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आवारा गाय ने ले ली पापा की जान:तो गोबर से प्रोडक्ट बनाना शुरू किया; आज 200 तरह के आइटम्स बनाता हूं

आवारा गाय ने ले ली पापा की जान:तो गोबर से प्रोडक्ट बनाना शुरू किया; आज 200 तरह के आइटम्स बनाता हूं*

– *नीरज झा*

गाय के गोबर से आपने अभी तक कंडा यानी उपला ही बनते देखा होगा, लेकिन कभी सोचा है कि इसी गोबर से हमारे-आपके डेली के इस्तेमाल में आने वाले दर्जनों प्रोडक्ट्स बनाए जा सकते हैं।

ये सारे प्रोडक्ट्स दिखने में भी एकदम मॉडर्न टाइप, जिसे देखकर कोई कहेगा ही नहीं कि ये गोबर से बने हुए हैं। मोबाइल स्टैंड, घड़ी, डेकोरेशन आइटम्स जैसी अनगिनत चीजें…

इसी प्रोसेस और इसके बिजनेस मॉडल को जानने के लिए मैं मध्य प्रदेश के ग्वालियर पहुंचा। यहां मेरी मुलाकात होती है गोपाल झा और उनके बेटे यश से, जो कंडा को ऐसे काट-छांट कर रहे हैं, मानो कोई फर्नीचर बनाने वाला लकड़ी की कटाई-छंटाई कर रहा हो।

पूछने पर गोपाल बताते हैं, गिफ्ट आइटम्स के लिए यूनिवर्सिटी से मोमेंटो बनाने के ऑर्डर हैं। एक हजार पीस तैयार करने हैं। इसी पर काम कर रहे हैं।

हाथ में उठाकर देखने पर ये पट्टी बिल्कुल लकड़ी या हार्ड प्लास्टिक से बने किसी मोमेंटो गिफ्ट की तरह ही दिखती है। गोपाल कहते हैं, ‘ये तो कुछ नहीं है, मैं आपको डेकोरेशन आइटम्स दिखाता हूं।’

गोबर से बनी ये चीजें जितनी चमकीली दिखती हैं, इसे बनाने के पीछे गोपाल झा की उतनी ही दुखद यादें जुड़ी हुई हैं, जिन्हें दोहराते हुए वो आज भी भावुक हो जाते हैं। ये घटना तकरीबन 13 साल पहले की है।

गोपाल कहते हैं, ‘2009 का साल था। पापा ग्वालियर में ही सब्जी लेने के लिए अपने मुहल्ले में जा रहे थे। एक आवारा गाय ने उन्हें उठाकर पटक दिया, जिससे उनकी मौत हो गई। इस घटना की वजह से मैं सदमे में चला गया। सोचने पर विवश हो गया कि आखिर सड़कों पर आवारा गाय क्यों घूमती हैं।

जब सड़क पर गायों को आवारा घूमने के लिए छोड़ने वाले गाय मालिकों से पूछा तो उनका सीधा कहना था कि जो गाय दूध नहीं देगी, उसका वो क्या करेंगे। फ्री में चारा कौन खिलाएगा? मैंने सोचा कि गोबर ही एकमात्र ऐसी चीज है, जो गाय के साथ ताउम्र रहती है।’

गोपाल मुझे अपनी छत पर लेकर चलते हैं, जहां उन्होंने ये पूरा सेटअप तैयार करके रखा है। एक तरफ उनका बेटा यश गोबर से बने मिरर पर पेंटिंग का काम कर रहा है, तो वो खुद कंडा को रगड़कर प्लेन करने में लगे हुए हैं।

गोपाल बताते हैं, ‘पापा की मौत के बाद मैंने गोबर से प्रोडक्ट्स बनाने की ठानी, ताकि लोग दूध न देने वाली गायों को आवारा न छोड़ें। लेकिन मुझे इसकी ABCD… भी पता नहीं थी।

मैंने साइकोलॉजी सब्जेक्ट से MA किया है और उस वक्त प्राइवेट जॉब कर रहा था। गली-गली से गोबर इकठ्ठा करना शुरू कर दिया, तो लोग पागल बोलने लगे। यहां तक कि घर वाले कहने लगे कि पापा की मौत के बाद इसके दिमाग में गोबर भर गया है। इसे इलाज की जरूरत है।

लेकिन मुझे यकीन था कि कोई न कोई प्रोडक्ट तो बना ही लूंगा। घर में रखे प्रोडक्ट्स को देख देखकर, उसी के शेप-साइज के मुताबिक मैंने कंडा को बनाना शुरू किया। शुरुआत में तो ये टूट जाते थे, बिखर जाते थे। कुछ बन ही नहीं पा रहा था।’

गोपाल मुझे कुछ फ्रेम दिखाते हैं, जो लकड़ी और लोहे के स्क्वायर और गोलाकार शेप में बना हुआ है। उसी में रखकर वो हर तरह के प्रोडक्ट को डिजाइन करते हैं। अलग-अलग साइज का कंडा उनके स्टोर में रखा हुआ है, जिससे वो फाइनल प्रोडक्ट तैयार करते हैं।

गोपाल कहते हैं, ‘आज आप ये सब देख रहे हैं, लेकिन 2010 में सेविंग के महज 5 हजार रुपए से मैंने इसकी शुरुआत की थी। घर-परिवार सब कुछ चलाना मुश्किल था। बच्चों की पढ़ाई के पैसे नहीं थे, तो बड़ा बिजनेस कैसे शुरू कर सकता था।

इसलिए दिन में जॉब करता और रात में गोबर से प्रोडक्ट बनाता। जब कुछ प्रोडक्ट्स डिजाइन कर लिए, तब मेरे सामने चुनौती थी कि इसे बेचें कैसे? लोग तो गोबर का नाम सुनकर ही भाग जाते थे।’

ग्वालियर में इन दिनों व्यापार मेला लगा हुआ है, जहां सभी तरह के छोटे-छोटे स्टार्टअप अपने प्रोडक्ट का स्टॉल लगाए हुए हैं। गोपाल भी अपना स्टॉल लगाए हुए हैं।

वो इसे बेचने और मार्केटिंग के पूरे प्रोसेस को समझाने के लिए मुझे मेला चलने को कहते हैं। गोपाल कस्टमर को अपना प्रोडक्ट दिखाने लगते हैं। वो कहते हैं, ‘तीन साल प्रैक्टिस करने के बाद मैंने फाइनल प्रोडक्ट बनाया था। जब इसे लेकर गली-मोहल्लों में बेचना चाहा, तो लोगों ने दरवाजे से भगा दिया।

लोगों ने ये कहते हुए नकार दिया कि अरे! ये तो गोबर से बना हुआ है। इसे खरीदना और पानी में पैसे फेंकना दोनों बराबर है। कौन खरीदेगा तुम्हारा प्रोडक्ट?’

फिर मुझे लगा कि गोबर और गाय को लोग भक्ती और आस्था से जोड़कर देखते हैं। इसलिए देशभर में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में जाने लगा, वहां स्टॉल लगाकर बेचने लगा। लेकिन सिर्फ इन कार्यक्रमों में प्रोडक्ट्स बेचकर गुजारा करना मुश्किल था।

इसलिए मैंने स्कूल-कॉलेज और न्यू जेनरेशन को टारगेट करना शुरू किया। उन्हीं के मुताबिक प्रोडक्ट बनाता और उन्हीं के बीच जाकर बेचने लगा। इसमें मेरे बेटे यश ने साथ दिया।

धीरे-धीरे लोगों को जब पता चला की ये ईको-फ्रेंडली है और मॉडर्न टाइप भी, डिमांड बढ़ने लगी। कॉलेज यूनिवर्सिटीज में होने वाले सेमिनार, प्रोग्राम्स से मुझे ऑर्डर मिलने शुरू हो गए।

मेले में लगे स्टॉल पर गोपाल झा कस्टमर के साथ मोल-भाव करने लगते हैं। कुछ लोग उनके प्रोडक्ट खरीदते हैं, तो कुछ रेट सुनकर ही निकल पड़ते हैं। गोपाल मेरी तरफ मुस्कुराते हुए कहते हैं, ‘हर कोई सस्ती चीजें खरीदना पसंद करता है, लेकिन आप ही बताइए न! हम कैसे इसे सस्ते दाम में बेचे। इसमें पूरा काम हाथ से ही होता है।

एक वाकया बताता हूं। ग्वालियर में मैं शुरुआती दिनों में फ्री में प्रोडक्ट बेचा करता था। एक रोज एक पुलिस अधिकारी ने देखा, तो उसने डांट लगाई और सारे प्रोडक्ट पैसे देकर खरीद लिए। उन्होंने बोला- यदि फ्री में बेचोगे तो कोई इसकी कीमत नहीं समझेगा।

दरअसल, जिन लोगों को मॉर्डन टाइम में ओल्ड चीजें पसंद है। कारीगरी की कीमत जानते हैं, वो खरीद लेते हैं। कोई प्रोडक्ट यदि 100 रुपए का है, तो उस पर मुझे 60 रुपए का प्रॉफिट होता है। ‘

गोपाल गौशालाओं और गली-मुहल्लों से 5 रुपए प्रति किलो के भाव से गोबर खरीदते हैं। वो कहते हैं, ‘इसमें ताजी गोबर की जरूरत होती है, इसलिए हम रोज गोबर मंगवाते हैं और प्रोडक्ट बनाते हैं। इसमें मौसम का भी ध्यान रखना होता है, क्योंकि प्रोडक्ट को धूप में ही सुखाना होता है।’

गोपाल कहते हैं, लोग कहते थे कि दिमाग में गोबर भरा है, गोबर से क्या ही बना लेगा। आज मैं देशभर में ट्रेनिंग प्रोग्राम के लिए जाता हूं। इसके पैसे लेता हूं। अलग-अलग सेक्टर में काम कर रही संस्था ट्रेनिंग के लिए बुलाती है।

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