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समान नागरिक संहिता का विरोध अनुचित


अवधेश कुमार
विधि आयोग द्वारा समान नागरिक संहिता या कॉमन सिविल कोड पर फिर से आम लोगों और धार्मिक संस्थाओं आदि का सुझाव मांगना स्पष्ट करता है कि अब इसके साकार होने का समय आ गया है। पिछले वर्ष ही गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि अब कॉमन सिविल कोड की बारी है। उसी समय लग गया था कि केंद्र सरकार इस दिशा में आगे बढ़ चुकी है। उत्तराखंड सरकार ने इसके लिए एक समिति का गठन किया था। उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या ने भी समान नागरिक संहिता की बात की।फिर असम सरकार ने भी इसकी घोषणा की। कुल मिलाकर केंद्र और प्रदेश की भाजपा सरकारों की ओर से धीरे-धीरे यह संदेश दिया जाता रहा है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने भारत के लिए जिस समान नागरिक कानून का सपना देखा और संविधान में उसे शामिल किया उसको साकार करने का कार्य नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार भीऔर प्रदेश की भाजपा सरकार है करने जा रही है। मोदी सरकार ने इस दिशा में काफी पहले ही पहल कर दी थी। विधि आयोग ने 7 अक्टूबर, 2016 को समान नागरिक संहिता पर राय मांगी थी। इसके बाद 19 मार्च, 2018 और फिर 27 मार्च, 2018 को भी सलाह मांगी गई थी। ध्यान रखिए 31 अगस्त, 2018 को विधि आयोग ने फैमिली लौ यानी परिवार कानून के सुधार की अनुशंसा भी की थी प्रमिला।
जो सूचना है विधि आयोग के पास करीब 70 हजार सुझाव आए थे। ऐसा लगता है केंद्र सरकार ने संसद में विधेयक लाने के पहले एक बार फिर जनता और धार्मिक संगठनों के साथ जाने का मन बनाया है। चूंकि पिछले कुछ समय में इस पर काफी बहस हुई एवं न्यायालयों की भी टिप्पणियां आई है, इस कारण विधि आयोग ने फिर से कंसल्टेशन पेपर यानी सलाह प्रपत्र जारी किया है। उसने कहा है कि उस कंसल्टेशन पेपर को जारी हुए काफी समय बीत चुका है इसलिए हम नया जारी कर रहे हैं। निस्संदेह , इसके समर्थकों एवं विरोधियों दोनों का दायित्व बनता है कि अपना मत विधि आयोग के समक्ष रख हैं। लेकिन समान नागरिक कानून को लेकर जिस तरह का माहौल देश में बनाया जाता रहा है उसमें यह उम्मीद करना व्यर्थ होगा एक बड़ा समूह सकारात्मक सुझाव प्रस्तुत करेगा। इन्हें यह समझना होगा कि नरेंद्र मोदी सरकार का रिकार्ड अपनी विचारधारा पर की गई घोषणा से पीछे हटने का नहीं रहा है। इसलिए आपका रवैया चाहे जो हो यह मान लीजिए कि अब देश में सभी के लिए एक समान नागरिक कानून बनेगा और व्यवहार में आएगा।
विश्व में एकमात्र भारत देश है जहां समान नागरिक कानून को भी सांप्रदायिक, फासीवाद, किसी एक समुदाय के विरुद्ध, हिंदू राष्ट्र का प्रतीक और न जाने क्या-क्या कहा जाता है। विश्व में ऐसा कोई देश नहीं जहां समान नागरिक कानून नहीं हो। हमारे संविधान निर्माताओं ने यूं ही भारत में समान नागरिक संहिता की वकालत नहीं की। संविधान सभा में स्वयं डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने इसकी जबरदस्त पैरवी की तथा उनके साथ कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, ए कृष्णस्वामी अय्यर जैसे नेताओं ने भी इसकी वकालत की। इसी कारण संविधान के चौथे भाग में लिखित नीति निर्देशक तत्व में इसे स्थान मिला। इसे एक त्रासदी कहा जाएगा कि स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी संविधान निर्माताओं का यह महान सपना साकार नहीं हो सका। क्यों? इसका उत्तर देने के पहले यह समझें कि आखिर समान नागरिक कानून से होगा क्या? इसके माध्यम से विवाह, तलाक, भरण-पोषण भत्ता, विरासत और गोद लेने जैसे नियम कानून एक समान होंगे। इसके बाद यह मायने नहीं रखेगा कि आप किस मजहब या किस पंथ से हैं। भारत जैसे विविधताओं वाले देश में समान नागरिक संहिता न होने के कारण न केवल सामाजिक असमानता की स्थिति है बल्कि यह सेकुलरिज्म यानी पंथनिरपेक्षता के मूल आधार के लिए भी चुनौतियां खड़ी करती हैं। कहा जाए तो समतामूलक समाज के निर्माण के लक्ष्य के साथ राष्ट्रीय एकता में भी बाधक बना हुआ है। तर्क यह दिया जाता है कि समान नागरिक संहिता धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप होगा। ये भूल जाते हैं कि इससे कानूनी विसंगतियां पैदा होती है और फिर धार्मिक सौहार्द्र पर ही आघात पहुंचता है। अगर आप अलग-अलग समुदायों मुसलमानों ,ईसाइयों आदि के पर्सनल कानूनों को देखें तो इसमें लैंगिक आसमानता साफ दिखता है। यानी धार्मिक समुदायों के पर्सनल कानून व्यवहार में महिला विरोधी हैं। इसलिए कोई यह न माने कि किसी राजनीतिक विचारधारा का थोथा आदर्श है। वास्तव में यह सभी समुदायों के बीच व्याप्त विषमता को दूर कर सामाजिक एकता को सुदृढ़ करने तथा लैंगिक समानता सुनिश्चित करने का आधार बनेगा । इसी से राष्ट्रीय एकता सशक्त होगी। कानून के समक्ष समानता के साथ निष्पक्षता और स्पष्टता को सुनिश्चित करने के लिए भी समान नागरिक संहिता आवश्यक है।
यहीं पर क्यों प्रश्न का उत्तर देना आवश्यक हो जाता है। आखिर आज तक यह लागू क्यों नहीं हुआ? हमारे देश में सेक्यूलरवाद की गलत अवधारणा यह बनी कि यहां मुसलमानों, ईसाइयों या ऐसे दूसरे समुदायों के सामाजिक -सांस्कृतिक -मजहबी मामलों में हस्तक्षेप न किया जाए। धर्म और संस्कृति तो समझ में आती है पर उसके नाम पर सामाजिक व्यवस्था और कानूनी ढांचा अलग किया जाना सेक्यूलरवाद का पर्याय नहीं हो सकता। 1985 में शाहबानो मामले ने इस दिशा में सबसे बड़ा आघात पहुंचाया। जबलपुर के न्यायालय ने एक बूढ़ी महिला शाहबानो को उसके तलाक देने वाले पति से गुजारे भत्ते का आदेश दिया। उसका वकील पति उच्च न्यायालय से उच्चतम न्यायालय तक आया और उसे पराजय मिली। मात्र 179 रुपया 20 पैसा मासिक गुजारा भत्ता का आदेश मुसलमानों के सड़क पर उतरने का कारण बन गया। इसका इतना विरोध हुआ कि अंततः तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने संसद में मुस्लिम महिला कानून पारित कर न्यायालय के निर्णय को पलट दिया। तब से सत्ता के अंदर यह धारणा बनी कि मुस्लिम मामलों में हस्तक्षेप करना राजनीतिक रूप से जोखिम भरा होगा। इस तरह कहा जा सकता है कि समान नागरिक कानून बनाने से बनाने से बचने या विरोध करने का मूल कारण राजनीति है। भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां अपने एजेंडे में समान नागरिक संहिता को शामिल करती रही हैं पर वह इस पर कुछ बोलने को तैयार नहीं क्योंकि इसे भाजपा की सरकार लागू करने की बात करती है। समाजवादियों में डॉ राम मनोहर लोहिया से लेकर अन्य कई नेताओं ने इसके मांग की थी। आज समाजवाद के नाम पर चलने वाली पार्टियां ही इसके विरोध में खड़ी है। साफ है कि इसके पीछे केवल मुस्लिम और जहां ईसाई हैं वहां उनके वोट बैंक की राजनीति है।
भारत में गोवा ऐसा राज्य है जिसने इस दिशा में ठोस कदम बढ़ाया है। गोवा उत्तराधिकार, स्पेशल नोटरीज एंड इन्वेंट्री प्रोसीडिंग्स कानून, 2012 बनाने और लागू करने में अलग-अलग समुदायों की सांस्कृतिक विशेषता को विशेषाधिकार के रूप में सुरक्षित रखते हुए सफलता प्राप्त किया गया है। यह हिंदू संहिता में सहभागिता की अवधारणा को विस्तारित करते हुए दूसरे समुदायों के विवाह पूर्व समझौतों के साथ संपत्तियों के मिल्कियत में साझापन को मान्यता देता है। गोवा का अनुभव अभी तक अच्छा है तो यह देश के लिए भी समस्यामूलक नहीं होगा।
अगर यह भारत के संविधान का लक्ष्य नहीं होता और आवश्यकता महसूस नहीं होती तो उच्चतम न्यायालय बार-बार इस दिशा में आगे बढ़ने की बात नहीं की होती। अनेक फैसलों में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि देश को समान संहिता की ओर बढ़ना चाहिए। इसमें सन 2020 का जोस पाउलो कुटिन्हो बनाम मारिया लुइजो वेलेंटिना परेरा और अन्य मामले में न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की टिप्पणियों का बार-बार उल्लेख किया जाता है। उन्होंने कहा था कि 1956 में हिंदू कानूनों के संहिताबद्ध होने के बावजूद सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बनाने की दिशा में कोई प्रयास नहीं हुए, जैसा पूर्व में मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो और सरला मुद्गल और अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य मामलों में सुझाया भी गया था। यह किसी के गले उतर सकता है की आखिर जब देश की 80 प्रतिशत आबादी संहिताबद्ध निजी कानूनों के दायरे में आ गई है तो अन्य समुदायों को ऐसे कानूनों की परिधि से परे रखने का क्या औचित्य है? इसे धार्मिक -सामाजिक -सांस्कृतिक -विविधता का अपमान बताने वाले न केवल उच्चतम न्यायालय बल्कि हमारे महान नेताओं के सपने पर प्रश्न खड़ा करते हैं। यह सामाजिक समानता एवं सबको समान न्याय सुनिश्चित करने का वाहक होगा। इस तरह नरेंद्र मोदी सरकार के इस कदम का स्वागत होना चाहिए। संसद में पारित कर सरकार भारतीय संविधान के महत्वपूर्ण लक्ष्य और महान नेताओं के सपने को साकार करे।

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