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अपशब्दों की राजनीति : हृदयनारायण दीक्षित

शब्द की शक्ति असीम होती है। प्रत्येक शब्द के गर्भ में अर्थ होता है। अर्थ से भरा पूरा शब्द बहुत दूर दूर तक प्रभावी होता है। पतंजलि ने शब्द प्रयोग में सावधानी के निर्देश दिए थे – शब्द का सम्यक ज्ञान और सम्यक प्रयोग ही अपेक्षित परिणाम देता है। महाभारतकार व्यास ने शब्द को ब्रह्म बताया था। युद्ध से आहत व्यास ने कहा था कि शब्द अब ब्रह्म नहीं रहे। लोकमंगल की साधना वाले शब्द जीवनरस को गाढ़ा करते हैं। प्रेम की अभिव्यक्ति के सर्वोत्कृष्ट उपकरण भी शब्द हैं। यही शब्द उचित अवसर उचित घटना और उचित व्यक्ति के लिए ठीक से प्रयुक्त न होने पर भयावह भी हो जाते हैं। सम्प्रति राजनैतिक क्षेत्र में अपशब्दों की आंधी है। अपशब्द सुन्दर शब्दों को विस्थापित कर रहे हैं। विधायी सदनों में भी शब्द अपशब्द के कोलाहल हैं। अपशब्दों के आक्रमण से भाषा का सौंदर्य और सत्यतत्व भी घायल है। कांग्रेस देश की सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी है। इसका जन्म सन् 1885 में हुआ था। स्वाधीनता संग्राम का श्रेय लेने वाली कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी द्वारा संसद में बोले गए अपशब्द कार्यवाही से निकाले गए। उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया है। राहुल जी प्रसन्न होंगे कि उन्होंने असभ्य शब्दों का प्रयोग किया है। वैसे राहुल को कोई गंभीरता से नहीं लेता। संसद में आँख मारने से लेकर मुख्यमंत्री योगी जी को अपशब्द कहने तक उन्होंने शालीनता के तत्व से दूरी बनाई है। वीर सावरकर पर की गई उनकी टिप्पणियां अभी भी लोगों को याद हैं। वे कांग्रेस के अध्यक्ष न रहे होते तो बात दीगर थी। वे सांसद भी हैं। इसलिए उनका कथन पूरी कांग्रेस पार्टी का कथन है।
हिंदी और संस्कृत में सभ्य और असभ्य शब्द चलते हैं। यहाँ सभ्य शब्द का मूल भाव सुन्दर वाणी है। सभा और समितियां ऋग्वैदिककाल से ही भारत के लोकजीवन की महत्वपूर्ण संस्थाएं रही हैं। जो सभा के योग्य हैं, सभा में सुन्दर बोलते हैं। वह सभेय है और जो सभेय है वही सभ्य। सभेय का अर्थ सभा में मधुर बोलने वाला सदस्य है। जिसकी वाणी मधुर वही सभ्य। शब्द भाषा के अंग होते हैं। भाषा सामाजिक सम्पदा है। मानव जाति के इतिहास में भाषा प्राचीनतम उपलब्धि है। वाणी प्रकृति की देन है। लेकिन भाषा का सतत् विकास हुआ है। भाषा की शुद्धि संवाद को सुन्दर बनाने वाले शब्दों पर निर्भर है। ऋग्वेद (5.58.6) के अनुसार ‘‘भाषा बुद्धि से शुद्ध की जाती है। यह नदी नाद के समान प्रवाहमान रहती है।‘‘ दुनिया के सारे समाज भाषा ने ही गढ़े हैं। समूचा ज्ञान विज्ञान और दर्शन सारवान शब्द प्रयोग के कारण सार्वजनिक सम्पदा बनता है। भारत में ऋग्वेद के रचनाकाल के पहले से ही भाषा को समृद्ध और मधुर बनाने के प्रयास जारी रहे हैं। ऋग्वेद के ज्ञानसूक्त में कहा गया है कि, ‘‘पहले रूपों के नाम रखे गए। फिर विद्वानों ने सार असार को अलग किया। बिलकुल ठीक कहा है। जब तक रूपों के नाम नहीं थे तब तक किसी वस्तु या व्यक्ति का परिचय भी संभव नहीं था। समृद्ध भाषा में दुनिया के सभी रूपों के नाम हैं। प्रीति प्यार के रूप नहीं होते। भाषा में इनके लिए भी शब्द हैं। संस्कृत प्राचीनतम भाषा है। इसमें रूपहीन भावजगत के लिए भी नाम है। तुलसीदास ने रामचरितमानस में श्रीराम की आराधना में कहा है कि आपके रूप से आपका नाम बड़ा है। आपने कुछ लोगों को ही भवसागर से पार उतारा है। लेकिन आपके नाम का जप करते हुए करोड़ों लोग संसार सागर की कठिनाइयों को पार कर गए। नाम महत्वपूर्ण है और यह भाषा की विशेष सम्पदा है। नाम भी शब्द होते हैं।
शब्द मधुरता भारतीय चिंतन दर्शन और संस्कृति की विशेष अभिलाषा रही है। अथर्ववेद (9.1) में स्तुति करते हैं, ‘‘हमारी जिव्हा का अग्रभाग मधुर हो। मूल भाग मधुर हो। हम तेजस्वी वाणी भी मधुरता के साथ बोलें। हमारी वाणी हमेशा मधुर हो। शब्द माधुर्य किसी भी व्यक्ति का श्रेष्ठ गुण माना जाता है। अथर्ववेद के इस मन्त्र में यह ध्यान देने योग्य है कि हम तेजस्वी वाणी भी मधुरता के साथ बोलें। अर्थात क्रोध आवेश या तनाव के समय भी हमारी वाणी मधुर रहनी चाहिए। ऋषि अथर्वा कहते हैं “हम मधुर बोलें। हमारा घर से बाहर जाना मधुर हो और घर लौटना भी मधु से भरा पूरा हो।“ राजनीति का कर्मक्षेत्र लोकप्रभावित करता है। राजनितिक कार्यकर्ता अपने विचार व कार्यक्रम आमजनों के बीच ले जाते हैं। इसके लिए शब्द मधुरता प्राथमिक अनिवार्य शर्त है। राजनितिक कार्यकर्ताओं को सोच समझ कर बोलना चाहिए। राहुल गाँधी भी सोच समझ कर ही बोलते हैं। उनके द्वारा कहे गए अपशब्द किसी जल्दबाजी का परिणाम नहीं है। आखिरकार वे देश की सबसे पुरानी पार्टी के मालिक हैं। उनका भाषाज्ञान काम चलाऊ तो होगा ही। उनके वक्तव्य ने कई मूलभूत प्रश्न उठाए हैं। – 1.) क्या वरिष्ठ राजनेताओं के पास शब्द सम्पदा की कमी है? 2.) क्या वे अपनी शब्द सम्पदा से अपशब्द ही निकाल कर लाते हैं? 3.) क्या इससे पार्टी को मजबूती मिलती है? अपशब्दों का प्रयोग किसी भी परिस्थिति में शुभ नहीं होता। अपशब्दों से राजनैतिक अभियानों की गुणवत्ता हेय हो रही है। शब्द संवाद आमजनों को ज्ञान समृद्ध नहीं करते। भाषा राष्ट्रजीवन का प्रवाह है। मधु आपूरित संवाद जीवन को मधुमय बनाते हैं और अप्रिय शब्द सार्वजनिक जीवन को तहस नहस करते हैं।
शब्द की शक्ति बड़ी है। सुन्दर शब्द लम्बी दूरी की यात्रा करते हैं। लेकिन अपशब्द उससे भी ज्यादा दूरी तक प्रभाव डालते हैं। अपशब्द सुन्दर शब्दों का विकल्प नहीं हो सकते। बेशक सभी राजनैतिक दलों की अलग अलग विचारधारा होती है। सबके अपने कार्यक्रम होते हैं। सबकी अपनी योजनाएं होती हैं। सबके अपने मनोरथ होते हैं। भिन्न भिन्न दलों के कार्यकर्ता एक ही राष्ट्रपरिवार के अंग हैं। वे परस्पर शत्रु नहीं हैं। लेकिन राहुल जैसे नेताओं ने भारतीय दलतंत्र की विश्वस्तरीय बदनामी कराई है। अपशब्दों के कारण भाषा की आनंदवर्धन परंपरा नष्ट हो रही है। दलों के बीच तनाव रहता है। लोकतंत्र का अंतर्संगीत बिखर रहा है। भारत विश्वप्रतिष्ठ हो रहा है। भारत का मन आकाशचारी हो रहा है। लेकिन राहुल जी जैसे नेताओं के कारण हम सभ्यता के मूल तत्वों से विरत हो रहे हैं। यह आश्चर्यजनक स्थिति है। सुधी लोगों को आत्मग्लानि होती है। ऋग्वेद में वाणी का सुन्दर विश्लेषण किया गया है। वाणी के चार रूप बताए गए हैं। उन्होंने पहले रूप को ‘परा‘ कहा है। यह मन में स्थित रहती है। दूसरी का नाम ‘पश्यन्ति‘ बताया गया है। इस मनोदशा में वाणी प्रकट करने का विचार उठता है। तीसरी को ‘मध्यमा‘ कहा है। इस तल पर विचार का शब्द अपना रूप ग्रहण करता है। शब्द योजना बनती है। शब्दों का विवेकीकरण होता है। चैथी का नाम ‘बैखरी‘ बताया गया है। यह प्रकट वार्ता है। लेकिन साधारण लोग पहली तीन स्थितियां कम जानते हैं। वे केवल चैथी का ही प्रयोग करते हैं। लेकिन यहाँ बिलकुल नई परिस्थिति है। राजनीति के प्रतिष्ठित राहुल जैसे नेता पूरी योजना और युक्ति के साथ अपशब्द बोल रहे हैं। यह अक्षम्य है।

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