पंजाब भोले और खुशमिजाज़ लोगों की धरती है। यहां के लोग हर त्योहार को आनंद से मनाते हैं। चुनाव के दौरान भी पंजाब में उत्सव का माहौल दिखा। पंजाब वर्तमान में युवाओं में बढ़ती नशे की लत से जूझ रहा है। पाकिस्तान के सीमावर्ती होने के कारण पंजाब में एक जिम्मेदार सरकार का होना आवश्यक था। अप्रवासी भारतीयों में पंजाबियों का एक बड़ा वर्ग है जो देश से प्यार करता है। इस बार वह पंजाब में बदलाव की नीयत से कई माह से चुनाव प्रचार में जुटा था। एक बड़ी संख्या में अप्रवासी भारतीयों द्वारा चुनाव प्रचार एवं प्रोफेशनल्स के चुनाव लडऩे के कारण रोचक बने पंजाब चुनाव के परिणामों का विश्लेषण विशेष संवाददाता अमित त्यागी कर रहे हैं ।
जाब में अकाली-भाजपा सरकार का विरोध था। उनकी हार तय तो सभी मान रहे थे किन्तु इन सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यह था कि क्या पंजाब में आप का शासन आ जायेगा? क्या सिर्फ मोदी विरोध के द्वारा खुद को राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित करने का मुगालता पाले बैठे केजरीवाल पंजाब की सत्ता पर क़ाबिज़ तो नहीं हो जाएंगे। नशे और ड्रग्स के चंगुल में फंसे पंजाब को इससे बाहर निकालने में असफल रही अकाली-भाजपा सरकार का विकल्प कहीं ड्रग्स से भी ज़्यादा खतरनाक लोग तो नहीं बन जाएंगे।
पर ऐसा हुआ नहीं। समय रहते आम आदमी पार्टी के अंदर के नेता अपने सर्वोच्च नेतृत्व की मंशा समझने लगे। सबसे पहले आम आदमी पार्टी के पंजाब प्रमुख सुच्चा सिंह ने अपनी एक नयी पार्टी बनाई। इसके बाद भाजपा से छिटके नवजोत सिद्धू आम आदमी पार्टी की गिरफ्त में आते दिखे किन्तु समय रहते हुये उनके ज्ञान चक्षु खुल गये और वह शायद एक सोची समझी रणनीति के तहत कांग्रेस में शामिल हो गये। ऐसा भी एहसास होता है कि सिद्धू का भाजपा से जाना एक सोची समझी राजनैतिक रणनीति है। ताकि, सिर्फ विरोध की राजनीति करने वाली आम आदमी पार्टी को संतुलित रखा जा सके।
यदि आम आदमी पार्टी की चुनावी रणनीति की बात करें तो आम आदमी पार्टी किसी एक बड़े नेता के सामने अपना कोई बड़ा नाम उतारती है। वह ऐसा माहौल बनाने की कोशिश करती है कि बड़े नाम से नाराज़ लोगों के रहनुमा सिर्फ आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार ही हो सकते हैं। जैसे केजरीवाल, शीला दीक्षित और नरेंद्र मोदी के सामने लड़ चुके हैं। ठीक उसी तजऱ् पर पंजाब में आप ने प्रदेश के सबसे बड़े नाम भगवंत मान को उप-मुख्यमंत्री सुखबीर बादल के सामने उतार दिया। इतना ही नहीं मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के सामने दिल्ली के राजौरी गार्डन से विधायक जरनैल सिंह और मंत्री बिक्रम मजीठिया के सामने हिम्मत सिंह शेरगिल को टिकट दिया था। आप के यह सभी ‘छुटभैये दिग्गज’ चुनाव हार गये और जनता ने इनको आईना दिखा दिया।
अति आत्मविश्वास एवं सिर्फ मोदी विरोध से पतन की ओर आम आदमी पार्टी।
जिस समय अन्ना का आंदोलन चल रहा था तब अरविंद केजरीवाल ने एक नयी उम्मीद जगाई थी। सड़ांध मारती व्यवस्था में अरविंद और अन्ना एक सुहाने झौंके के साथ लोगों में आशाएं बढ़ा रहे थे। देश का एक बड़ा युवा वर्ग एक नयी राजनीति की तरफ आकर्षित था। वह भ्रष्टाचार की आड़ में गुप्त एजेंडा चला रहे अरविंद केजरीवाल के चंगुल में फंसता दिखने लगा था। जनता ने अरविंद केजरीवाल के अंदर बदलाव की राजनीति का रहनुमा देखना शुरू भी कर दिया था। जनता की आंख पहली बार तब खुलीं जब एक बार दिल्ली में सरकार चला चुके अरविंद केजरीवाल चुनाव लडऩे के लिये बनारस पहुंच गए। नरेंद्र मोदी की मुस्लिम विरोधी छवि का फायदा उठाने के लिये मुस्लिम वोटों के तुष्टीकरण की सियासत उन्होंने शुरू करनी चाही। बनारस में मुंह की खाये केजरीवाल इसके बाद दिल्ली की जनता के द्वारा 70 में से 67 सीटें जीतकर मुख्यमंत्री बन गए। लोगों को उम्मीद थी कि केजरीवाल अब विकास की बात करेंगे और अनावश्यक भागदौड़ बंद कर देंगे। पर केजरीवाल तो दिल्ली की जीत से स्प्रिंग की तरह उछलने लगे। मुद्दा चाहे कोई भी हो वह उसका ठीकरा मोदी के ऊपर फोडऩे लगे।
केजरीवाल मोदी विरोध के द्वारा राष्ट्रीय नेतृत्व में मोदी विरोधियों के नेता बनने की तरफ बढ़ चले थे। जहां जहां जिन जिन प्रदेशों में भाजपा की सरकारें थी वहां वहां कमजोर कांग्रेस का फायदा उठाकर वह विकल्प देने में जुट गये। गोवा और पंजाब में उनके हाईटेक सिपहसालार प्रचार-दुष्प्रचार में लग गये। केजरीवाल के मंसूबों से अंजान बहुत से पढ़े लिखे एनआरआई युवा बदलाव के नाम पर मेरा भारत महान करने लगे। वह सब मुखौटे को देख पा रहे थे। मुखौटे के अंदर छिपी सियासत को नहीं। एक बार तो ऐसा लगने भी लगा था कि गोवा और पंजाब बदलाव की राजनीति के नाम पर कहीं गलत हाथों में तो नहीं चले जाएंगे।
समय रहते गोवा और पंजाब के लोगों में समझ आ गयी। सिर्फ मोदी विरोध को अपनी राजनीति की दिशा बना चुके केजरीवाल के दांव लोग पहचान गये। सिर्फ किसी बड़े नाम के खिलाफ उसके विरोध के द्वारा सत्ता हथियाने का शगल लोगों की समझ में आने लगा। भाजपा ने भी अपने रणनीतिक दांव संभल कर चले। कांग्रेस ने समय रहते खुद को संभाल लिया। अपनी डूबती नैया को तिनके के सहारे ही सही, कुछ हद तक बचाने में वह सफल भी हो गयी। पंजाब की जीत में राहुल गांधी के उस योगदान को नहीं भूलना चाहिए जो उन्होंने पंजाब न जाकर अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिये किया। अब तक ऐसी परिपाटी चल रही थी कि राहुल गांधी जहां जहां पहुंच जाते हैं वहां वहां कांग्रेस साफ हो जाती है।
पंजाब के भूगोल को समझकर भारी पड़ी कांग्रेस
पंजाब के चुनावों में असली लड़ाई आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच थी। सत्ता विरोधी लहर के कारण भाजपा-अकाली तो कहीं रेस में शामिल ही नहीं थे। ज़्यादातर सर्वे पहले से कह रहे थे कि पंजाब में आप नहीं कांग्रेस जीत रही है फिर भी आप पंजाब का भूगोल नहीं समझ पायी। आम आदमी पार्टी अपने सबसे मज़बूत इलाके मालवा में भी हार गयी। इसकी वजह समझने के लिये थोड़ा पंजाब का भूगोल समझते हैं। पंजाब में तीन भाग है। मालवा, माझा और दोआबा। पंजाब की कुल 117 सीटों में से 69 मालवा क्षेत्र में, 25 माझा क्षेत्र में एवं 23 दोआबा क्षेत्र में आती है। आम आदमी पार्टी के नेताओं ने शुरू से अपना पूरा जोर पंजाब के सबसे बड़े क्षेत्र मालवा में लगाया। 59 सीटों के बहुमत के आंकड़े को प्राप्त करने के लिये आप सिर्फ मालवा की 69 सीटों पर अपनी तैयारी करती रही। बाकी दोनों स्थानों पर उसने ध्यान ही नहीं दिया। आप के हाइटेक विदेशी सलाहकार भी इन 69 सीटों के जरिये अपना पंजाब बदलने का मुगालता पाले रहे। चूंकि अब समय सोशल मीडिया का है तो एक स्थान की खबर दूसरे स्थान पर पहुंचने में देर नहीं लगती है।
धीरे धीरे अन्य दोनों क्षेत्र के लोगों को समझ आ गया कि आप पंजाब के विकास के बहाने सिर्फ मालवा पर निर्भर है। यहीं से उनका कांग्रेस की तरफ झुकाव बढऩे लगा। इसके बाद सिद्धू का कांग्रेस में आना कांग्रेस को संजीवनी दे गया। जैसे ही कांग्रेस दोआबा और माझा में मजबूत होनी शुरू हुयी उसके मालवा के कार्यकर्ता भी जोश में आ गये। पूरे प्रदेश में अचानक कांग्रेस जि़ंदा होने लगी। चूंकि अकाली-भाजपा तो कमजोर थी और वह भी नहीं चाहती थी कि दिल्ली की तरह पंजाब में ‘रायता सरकार’ बने इसलिए भाजपा नें आप से ज़्यादा कांग्रेस को मजबूत होने दिया। केवल मालवा के सहारे सरकार बनाने का ख्वाब देख रही आप की उम्मीदें धूमिल हो गईं। मालवा की 69 सीटों में से आप केवल 18 ही जीत सकी। इस क्षेत्र में कांग्रेस ने 40 सीट पर जीत पायी। दोआबा की 23 में से केवल 2 सीट एवं माझा की 25 सीटों पर खाता भी नहीं खुलने से आम आदमी पार्टी की पंजाब इकाई में में बिखराव अब तय है। कांग्रेस की जीत ने पंजाब को एक स्थायी सरकार प्रदान कर दी है।
भाजपा-अकाली गठबंधन के लिये अब खुद को संभालने का समय
पंजाब चुनावों में करारी हार के बाद भाजपा-अकाली गठबंधन के लिए अब खुद की जड़ों को मजबूत करने का शानदार मौका है। असफलता सिर्फ आपको भीतर तक ही नहीं झकझोरती है बल्कि आपके लिए एक सुनहरे भविष्य की रूपरेखा भी बनाती है। 2019 के लोकसभा चुनावों के पहले अगर अकाली-भाजपा ने अपनी कमियां सुधार ली, खुद को मजबूत कर लिया तो एक बात तो तय है कि तब तक कांग्रेस सरकार की कुछ विफलताएं सामने आ चुकी होंगी। जनता राष्ट्रीय परिदृश्य में मोदी को पसंद करती है और कांग्रेस के पास कोई बड़ा राष्ट्रिय नेता नहीं है। वह इस तरह मोदी को वोट देगी। अब देखना यह है कि भाजपा-अकाली इस बात को कितना जल्दी समझ पाते हैं।
सरकार बनते ही विवादो में आ गये सिद्धू
भाजपा की सांसदी छोड़कर कांग्रेस से विधायक चुने गये सिद्धू मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब देख रहे थे। खैर मुख्यमंत्री तो वह बन नहीं पाये। कैप्टन की सरकार में उनको कैबिनट मंत्री का दर्जा मिल गया। सिद्धू के लिए यह एक झटका था। इसके बाद सिद्धू ने कैप्टन को एक बड़ा झटका धीरे से दे दिया। सिद्धू ने वापस कॉमेडी शो में भाग लेने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। एक जिम्मेदार पद पर रहने के कारण और पंजाब की समस्याओं को दूर करने के मुद्दे पर सरकार में आई कांग्रेस के लिए यह एक असहज स्थिति होगी कि उनका एक बड़ा मंत्री समस्याओं को दूर करने के स्थान पर टीवी पर बैठा हंस रहा है। मसले के हल के लिए सिद्धू के उन करीबियों को जि़म्मेदारी दी गयी जो सिद्धू को कांग्रेस में लाये थे किन्तु सिद्धू कहां मानने वाले थे। उन्होंने तो अपनी पार्टी को ही आईना दिखा दिया। उन्होंने दोपहर तीन बजे जाकर सुबह पांच बजे आने की थियरी देकर अपने बुलंद इरादे जता दिये हैं। अब एक तरफ न्यूज़ चैनल पर पंजाब की समस्याएं दिखाई देंगी तो दूसरी तरफ दूसरे चैनल पर सिद्धू बैठे हंस रहे होंगे।