दुर्भाग्य ! अब भी देश राजनीतिक स्वार्थों से परिचालित किया जा रहा है। पंडित और ब्राह्मण के बीच अंतर बताने की विवशता के पीछे ऐसे ही स्वार्थ अपनी भूमिका निभा रहे हैं। सवाल ब्राह्मणों या विद्वानों का नहीं है, सवाल इस बात का है कि जाति-प्रथा ने आदमी और आदमी के बीच दीवार खड़ी की है, और इसे मज़बूत करने की कोशिश हो रही है। जहां से विवाद खड़ा हुआ,वो मुम्बई में संत रविदास जयंती के अवसर पर आयोजित एक कार्यक्रम में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने जाति-प्रथा की विसंगति पर चोट करते हुए यह बात कही थी।
‘कठौती में गंगा’ का मंत्र सिखाने वाले संत रविदास ने तो मनुष्यता का ही एक संदेश दिया था, जो आज भारत की आवश्यकता है। यानी मनुष्य मात्र की आवश्यकता। मोहन भागवत संत रविदास के इसी संदेश की बात कर रहे थे। यह दुर्भाग्य ही है कि मोहन भागवत की यह बात भी विवादों के घेरे में आ गयी । ब्राह्मणों को यह शिकायत है कि भागवत ने उनका अपमान किया है। अब आरएसएस की तरफ से एक बयान जारी किया गया है कि भागवत के वक्तव्य का गलत अर्थ लगाया गया है। उन्होंने शास्त्रों का गलत आधार लेकर जाति-प्रथा को बढ़ावा देने वाले पंडितों यानी विद्वानों की बात की थी, ब्राह्मणों की नहीं। स्पष्ट है जाति की राजनीति करने वाले देश के ब्राह्मणों को नाराज़ करने का खतरा कोई भी मोल नहीं लेना चाहता ।
यहाँ सवाल ब्राह्मणों या विद्वानों का नहीं है, सवाल इस सच्चाई का है कि जाति-प्रथा ने आदमी और आदमी के बीच दीवार खड़ी की है। इसका नुकसान सारा भारतीय समाज झेल रहा है। यह दीवार टूटनी चाहिए। यह कहना प्रमाणिक, सत्य और सही है कि ‘ईश्वर सब प्राणियों में है, इसलिए रूप-नाम कुछ भी हो, लेकिन योग्यता एक है, कोई ऊंचा-नीचा नहीं है। शास्त्रों का सहारा लेकर जो जाति-आधारित ऊंच-नीच की बात करते हैं, वह झूठ है।’
अब प्रश्न उठता है कि संघ प्रवक्ता को यह सफाई देने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई? सरसंघचालक ने रविदास जयंती के अवसर पर जो कहा वह गलत कहां है? भागवत ने तार्किक पक्ष पर उंगली रखी है। भारत और भारतीय समाज जाति-प्रथा के अभिशाप को सदियों से भुगत रहा है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद जब हमने ‘समता, न्याय और बंधुता’ के आधार पर अपना संविधान बनाया तो उम्मीद यह की गयी थी कि हमारा भारत एक ऐसा समाज बनेगा, जिसमें धर्म, जाति, वर्ण, वर्ग के आधार पर किसी तरह का भेद-भाव नहीं बरता जायेगा। सब समान होंगे, सबको जीने, प्रगति करने का समान अधिकार होगा, समान अवसर मिलेंगे। लेकिन , दुर्भाग्य से, ऐसा हुआ नहीं, ऐसा होता दिख भी नहीं रहा है । धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, वर्ण के नाम पर आज भी हम बंटे हुए हैं, राजनीति निरंतर बाँट रही है और उनके आधार संगठन सत्य स्वीकार करने के स्थान पा हाँ में हाँ मिला रहे है । इसका कारण सच्चे झूठे हवाले भी दिए जा रहे हैं।
यह तथ्य सही नहीं है कि आज़ादी के बाद जाति या धर्म-आधारित व्यवस्था में कुछ सुधार नहीं हुआ। सुधार हुआ , और सुधार की कोशिशें भी होती रहती हैं, पर अब भी राजनीतिक स्वार्थों से हमें परिचालित किया जा रहा है। पंडित और ब्राह्मण के बीच अंतर बताने की विवशता के पीछे ऐसे ही स्वार्थ अपनी भूमिका निभा रहे हैं। अभी हम तुलसीकृत रामचरितमानस की एक चौपाई के विवाद से उबरे भी नहीं हैं कि एक नया विवाद खड़ा कर दिया गया है। चर्चित चौपाई से ‘छोटी’ समझी जाने वाली जातियों के लोग नाराज़ हो रहे हैं और भागवत के कथन से ब्राह्मण नाराज़ हैं। सच पूछा जाये तो ये दोनों विवाद बेमानी हैं। मानस की विवादित चौपाई में ‘शूद्रों और नारियों को लेकर जो कुछ कहा गया है, वह न तुलसी ने कहा है, न उन्होंने राम के मुंह से कहलवाया है। वह कथन समुद्र का है, समुद्र के विचार हैं ।
तुलसी के राम तो शबरी के जूठे बेर खाते हैं , निषाद को गले लगाते हैं । संत तुलसीदास ने यही समझाना चाहा है कि जाति या वर्ग के आधार पर आदमी और आदमी के बीच दीवार खड़ी करना ईश्वर-विरोधी कर्म है।’ आज भागवत समाज के प्रति जिस ज़िम्मेदारी की बात कर रहे हैं, उसके पीछे भी सामाजिक समानता की भावना ही है, और होनी भी चाहिए।
भागवत के ‘पंडितों की करनी’ वाले बयान पर उठा विवाद तो निरर्थक था ही । इस पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक के प्रवक्ता की सफाई की कोई आवश्यकता नहीं थी। ऐसा करना क्यों ज़रूरी समझा गया? क्यों ‘अनुवाद की गलती’ की जो बात बाद में कही गयी, इसे आज की राजनीति के संदर्भ में समझना मुश्किल नहीं है। आवश्यकता इस राजनीतिक विवशता से उबरने की है। ईश्वर ने इंसानों को समान बनाया है। यह ‘हरि’ सबका है, इसे अल्लाह या ईश्वर या गॉड में बांटना वस्तुतः उस ईश्वर को ही विभाजित करना है। इसे आप अपराध कहें या पाप, पर आदमी को बांटने का यह कर्म मनुष्यता-विरोधी काम है।