स्वाध्याय
सुरेश चंद्र
ध्याय संस्कृत का एक संयुक्त शब्द है जिसका संधि विच्छेद स्व+अध्याय होता है Óएवं इसका अर्थ होता है स्वयं के जीवन की पुस्तक के अध्यायों का अध्ययन। इस शब्द का एक और अर्थ भी निकला गया है स्वा$ध्याय। यहां ध्याय का अर्थ है ध्यान लगाना, सोचना अथवा विचार करना। इस अर्थ के अनुसार स्वाध्याय स्वयं अपनेविषय में वियार करना एंव मनन करना है। साधारण रूप से स्वाध्याय का तात्पर्य वेदों, शास्त्रों एवं दर्शन के अध्ययन से किया जाता है। कुछ विद्वान इसका अर्थ स्वयं प्राप्त आध्यात्मिक शिक्षा से लेते हैं। स्मृतियों में स्वाध्याय का अर्थ वेदों को कंठस्थ करना है ताकि मौखिक रूप से उनका सही पाठ किया जा सके।
तैंत्तिरीय उपनिषद् के मं़त्र संख्या 1.9.1 के अनुसार सत्य को जानना, आत्मनियंत्रण, तप आंतरिक शंाति एवं यज्ञ करना ही स्वाध्याय है। यह मंत्र शिक्षा देता है-
पतंजलि के योग सूत्र के श्लोक संख्या ॥ 44 में कहा गया है
स्वाध्यायादिष्टदेवता सम्प्रयोगा अर्थात स्वयं का अध्ययन करो, ईश्वर की प्राप्ति होगी।
पतंजलि पुन: पांच नियमों का जिक्र करते है जो शौच, संतोष, संयम, समर्पण एवं स्वाध्याय है। किसी मंत्र का लगातार जप भी स्वाध्याय का ही एक रूप है। गीता में स्वाध्याय गीता के चतुर्थ अध्याय के अठाईसवैं श्लोक में ‘स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्चÓ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिसके अनुसार स्वाध्याय एक यज्ञ है एवं भगवान के नाम का जप तथा भगवत प्र्राप्ति विषयक शास्त्रों का अध्ययन ही यह यज्ञ है। इस श्लोक की अत्यंत सुन्दर व्याख्या ओशो ने अपने एक प्रवचन में की थी। उसी को संक्षेप में हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।
ओशो के अनुसार स्वाध्याय का अर्थ है, स्वयं का साक्षात्कार या अपने ही आमने सामने खड़ा हो जाना। स्वाध्याय की इस प्रक्रिया को तीन भागों में बाँट लेना चाहिए तभी यह यज्ञ पूर्ण हो सकेगा।
पहला भाग यह है कि दूसरों ने उसके सम्बन्ध में क्या कहा है या वे उसके संबंध में क्या सोचते है इसे अपने मस्तिष्क से हटा देना चाहिए। यह बहुत कठिन काम नहीं है। यह इतना ही सरल है जैसे नदी के उपर पत्ते छा जाएँ और उनकों हम हटा दें तो नीचे का जल स्त्रोत प्रकट हो जायेगा।
हम अपनी बहुत सी इच्छाओं एवं भावनाओं को अर्धचेतन मन में दबा देते है। जैसे एक व्यक्ति यदि ब्रह्मचर्य की धारणा से भर जाये तो वह अपनी कामवासना को इतनी गहराई में दबा देगा कि उसका अपनी उस वासना से साक्षात्कार लगभग असंभव हो जायेगा। क्रोध, लोभ, मोह सभी विकारों पर यह बात लागू है। इसलिए स्वाध्याय के दूसरे चरण में जो-जो दबाया हुआ है उसे उभारना पड़ेगा अन्यथा स्वयं का अध्ययन नहीं हो पायेगा। यही कारण है कि हम अकेलेपन से बहुत डरते हैं। हम अपने अंतरतम से भेंट नहीं करना चाहते। हमारे साथ कोई न कोई होना चाहिए चाहे वह कोई परिवार का सदस्य हो, मित्र हो या टेलीविजन, अखबार या रेडिया हो।
अत: दूसरे चरण में काम, क्रोध, ईष्या, भय, हिंसा इत्यादि उन सबको उभार लेना चाहिए। इसके लिए पश्चिम में मनोवैज्ञानिक जैसे फ्रायड, जुंग इत्यादि ने मनोविश्लेषण का प्रयोग किया है। यह चरण पहले चरण से कहीं कठिन है। हम दूसरे हमारे विषय में क्या विचार रखते हैं, इसे आसानी से त्याग सकते हैं किन्तु अपने अंतर मन की गहराईयों में छुपी वासनाओं एवं विकारों का त्याग कठिन काम है।
हम सबने अपनी-अपनी प्रतिमांए बना रखी हैं। एक आदमी कहता है कि वह कभी क्रोध नहीं करता। दूसरा अपने को नितांत निर-अहंकारी समझता है जबकि तीसरा लोभ से परे रहने का दावा करता हैं हर एक ने अपनी एक सुंदर प्रतिमा गढ़ रखी है। उस सुन्दर प्रतिमा को छोडऩे का साहस जिसमें न हो वह स्वाध्याय के क्षेत्र में नहीं उतर सकता। इसलिए स्वाध्याय को यज्ञ भी कहा गया है। यह विकराल अग्नि के समान है जिसमें आपकी सेल्फ-इमेज, अपनी प्रतिमा जल जाएगी।
स्वाध्याय का यह तीसरा चरण – स्वयं अपने द्वारा बनाई गयी अपनी प्रतिमा, सेल्फ इमेज को जलाकर भस्म कर देना भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि दूसरों के अपने विषय में विचारों से ुछुटकारा पाना एवं अपेन अंतर्मन में दबे विकारों को सतह पर लाकर समाप्त कर देना है। इसीलिए स्वाध्याय एक बड़ा यज्ञ है, एक बड़ी आग है।
स्वाध्याय का सबसे बड़ा मूल्य यही है कि हम अपने से अपने को तो छिपा सकते हैं किन्तु उस परम सत्य, परम पिता परमात्मा से तो कुछ भी नहीं छुपा रह सकता। अत: सब कुछ स्वयं प्रकट कर देना ईश्वर प्राप्ति का सर्वोत्तम उपाय है।
प्राय: ही लोग इस प्रकार का स्वाध्याय नहीं करते। वे गीता तथा अन्य शास्त्रों का स्वाध्याय तो करते हैं किन्तु अपने विकारों एवं दूषित मनोभाव को स्वीकार करके उन्हें उस यज्ञ में भस्म नहीं करते। यह कार्य महात्मा गांधी अपने पुस्तक सत्य के प्रयोग के माध्यम से किया था। गीता सत्य का वक्तव्य तो है किन्तु असत्य की स्वीकृति नहीं है।
इस प्रकार का स्वाध्याय आपको ईश्वरीय पथ पर अग्रसर करेगा।