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प्रकृति एवं मानव का शांतिपूर्ण सहअस्तित्व ख़तरे में?

राकेश दुबे

विश्व में युद्ध के कारण विभाजित होती वैश्विक शक्तियाँ और पर्यावरणीय बदलावों में तेजी-परिणाम ठीक नहीं हैं। अभूतपूर्व ग्रीष्म लहरें, बर्फानी तूफान, बाढ़,सूखा, ग्लेशियर पिघलना और ऊंची उठती समुद्र जल-सतह। हमने स्वयं ये संकट पैदा किए हैं। फिर भी राजनेता विज्ञान और तर्क की आवाज दबा रहे हैं। हमारे ग्रह के वजूद को खतरा मुंह बाए खड़ा है। लगता है आज के इंसान के एजेंडे में मनुष्य-मनुष्य के बीच और प्रकृति एवं मानव के मध्य शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए कोई जगह नहीं है।

थोड़ा इतिहास – जब ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज ढलने लगा और अमेरिकी-सोवियत साम्राज्य का उदय हुआ। एक ‘फौलादी दीवार’ ने यूरोप को दो हिस्सों में बांट डाला, पश्चिमी गठबंधन वाला पश्चिमी यूरोप और सोवियत संघ से जुड़ा पूर्वी यूरोप। साथ ही, दक्षिण अमेरिका मानो संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का पिछला आंगन बन गया तो एशिया का मध्य हिस्सा सोवियत प्रभामंडल तले आ गया। मध्य एशिया और पश्चिम एशिया -अधिकांशतः सल्तनतें- जिन पर अपना प्रभाव बनाने को दोनों साम्राज्य यत्नरत रहे। जहां अमेरिका ने वामपंथ से भिड़ने और हराने का बीड़ा उठाया वहीं सोवियत संघ ने वामपंथ को फैलाने में ज़ोर लगाया, जिसके परिणाम में बना मशहूर ‘शीत युद्ध’।

अपने-अपने ध्येयों की पूर्ति के लिए दोनों का टकराव कई राष्ट्रों की धराओं पर हुआ लेकिन इन्होंने लड़ाई कभी भी अपने आंगन में नहीं आने दी। अमेरिका ने वियतनाम, लाओस, कम्बोडिया, क्यूबा और कांगो के अलावा औपनिवेशिक शासकों से मुक्ति पाने में लगे अनेकानेक अफ्रीकी एवं एशियाई देशों में वामपंथियों की पकड़ कमज़ोर करने को अभियान चलाए। लग सकता है विचारधारा की भिन्नता युद्ध का बना-बनाया सांचा है, लेकिन वास्तविक आधार वही है, पुरातन काल से चला आ रहा ताकत और आर्थिक लाभ पाने का लोभ।

दो विश्व युद्धों की बात करें तो, प्रथम विश्व युद्ध तब भड़का जब तत्कालीन केंद्रीय ताकतें (जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, बुल्गारिया और ओटोमन साम्राज्य) ने मिलकर, दुनिया के अधिकांश देशों को अपनी बस्ती में तब्दील करने वाले दो बड़े खिलाड़ियों ब्रिटेन और फ्रांस को चुनौती देनी शुरू की। अन्य देशों को अपना उपनिवेश बनाने को दौड़ में देर से शामिल हुए जर्मनी की आकांक्षा अपने लिए बड़ा हिस्सा पाने की थी, यही चाहत इस गठबंधन के अन्य सदस्यों की थी। कहानी वही पुरानी है– मनुष्य प्रजाति लालच और डर से चालित है, अतएव हमारा इतिहास वस्तुतः युद्धों का इतिहास है। युद्ध, जिसका फौरी कारण चाहे धर्म, जाति, विचारधारा, बुरा करने की भावना या पक्षपात बताया जाए लेकिन सतह के नीचे वही पुरातन खेल है यानी और अधिक संसाधन, भूभाग, व्यापार और ताकत अपने हाथ करना। द्वितीय विश्वयुद्ध लगभग पिछले का विस्तार था, जिसके पीछे त्वरित कारक भले ही जर्मनी का रोष और अपमान बोध बताया जाए लेकिन यह ‘लेबेंसरॉम’ अर्थात नाज़ी राष्ट्र के लिए और बड़ा भूभाग पाने की गहरी चाहत थी। इतिहास युद्धों, प्रभुत्व बनाने और साजिशों का इतिहास खुद को दोहराए जा रहा है। ताकत के लिए खेल कभी नहीं थमता और लड़ाई के लिए बहाना यदि पहले से न हो तो गढ़ लिया जाता है। बहानों के लबादे में छिपी होती है व्यापार और वाणिज्य पर नियंत्रण की लालसा। परमाणु ताकत, कंप्यूटर और आईटी के इस युग में हम तकनीकी रूप से पहले से कहीं अधिक विकसित हैं, एआई और रोबोटिक्स का मिश्रण भी कर डाला है… फिर भी क्या हम उन घुमंतुओं से अलग हैं, जो गुजरे वक्त में कभी इस धरा पर विचरा करते थे? हमारा लालच, क्रोध, नफरत या दर्प आज भी उतना ही हावी है जितना कि मंगोलों के झुंड वाले समय में, जितना सिकंदर या रोमन साम्राज्य के वक्त… हां, हम आज उनसे कहीं अधिक विध्वंस मचा सकते हैं।

यूरोप ने एक बार फिर से अमेरिका को अपना अगुआ मान लिया और अब इनका उद्देश्य है रूसी अर्थव्यवस्था और इसकी सैन्य शक्ति को घोंटकर निस्तेज करना। हथियारों के साथ-साथ यूक्रेन पर खरबों-खरब डॉलर की बारिश होने लगी। अमेरिका के सैन्य उद्योग परिसर एक बार फिर सक्रिय हो गए। इसी बीच, रूसी अर्थव्यवस्था को पश्चिमी प्रतिबंधों से करारा झटका लगा और अब तेल निर्यात आर्थिकी चलाये रखने का मुख्य जरिया है। चीन, ईरान, उत्तर कोरिया आदि ने रूस की मदद करने की कोशिश की, फिर भी रूस कमज़ोर पड़ा है और पश्चिम के सामने चीन बतौर मुख्य चुनौती बनकर उभरा है। इस दौरान, युद्ध की कीमत यूरोप को चोट पहुंचाने लगी है और उच्च मुद्रा स्फीति, जीवनयापन के बढ़ते खर्च की वजह से केंद्रीय बैंकों को ऋण-दरों में अभूतपूर्व वृद्धि करनी पड़ी है। परिणामवश, युद्ध लंबा खिंचने से यूरोप की अधिकांश अर्थव्यवस्थाएं आज मंदी की कगार पर हैं।

इस्राइल और गाज़ा में हुए नरसंहार की बात करें तो यह इस क्षेत्र के लिए नया नहीं। जरूस्लम के लिए लड़ाई धर्म-युद्धों से भी काफी पहले होती आई है। यह शहर कई बार गर्क हुआ, बलात्कार बरपे और लुटा। आज कोई मुल्क, चाहे इस्लामिक हो या कोई और, किसी ने भी अनाथ, जख्मी, अपाहिज और बेघर हुए लाखों लोगों को अपने यहां पनाह देने की पेशकश नहीं की। युद्ध विराम के लिए कोई वार्ता नहीं हो रही… आखिर खून बहाने की हवस कब तक रहेगी? इसलिए अमेरिकी और उसके सहयोगी फिर से यूरोप और मध्य एशिया में सक्रिय हैं, अलबत्ता पहले जितने ताकतवर नहीं हैं। रूस, चीन, ईरान, उत्तर कोरिया भी सक्रिय होकर गोलबंद हो रहे हैं। यूरोप, मध्य एशिया और जलमार्गों पर गतिविधियां तेज हैं। संयुक्त राष्ट्र नाकारा हो चुका है, राजनयिक प्रयासों पर यकीन नहीं और बंदूक की ताकत चल रही है। इस दौरान पृथ्वी पर निरंतर बड़ा होता और दीर्घकालिक खतरा मंडरा रहा है, पर्यावरणीय बदलावों में तेजी-परिणाम है अभूतपूर्व ग्रीष्म लहरें, बर्फानी तूफान, बाढ़, सूखा, ग्लेशियर पिघलना और ऊंची उठती समुद्र जल-सतह। हमने स्वयं ये संकट पैदा किए हैं। फिर भी राजनेता विज्ञान और तर्क की आवाज दबा रहे हैं। हमारे ग्रह के वजूद को खतरा मुंह बाए खड़ा है। लगता है आज के इंसान के एजेंडे में मनुष्य-मनुष्य के बीच और प्रकृति एवं मानव के मध्य शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए कोई जगह नहीं है।

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