ललित गर्ग
जब-जब विपक्षी दलों की एकता की बात जितनी तीव्रता से हुई, तब-तब वह अधिक बिखरी। विपक्षी दलों की पटना की बैठक से लेकर बैंगलोर बैठक के बीच काफी कुछ बदल चुका है। विपक्षी एकता से पहले ही बिखराव एवं टूटन के स्वर ज्यादा उभरे हैं। भले ही पटना की बैठक में शामिल 16-17 दलों की संख्या बेंगलुरु में 26 हो रही हैं। लेकिन अभी हाल तक जो नेता विपक्षी एकता की पैरवी कर रहे थे या फिर भाजपा से दूरी बनाए थे, उनमें से कुछ पाला बदल चुके हैं। इनमें प्रमुख हैं जीतनराम मांझी और ओमप्रकाश राजभर। महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी राकांपा में विभाजन हो चुका है और विपक्षी एकता के सबसे बड़े पैरोकार नीतीश कुमार अपने दल में टूट की आशंका से ग्रस्त दिखने लगे हैं। आने वाले दिनों में ऐसे नेताओं की संख्या बढ़ सकती है, क्योंकि भाजपा भी अपने नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को विस्तार देने के लिए प्रयासरत है। मूल प्रश्न है कि विपक्षी एकता मोदी हटाओ के अलावा क्या कोई सकारात्मक एजेंडा लेकर सामने आ रही है, ऐसा लगता नहीं। समूचे राष्ट्र की जनता विपक्षी एकता की राजनीति को गंभीरता से देख रही है, बिना बुनियादी मुद्दों की चर्चा के ऐसी विपक्षी एकता कोई निर्णायक एवं प्रभावी होगी, इसमें संदेह है।
कांग्रेस एवं आम आदमी पार्टी एकदूसरे के विरोध के बावजूद अब यदि एक मंच पर आने को सहमत हुए है तो यह स्पष्टतः सत्ता एवं स्वार्थ की राजनीति है। प्रश्न यह भी है कि क्या अब आम आदमी पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव वाले राज्यों में कांग्रेस पर अपने तीखे राजनीतिक हमले करने बंद कर देगी? इसी तरह एक प्रश्न यह भी है कि क्या बंगाल में कांग्रेस के नेता ममता बनर्जी के प्रति नरमी बरतने को तैयार होंगे? कांग्रेस को यह पहेली भी सुलझानी होगी कि क्या वह बंगाल में वाम दलों के साथ रहने और केरल में उनके विरोध में खड़े होने की अपनी विचित्र नीति पर चलती रहेगी? वास्तव में ये वे प्रश्न हैं, जो विपक्ष में व्याप्त अंतर्विरोध को ही दर्शाते हैं। हालांकि ये जो नए दल बेंगलुरु में विपक्षी एकता को बल देने के लिए पहुंच रहे हैं, वे मुख्यतः दक्षिण भारत में सीमित असर रखने वाले ही हैं, लेकिन विपक्ष के पास यह दावा करने का अवसर तो होगा ही कि अब उसके साथ कहीं अधिक दल हैं। इसके बाद भी यह कहना कठिन है कि अगले आम चुनाव तक वे सभी एकजुट रह पाएंगे, क्योंकि उनमें से अधिकांश दलों में इसे लेकर मंथन जारी है कि किस पाले में खड़े होने से लाभ होगा।
भारतीय राजनीति की नाटकीय परंपरा में विपक्ष की भूमिका अद्भूत एवं महत्वपूर्ण होते हुए लगातार निस्तेज हुई है, इससे लोकतंत्र भी कमजोर हुआ है। लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानी गयी है, वह राष्ट्रीय मंच पर छाया रहता है। लेकिन हमारा विपक्ष जरूरी जिम्मेदारियों से मुंह फेरते हुए मात्र राजसत्ता का भोग करने के लिये लालायित रहता है। जबकि विपक्ष को तीव्र आलोचना, आन्दोलन एवं विरोध के देश-निर्माण में भागीदारी निभानी चाहिए। विपक्ष निष्काम सेवा में विश्वास रखने वाला होना चाहिए। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है- हमारा अधिकार सिर्फ अपने कर्म पर है, उसके परिणाम पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। विपक्ष दल कहां कर्म कर रहा है? राजनीतिक दलों ने 2024 के आम चुनावों के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को हटाने की ठान ली है। विपक्ष में होड़ मची है। क्योंकि एक दशक से विपक्षी नेताओं ने सत्ता-सुख नहीं भोगा है।
इक्कीसवीं शताब्दी की भारतीय राजनीति आमूल-चूल बदल चुकी है। अब कोई भी सरकार जनाकांक्षाओं की अनदेखी नहीं कर सकती, फिर सत्ता की लालसा रखने वाला विपक्ष जनाकांक्षाओं की बजाय केवल सत्ता प्राप्ति की आकांक्षा से कैसे सफलता प्राप्त कर सकता है। इस दौर में तटस्थता विपक्ष की सबसे बड़ी योग्यता होनी अपेक्षित है। साथ ही वह भी कि कितने लोगों को साथ लेकर चल सकता है। माई-बाप संस्कृति में रची-बसी देश की जनता नहीं जानती कि राष्ट्र प्रमुख होने का मतलब राष्ट्रीय मंच पर छाए रहना नहीं बल्कि देश के हित के लिए काम करना है। भगवद्गीता में कहा गया है कि सच्चा नेता वह है जो किसी मोह में पड़े बिना अपना काम करता रहे। उसके लिए कुछ भी व्यक्तिगत नहीं होता। लेकिन आज का विपक्ष तो सत्ता-मोह में उलझा है।
विपक्षी एकता तभी सार्थक एवं सफल होगी जब उनमें समझ और समझौता की मानसिकता हो। समझौते में शर्तें व दवाब होते हैं जबकि समझ नैसर्गिक होती है। इन्हीं दो स्थितियों में विपक्षी एकता संभव है। बैंगलोर में 26 परस्पर असमान विचारों वाले ग्रुपों के साथ न्यूनतम कार्यक्रमों के समझौते के आधार पर विपक्षी दल एकजूट होने के लिये जुट रहे हैं। हर स्तर पर एक समझौता होता है, नीतिगत और व्यवस्थागत। राजनीति तो चलती ही समझौतों के आधार पर है। जहां भी समझौता नहीं, वहां अशांति और असंतुलन/बिखराव हो जाते हैं। लेकिन जो एक सोचता है वैसा ही दूसरा सोचे, ऐसा राजनीति में कहां संभव है। समझौते के आधार पर कई बार अधिकारों को लेकर, विचारों को लेकर, नीति को लेकर फर्क आ जाता है, टकराव की स्थिति आ जाती है। समझौता मौलिक नहीं होता, कई तानों-बानों से बनता है। इसमें मिश्रण भी है। माप-तौल भी है। ऊँचाई-नीचाई भी है और प्रायः मजबूरी व दवाब भी सतह पर ही दिखाई देते रहते हैं। लगभग यही स्थिति विपक्षी एकता में बार-बार देखने को मिल रही है। जरूरत है समझौते से ज्यादा समझ को विकसित किया जाये। क्योंकि समझ प्राकृतिक है। समझौता मनुष्य निर्मित है। समझ निर्बाध जनपथ है। समझौता कंटीला मार्ग है, जहां प्रतिक्षण सजग रहना होता है। समझ स्वयं पैदा होती है। समझौता पैदा किया जाता है। पर जहां-कहीं समझ का वरदान प्राप्त नहीं है वहां समझौता ही एकमात्र विकल्प है। प्रजातंत्र में प्रदत्त अधिकारों की परिधि ने समझ की नैसर्गिकता को धुंधला दिया है। अतः समझौता ही हर जगह दिखाई देता है।
स्पष्ट है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी की भाजपा को चुनौती देने के लिए एकता की कवायद में जुटे विपक्ष के समक्ष अब बिखराव से बचना बड़ी चुनौती बन गई है। सत्ता केंद्रित राजनीति में नेताओं की निष्ठा और विश्वसनीयता संभवतः सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुकी है। इसलिए अब दलबदल चौंकाता नहीं, बार-बार दलबदल देखने को मिल रहे हैं। व्यक्ति एवं परिवार केन्द्रित राजनीति ने लोकतांत्रिक मूल्यों को धुंधलाया है। सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाते हुए 1999 में शरद पवार द्वारा गठित राकांपा भी व्यक्ति और परिवार केंद्रित दल रही है। शरद पवार ने अपनी बेटी सुप्रिया सुले को राजनीतिक उत्तराधिकार के लिए पिछले कुछ साल से आगे बढ़ाना शुरू किया, पर उससे पहले भतीजे अजीत पवार को भी परिवारवाद के सोच से ही आगे किया। उन्हीं अजीत पवार ने सुप्रिया को आगे बढ़ता देख पार्टी में ही दोफाड़ कर भाजपा से हाथ मिला लिया और उप मुख्यमंत्री बन गए। ऐसे ही कभी बाल ठाकरे द्वारा बेटे उद्धव को राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाए जाने पर भतीजे राज ठाकरे ने शिवसेना से बगावत की थी। इस तरह की स्थितियां विपक्षी एकता की बड़ी बाधा है।
हर कोई प्रधानमंत्री बनना चाहता है या अपने दल को बढ़ते हुए देखना चाहता है, यह मानसिकता भी विपक्षी एकता के बढ़ते रथ को रोक सकती है। महाराष्ट्र में हुए बिखराव से और बिहार में महागठबंधन में अलगाव से विपक्षी एकता की कवायद का आत्मविश्वास निश्चय ही गड़बड़ाएगा। भाजपा ने सवाल पूछना भी शुरू कर दिया है कि जो अपना दल नहीं संभाल पा रहे, वे विपक्षी एकता और देश क्या संभालेंगे? जब सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों ही अपने गठबंधनों को बढ़ाने एवं मजबूत करने में जुट गए हैं, तब 2024 की चुनावी जंग का नतीजा उस समय की राजनीतिक हवाओं एवं ताकत पर निर्भर करेगा कि उस समय किसके पक्ष में सकारात्मक हवाएं चल रही है। निश्चित ही अभी के राजनीतिक परिदृश्यों में भाजपा एवं मोदी के मजबूत पक्ष को देखते हुए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में अनेक नेता एवं दल जुड़ेंगे और इसकी शुरुआत हो चुकी है।