रतिशत से अधिक वोट आए हैं। उसका साफ अर्थ है कि न तो भाजपा के खिलाफ प्रचंड सत्ता-विरोधी लहर थी और न ही मतदाता उसके प्रति उदासीन हुआ है। बीते चुनाव 2018 में वोट प्रतिशत इससे कम ही था और कांग्रेस को 38.4 प्रतिशत वोट मिले थे, लेकिन सीटों के मामले में वह भाजपा से पिछड़ गई थी। अब यह समय खुद प्रधानमंत्री और भाजपा नेतृत्व के लिए गहरे आत्ममंथन और विमर्श का है कि “हिन्दुत्व के आधार पर ध्रुवीकरण के लिए आजमाए गए मुद्दों के बजाय किन मुद्दों पर आगामी चुनाव लडऩे हैं और अंतत: 2024 के आम चुनाव की चुनौती को कैसे जीतना है? इसी साल तेलंगाना सहित कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं, जहां भाजपा हिन्दुत्व की ही जमीन पुख्ता कर रही है। वैसे भाजपा को सिर्फ हिन्दुत्व की जगह उन मुद्दों पर भी ध्यान देना चाहिए, जो आम आदमी की जेब से सीधा जुड़े हैं।

कर्नाटक में 84 प्रतिशत से ज्यादा हिन्दू हैं, लेकिन वे जातियों, वर्गों और समुदायों में बंटे थे । कर्नाटक चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने ‘बजरंग बली की जय’ बोली और जनता से उद्घोष भी कराया। उन्होंने यहां तक कहा कि पहले ‘बजरंग बली की जय’ बोलना और फिर वोट का बटन दबाना। रोड शो के दौरान भी एक व्यक्ति को भगवान हनुमान का प्रतिरूप बनाकर पेश किया गया। सडक़ से लेकर मंदिरों तक ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ किया गया। फिर भी इतने वोट नहीं मिल सके कि भाजपा जीत जाती। इसके अलावा राम मंदिर, टीपू सुल्तान, हिजाब, हलाला, केरल स्टोरी, लव जेहाद और मुस्लिम आरक्षण आदि मुद्दे भी गूंजते रहे। भाजपा की रणनीति थी कि ऐसे मुद्दों पर हिन्दू तल्ख प्रतिक्रिया करेंगे और भाजपा के पक्ष में लबालब वोट करेंगे। यह रणनीति बिल्कुल नाकाम रही।

मतदाताओं ने इसे सिरे से नकार दिया। दरअसल हिन्दुओं ने ही हिन्दुत्व की सोच और राजनीति को पराजित किया। दक्षिण में भाजपा का प्रवेश-द्वार कर्नाटक हिन्दुत्व की प्रयोगशाला था, लेकिन हिन्दू वोट बैंक ने विभाजित जनादेश दिया, जबकि 13 प्रतिशत मुसलमानों और 2 प्रतिशत ईसाइयों में से ज्यादातर ने लगभग एकमुश्त वोट कांग्रेस के पक्ष में किया। लिंगायतों के 46 विधायक जीते हैं, जिनमें से 37 विधायक कांग्रेस के हैं। भाजपा का परंपरागत समर्थक और हिन्दू वोट बैंक इस तरह शिफ्ट हुआ है। आदिवासियों के लिए 15 सीटें आरक्षित हैं। सभी सीटें कांग्रेस की झोली में गईं। आदिवासी भी आस्था के आधार पर ‘हिन्दू’ ही हैं। ग्रामीण इलाकों की कुल 151 सीटों में से 97 सीटों पर कांग्रेस उम्मीदवार विजयी हुए हैं। इनमें भी अधिकांश ‘हिन्दू’ हैं।

दरअसल यह आर्थिक सरोकार लेने-देने का दौर है। बेशक लाभार्थी कहें या जन-कल्याण का नाम दे लें अथवा कांग्रेस की ‘गारंटियां’ मान लें या प्रधानमंत्री के शब्दों में ये ‘मुफ्त की रेवडिय़ां’ हैं, लेकिन चुनाव इन्हीं मुद्दों पर तय हो रहे हैं। कर्नाटक विधानसभा चुनाव भी एक उदाहरण है। हालांकि कर्नाटक अर्थव्यवस्था के लिहाज से देश का 5वां राज्य है। सम्पन्न है, कारोबार है, आईटी की राजधानी है। फिर भी कांग्रेस ने जो ‘गारंटियां’ घोषित की हैं, उन्हें पूरा करने पर करीब 36,000 करोड़ रुपए खर्च होंगे। अर्थशास्त्रियों के ऐसे अनुमान हैं। कांग्रेस का कहना है कि साथ-साथ वह आर्थिक बढ़ोतरी भी सुनिश्चित करेगी। कर्नाटक में प्रति व्यक्ति आय 2021-22 में 1.64 लाख रुपए थी। दरअसल कर्नाटक देश के प्रमुख ‘आर्थिक इंजनों’ में एक है। कोरोना के बाद सेवाओं के निर्यात में 25 प्रतिशत से ज्यादा का उछाल आया है। यह समृद्धि मंद नहीं होनी चाहिए।

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