कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यथित करने वाली यह स्थिति बनी है कि जिन जनसरोकारों से जुड़े मुद्दों को सरकार को प्राथमिकता के आधार पर संवदेनशील ढंग से सुलझाना चाहिए, उन पर कोर्ट को पहल करनी पड़ रही है। ऐसे तमाम मुद्दों के साथ अब ऑनलाइन दवा बिक्री का मुद्दा भी जुड़ गया है। दिल्ली हाईकोर्ट ने बुधवार को केंद्र सरकार को सख्त लहजे में कहा कि सरकार के लिये यह आखिरी मौका है। वह आठ हफ्ते के बीच ऑनलाइन दवा बिक्री नीति बनाए।
इस मुद्दे को लंबे समय से लटकाने पर क्षुब्ध कोर्ट ने चेताया कि यदि सरकार ने नीति समय पर नहीं बनायी तो इस विभाग को देख रहे संयुक्त सचिव को आगामी चार मार्च को अदालत में जवाब देने आना पड़ेगा। दिल्ली हाईकोर्ट में कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश मनमोहन और न्यायमूर्ति मिनी पुष्करणा की पीठ ने नाराजगी जतायी कि इस नीति को बनाने के लिये सरकार के पास पर्याप्त समय था, लेकिन सरकार ने मुद्दे की गंभीरता को नहीं समझा। पांच साल का वक्त किसी नीति के निर्धारण के लिये पर्याप्त होता है।
सरकार के रवैये से खिन्न अदालत ने केंद्र को सख्त हिदायत दी कि वह आखिरी मौके के रूप में सिर्फ आठ सप्ताह में नीति को अंतिम रूप दे। उल्लेखनीय है कि इससे पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने उन याचिकाओं के बाबत जवाब मांगा था, जो ऑनलाइन बेची जा रही दवाओं की बिक्री पर रोक लगाने के बाबत दायर की गई थीं। याचिकाकर्ताओं का आरोप था कि ऑनलाइन दवाओं की बिक्री कानूनों का गंभीर उल्लंघन है। साथ ही यह भी कि ये दवाइयां बिना किसी उचित नियमन के ऑनलाइन बेची जा रही हैं। लेकिन लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की अनदेखी की जा रही है।
याचिकाकर्ताओं में शामिल साउथ केमिस्ट एवं डिस्ट्रीब्यूटर्स एसोसिएशन की मांग थी कि हाईकोर्ट के आदेश के बाद भी दवाइयों की बिक्री पर रोक न लगाने पर ई-फार्मेसी कंपनियों के खिलाफ अवमानना के कानून के तहत कार्रवाई की जानी चाहिए। दरअसल, इससे पहले अगस्त में कोर्ट द्वारा पूछे जाने पर केंद्र सरकार ने दलील दी थी कि इस विषय पर नियमों के मसौदे पर फिलहाल विचार-विमर्श जारी है।
उल्लेखनीय है कि तब मुख्य न्यायाधीश सतीश चंद्र शर्मा व न्यायमूर्ति संजीव नरूला की पीठ ने अंतरिम निर्देश देते हुए कहा था कि बिना वैध लाइसेंस ऑनलाइन दवाएं बेचने पर रोक के बाबत कोर्ट के 12 दिसंबर, 2018 के आदेश का उल्लंघन करने वालों पर केंद्र व राज्य सरकारें अगली सुनवाई से पहले आवश्यक कानूनी कार्रवाई करें। तब भी कोर्ट ने वास्तविक स्थिति पर रिपोर्ट पेश करने के लिये केंद्र सरकार से कहा था। दरअसल, याचिका दायर करने वालों ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के नियमों के मसौदे को चुनौती दी थी कि जिनके जरिये औषधि एवं सौंदर्य प्रसाधन नियमों में संशोधन किये जा रहे हैं। तब ऑनलाइन दवाओं की बिक्री से मरीजों की सेहत के लिये उत्पन्न खतरे की अनदेखी का भी आरोप लगा था। वहीं दूसरी ओर विगत में अदालत की कार्यवाही में सुनवाई के दौरान ऑनलाइन विक्रेताओं ने दलील दी थी कि उन्हें दवाएं बेचने के लिये लाइसेंस की जरूरत नहीं है। वे तो केवल खाने की डिलीवरी करने वाले एप की तरह दवाएं डिलीवरी कर रहे हैं। जिस तरह उन एप्स को चलाने के लिये रेस्तरां के लिये लाइसेंस की जरूरत नहीं होती, वैसे ही ई-फार्मेसी को भी ग्राहकों तक दवाइयां पहुंचाने के लिये लाइसेंस लेने की जरूरत नहीं होनी चाहिए।
ऐसे किसी भी तर्क से सहमत होना कठिन है क्योंकि दवा की बिक्री से किसी के जीवन-मरण का प्रश्न जुड़ा है। जिसकी जवाबदेही तय हो। निश्चित रूप से सरकार की नजर ऐसी वेबसाइटों पर होनी चाहिए जो ऑनलाइन दवा बिक्री के धंधे से जुड़ी हैं। दरअसल, ऑनलाइन दवा बेचने वाली कंपनियां ग्राहकों को भारी छूट भी देती हैं, जिसके चलते दुकानदार उनके खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं। उनकी मांग है कि ऐसी वेबसाइटों को इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट 2000 के नियमों का पालन करने के लिये बाध्य करें। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2016 में ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया ने दवाइयों की ऑनलाइन बिक्री पर अस्थाई प्रतिबंध लगाया था।