एक दिन भाईयों, पुत्रों, सीताजी तथा गुरु के साथ श्रीरामचन्द्रजी बैठे थे। प्रसंगवश हर्षित होकर श्रीराम कहने लगे, समस्त ऋषिगण, मेरे सब भाई, दोनों पुत्र, सीता, समस्त मन्त्री और माताएँ सब मेरी बात सुनें।
यथा यथाऽवतारेऽस्मिन सुखं भुक्तं हि सीतया।
न तथाऽन्येषु सर्वेषु ह्यवतारेषु वै कदा।।
आनन्दरामायण राज्यकाण्डम् (उत्तरार्द्धम्) सर्ग २०-२१
मैंने इस अवतार में सीता के साथ जितना सुख भोगा है, उतना किसी भी अवतार में नहीं भोगा। श्रीराम ने कहा कि उन्होंने अनेक कारणों से समय-समय पर अवतार लिए हैं, किन्तु उनकी कोई संख्या नहीं है। इतना होने के बाद भी उनके सात अवतार मुख्य हैं। श्रीराम ने अपने अवतारों को इस प्रकार बताया- आज से बहुत दिनों पूर्व महोदधि (समुद्र) में शंखासुर नामक दैत्य हुआ था जो सत्यलोक से चारों वेदों को चुरा ले गया था। उसके लिए उन्होंने मत्स्यरूप धारण किया और उसका वध करके विष्णु रूपधारी बन गया। उस मत्स्य योनि में कोई विशेष सुख नहीं प्राप्त हुआ। अतएव उस अवतार में मत्स्यरूप में ज्यादा वर्षों तक न रहे।
इसके बाद समुद्र मन्थन के समय जब उन्होंने मन्दराचल पर्वत को डूबते देखा तब (कूर्म) एक कछुए का रूप धारण किया। उस कूर्म स्वरूप को भी अच्छा न समझकर बहुत दिनों तक उस रूप में न रहे।
सोचने-विचारने की बात है कि कभी जलचर जाति तथा जल में रहकर वे सुखी कैसे हो सकते थे।
तदनन्तर पृथ्वी को समुद्र में डूबती देखकर उन्होंने वराह का रूप धारण करके पृथ्वी को अपने दाँतों पर रखकर उठाया। इस पृथ्वी पर एकमात्र मेरा राज्य है अतएव यह पृथ्वी मेरी है। इस प्रकार डींग मारने वाले हिरण्याक्ष नामक असुर का उस अवतार में वध किया। इस तरह पशुयोनि में रहकर भी उन्हें कोई विशेष सुख नहीं मिला। इसलिए उस अवतार में उस रूप को शीघ्र ही त्याग दिया।
प्रह्लाद के कथनानुसार नृसिंह रूप धारण करके खंभे से निकलना पड़ा तथा यह अवतार लेकर उन्होंने क्षणमात्र में हिरण्यकशिपु को समाप्त कर दिया। उनका वह रूप अत्यन्त ही तेजस्वी था। उनके इस रूप के भय से प्रह्लाद के अतिरिक्त उनके पास आने का सामर्थ्य किसी के पास नहीं था। उनका यह रूप भी सिंह योनि तथा क्रोधपूर्ण था। अत: उन्हें इस रूप में आनन्द की प्राप्ति नहीं हुई।
तदनन्तर मैंने वामन का रूप धारण कर-
ततो बलेर्मोहिनार्थं स्वरूपं तु वामनम्।
धृत्वा कृत्वा त्रिपद्याञ्च भूमे: पातालग कृत:।।
आनन्दरामायण राज्यकाण्डम् (उत्तरार्द्धम्) सर्ग २०-३५
बलि को नीचा दिखाने के लिए उन्होंने बहुत ही छोटा वामन का रूप धारण किया और तीन पैरों में सारी त्रिलोकी को नापकर बलि को पाताल लोक भेज दिया। उस समय भी एक तो मुनि का वेष, दूसरे वनों में रहना, तीसरे शरीर भी जितना चाहिए था उतना सुन्दर नहीं था। इसलिए उस रूप को भी शीघ्र त्याग कर वे स्वर्ग लोक लौट गए।
फिर उन्होंने ब्राह्मण रूप से परशुराम का अवतार लेकर इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय शून्य कर डाला था। उसी अवतार में उन्होंने सहस्त्रार्जुन का वध किया। उस समय भी एक क्रोधी मुनि का रूप धारण करना पड़ा था। वन में रहने वाले मुनियों को भला कब सुख प्राप्त हो सकता था। यह सोच विचार कर उन्होंने उस जन्म में भी तपस्या ही की। उस तपस्वी जीवन में वनों में रहकर भी उन्हें उस अवतार में क्या सुख मिला होगा। इस प्रकार उन्होंने छ: अवतार लेकर कार्य किया। किन्तु इन सब अवतारों में सुख का नाम कहीं नहीं था।
श्रीराम ने कहा कि-
न जाता सुखवार्ताऽपि तत्र क्वापि मुनीश्वरा:।
द्वापरेऽग्रे कृष्णरूपं गोकुलेऽत्र करोम्यहम्।।
आनन्दरामायण राज्यकाण्ड उत्तरार्द्ध सर्ग २०-४२
उन छ: अवतारों में मुझे सुख नाममात्र भी मिला। अत: आगे द्वापर युग में इस पृथ्वी पर गोकुल में कृष्णरूप से अवतार लूँगा। ईश्वर सर्वज्ञ है अत: उन्होंने कहा कि सुख उस अवतार में भी नहीं पा सकूंगा। ध्यानपूर्वक सुनिये उस अवतार का विवरण आप सबको विस्तारपूर्वक बतलाता हूँ। मेरे जन्म के पहले ही मेरे माता-पिता कारागार में रहेंगे। शैशवकाल में माता-पिता से दूर होकर एक अन्य व्यक्ति नन्दबाबा के घर गोकुल में रहकर पालन-पोषण होगा। उस गाँव के वेष से गौओं के पीछे-पीछे घूमने में मुझे क्या सुख मिलेगा। फिर गो (वत्सासुरा), स्त्री (पूतना), नाग (कालिया), अश्व (केशी) तथा पक्षी (बकासुर) का वध करूँगा। फिर गोकुल में चोरी आदि कर लेने के बाद मथुरा जाकर हाथी कुलयापीड़ के साथ मामा कंस को मारूँगा। कालयवन के भय से मुझे परास्त भी होना पड़ेगा। पराजय से बढ़कर इस संसार में कोई दु:ख नहीं हो सकता। तदनन्तर समुद्र के किनारे अपना निवास स्थान निर्मित कर कुछ दिनों तक वहाँ ही रहूँगा। यह बात निश्चित है कि इस अवतार में भी अधिक वर्षों तक संसार में न रहूँगा। मध्य देश में निवासस्थान न रहने के कारण मेरे पास कोई राज्य भी नहीं रहेगा। उस जन्म में राजाओं की उपभोग्य वस्तुएँ छत्र-चँवर आदि भी उनके पास नहीं रहेंगे। बहुतसी स्त्रियों के बीच मेरा अकेला शरीर रहेगा। उस समय दिन रात यही चिन्ता रहेगी कि इनमें से किसे सुख दें और किसे दु:ख तथा सदा मुझे उनका मनुहार करना पड़ेगा। जिस मनुष्य को संसार में दु:ख भोगने की इच्छा हो, वह कई स्त्रियों को रख ले और देखे उसका फल। कहने का तात्पर्य यह है कि मुझे उस अवतार में भी कुछ भी सुख नहीं मिलेगा। अन्त में ब्राह्मण के शाप से मेरे अवतार की समाप्ति होगी।
इसके अनन्तर कलि में दैत्यों को यज्ञ कर्म करते देखकर मैं अतिशय मनमोहक बौद्ध अवतार लूँगा। अपनी बातों से उन दुष्टों की बुद्धि (मति) यज्ञ की ओर से हटाकर कुछ दिनों तक संसार में रहूँगा। उस समय मैं अहिंसा व्रत का प्रचार करूँगा।
तदनन्तर मैं कलियुग के अन्त में सब लोगों को वर्णसंकर होते देखकर मैं कल्कि अवतार लूँगा।
भूत्वाऽत्र विप्रदेहेन खङ्गधारी हयस्थित:।
संहार क्षणमात्रेण दुष्टानां हि करोम्यहम्।।
आनन्दरामायण राज्यकाण्ड उत्तरार्द्ध सर्ग २०-६४
उस जन्म में एक विप्र के यहाँ उत्पन्न होकर और घोड़े पर सवार होकर क्षण मात्र में दुष्टों का संहार कर डालूँगा। हे ब्राह्मणों यह अवतार भी चिरस्थायी नहीं होगा। अतएव उसमें भी कुछ सुख नहीं भोग सकूँगा।
उसके बाद पुन: सत्ययुग आ जाएगा और पहले की तरह मैं फिर अवतार लेता रहूँगा। इस तरह नौ अवतारों में कुछ सुख नहीं मिलेगा। किन्तु इस (रामावतार) अवतार में मैंने अपने इच्छानुसार सुख भोग लिया है। इस अवतार के समान कोई अवतार इस संसार में हुआ है, न होगा। इसमें सातों द्वीपों का प्रभुत्व सीता जैसी स्त्री, कुश-लव जैसे महावीर और धनुुर्धारी पुत्र, तीनों लोकों को जीतने वाले भ्राता और कामधेनु आदि सात रत्न विद्यमान है। जहाँ वेद के साक्षात् स्वरूप गुरु वसिष्ठ हैं, आर्यावर्त जैसे पवित्र, देश में निवासस्थान है, राज्य भोगों की प्रतिद्वंद्विता करने वाला और कोई नहीं है, जहाँ सत्य का व्रत है, जहाँ अटल एक पत्नी व्रत है। जहाँ केवल एक ही बाण से शत्रु को मारने का सामर्थ्य है। जहाँ ऋषि-मुनिगण बेरोक-टोक जहाँ चाहे, तहाँ जा सकते हैं। जहाँ कि पुष्पक विमान जैसी सवारी का वाहन है। सुग्रीव और विभीषण जैसे मित्र हैं, शत्रुओं का नाश करने वाला कोदण्ड जैसा धनुष है।
सूर्यवंशे यत्र जन्म ततो दशरथोवर:।
कौसल्या यत्र जननी यत्राहं स्ववश: सदा।।
सुमेधासदृशी यत्र में श्वश्रु: स्नेहवर्धिनी।
विदेह श्वसुरो यत्र विद्यादो यत्र गाधिज:।।
लक्ष्मणो यत्र में मन्त्री सरयूर्यत्र में नदी।
पार्श्वगा हाङ्गदाद्याश्च चतुर्दन्तो गजो महान्।।
आनन्दरामायण राज्यकाण्ड उत्तरार्द्ध सर्ग २०-७६-७७-७८
सूर्यवंश में जन्म हुआ है, दशरथ जैसे पिता और कौसल्या जैसी माता है, जहाँ कि मैं सदा स्वाधीन रहता हूँ। स्नेह को बढ़ाने वाली सुमेधा जैसी सास है, विदेह जैसे ससुर है, विश्वामित्र जैसे विद्यादाता गुरु है। लक्ष्मण जैसे मंत्री हैं, सरयू जैसी नदी है, अंगदादि वीर अंगरक्षक है बड़ा भारी चतुर्दन्त हाथी है। बैकुण्ठ के समान विशाल सुन्दर भवन है। चिन्तामणि जैसा अलंकार सदा हृदय पर रहता है, जहाँ ग्यारह हजार वर्षों की लम्बी आयु है। किसी भी राजा के सामने न झुकने वाला यह मस्तक है। यहाँ सो सुख है वह क्या अन्यत्र मिल सकता है? अब मेरे हृदय में किसी भी प्रकार का भी सुख भोग करने की कामना शेष नहीं रह गई है। इसीलिए मैंने पूर्ण रूप से इस अवतार को धारण किया था। भूत और भविष्य के अवतारों में जो अंश बाकी रह गए थे, उनके सहित यह अवतार लिया है। जो बाल्यकाल सीता तथा भाई के साथ वन की यात्रा की थी, वह दु:ख भोगने के लिए नहीं वरन् संसार के लोगों को उपदेश देने के लिए की थी। उससे मैंने संसारी लोगों को कौन सा उपदेश दिया है, वह भी बता देता हूँ।
कितना ही परिश्रम साध्य हो, फिर भी पिता की बात आज्ञा माननी चाहिए। यह उपदेश देने के लिए मैंने उस समय पिता की आज्ञा का पालन किया था। क्या पिता की बात टालने का सामर्थ्य मुझे में नहीं थी? पर जनशिक्षा लोकशिक्षा के लिए उनकी बात मान ली थी। क्या उस समय माता कैकेयी तथा राज्यतिलक में विघ्न डालने वाली पापिनी मन्थरा के वध करने का पराक्रम मुझमें नहीं था, पर उनको दण्ड न देकर मैंने संसार को यह शिक्षा दी कि स्त्री का वध कभी भी नहीं करना चाहिए और अपनी सौतेली माँ की आज्ञा भी उसी तरह पालन करना चाहिए, जिस प्रकार लोग अपनी सगी माता की आज्ञा का पालन करते हैं। मुझे यह भी प्रजा में उपदेश देना था कि अपने सुख के लिए पराये का वध न करना चाहिए। इसी कारण से मैंने कैकेयी तथा मन्थरा का वध नहीं किया।
अपने भाई की हिंसा न करे और दूसरे का राज्य न हड़पना चाहिए। यह उपदेश देने के लिए ही मैंने भरत पर आँख नहीं उठाई, उन्हें नहीं मारना चाहा। पिताजी के स्वर्गवासी हो जाने के पश्चात् भी मैंने उस राज्य को स्वीकार नहीं किया।
राज्यासक्ता नरा भूम्यां भोगासक्ता भवन्तु न।
उपदेष्टुं जनानित्थमहं पूर्वं वनं गत:।।
मातृपितृसुहृत्पुत्रस्नेहाासक्तिं न कारयेत्।
इत्थं मयोपदिशता त्यक्त: स्नेहस्तदा द्विजा:।।
आनन्दरामायण राज्यकाण्ड उत्तरार्द्ध सर्ग २०-९२-९३
राज्य में आसक्त लोग सर्वथा विलासी न हो जाएं, यह उपदेश देने के लिए ही मैं वन को गया था। माता-पिता, मित्र पुत्र आदि के स्नेह में अधिक आसक्त न हो जाना चाहिए। यह उपदेश देते हुए मैंने स्नेह का परित्याग कर दिया था।
सुख दु:ख दोनों को समान समझना चाहिए। सुख में न विशेष हर्षित हो, न दु:ख में घबराए। यह उपदेश देने के लिए ही मैंने राज्य सुख का त्याग कर वन के क्लेशों को अपनाया था। काम-क्रोध आदि दुष्ट शत्रुओं को मारना चाहिए। यह उपदेश देने के लिए ही मैंने वन में रहकर बहुत से मुनि हिंसक राक्षसों का वध किया था। स्त्रियों में अधिक आसक्त होना ठीक नहीं, बल्कि उनका संग त्याग कर दूर रहते हुए तपस्या करें। यही उपदेश देने के लिए मैंने वन में सीता को भेजकर उनसे वियोग दर्शाया था। वास्तव में सीता हमसे पृथक् कभी नहीं हो सकती। मनुष्य मात्र को चाहिए कि वह दुखी जन की रक्षा करे और दुष्टों को कठोर दण्ड दें। सुग्रीव और विभीषण की रक्षा करके दुष्ट बालि और रावण को मारकर संसार को मैंने यही उपदेश दिया था। इस संसार में मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी कीर्ति-यश का विस्तार करे। इसीलिए मैंने समुद्र के पानी में पत्थर तैराये थे। वैसे मैं चाहता तो क्या आकाश मार्ग से चलकर लंका नहीं पहुँच सकता था?
यदि कोई वस्तु अपने को प्रिय हो, किन्तु संसार के विरुद्ध हो तो उस प्रिय वस्तु का भी परित्याग कर देना चाहिए। यह उपदेश देने के लिए ही मैंने लंका में अग्नि को साक्षी दे तथा पवित्र जानकर भी लोकोपवाद के भयवश सीता का परित्याग कर दिया था। भ्रमवश यदि किसी पवित्र वस्तु को त्याग दें और बाद में मालूम हो कि वह शुद्ध है तो उसको फिर से अंगीकार कर लेना चाहिए। यह उपदेश देने के लिए ही मैंने पहले त्यागी हुई सीता को भी फिर स्वीकार कर लिया। उसी प्रकार एक पत्नीव्रत, अनेक प्रकार के राज्य कार्य, अश्वमेघादि, यज्ञ, सदाचार, जप, तप, स्नान संध्या आदि जितना भी कार्य हम करते हैं यह सब लोगों को उपदेश देने के लिए ही तो कर रहे हैं। सुख-दु:ख जो संसार में बताए हैं वे अवतार के आधार पर आप लोगों के लिए कौतुक (लीला) के लिए कहे हैं, इसमें कोई संशय नहीं है। अपने भक्तों के सन्तोषार्थ विशेष गुण सम्पन्न ये अवतार गिनाए, वास्तव में सब अवतारों का अपना एक विशेष स्थान महत्व है। वास्तविक रूप में देखा जाए तो सब अवतार बराबर है। किन्तु अपनी बुद्धि से भलीभाँति विचार करके मैं इस निश्चय पर पहुँचा हूँ कि-
विशेषगुणानुक्त: सन्ति सर्वे समा मम।
सम्यग्बुद्धया विचाराच्च वरिष्ठ: सकलेष्ययम्।।
आनन्दरामायण राज्यकाण्डम् उत्तरार्द्धम् सर्ग २०-११०
समस्त अवतारों में यह रामावतार सर्वश्रेष्ठ है। दो अवतार जलरूप के, दो वनचर, दो वल्कल, एक वैश्य वर्ण को गोरूप, एक बुद्ध अवतार, एक क्षणिक ये भूत तथा भविष्य के सारे अवतार मेरे मन के नहीं हैं। इनसे मैं प्रसन्न नहीं हूँ।
अयं सर्वविशष्टोऽत्र ह्युपासकजनप्रिय:।
अवतारस्त्वहं वेद्मी सेवनान्मंगलप्रद:।।
आनन्दरामायण राज्यकाण्डम् उत्तरार्द्धम् सर्ग २०-११३
इस अवतार में मैंने जितने काम दिए हैं वे सब अतिशय रम्य, पातकों को नष्ट करने वाले तथा सुनने से मुक्ति देने वाले हैं। भक्तों को चाहिए कि मेरे इसी अवतार का भजन करें। जो लोग इसकी उपासना करते हैं, वे मुझे सदा से अत्यन्त ही प्रिय है।
नहि रामसम: कश्चिद् विद्यते त्रिदशेष्वपि।
वा.रा.सु.का. ११-३
देवताओं में भी कोई ऐसा नहीं जो श्रीराम की समानता कर सके।
रामेण सदृशो देवो न भूतो न भविष्यति।
श्रीरामचन्द्रजी के समान न कोई देवता हुआ है और न होगा ही।
(कल्याण अंक फरवरी २०१८)
प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
‘मानसश्रीÓ, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर